रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 94: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:30, 2 November 2022
एवं द्रव्यावधिं योजनावधिं चास्य प्रतिपाद्य कालावधिं प्रतिपादयन्नाह --
संवत्सरमृतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च
देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधिं प्राज्ञाः ॥94॥
टीका:
देशावकाशिकस्य कालावधिं कालमर्यादां प्राहु: । के ते ? प्राज्ञा: गणधरदेवादय: । किं तदित्याह संवत्सरमित्यादिॠ- संवत्सरं यावदेतावत्येव देशे मयाऽवस्थातव्यम् । तथा ऋतुमयनं वा यावत् । मासचतुर्मासपक्षं यावत् । ऋक्षं च चन्द्रभुक्त्या आदित्यभुक्त्या वा इदं नक्षत्रं यावत् ॥
देशव्रत में काल मर्यादा
संवत्सरमृतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च
देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधिं प्राज्ञाः ॥94॥
टीकार्थ:
देशावकाशिकव्रत में काल की मर्यादा बतलाते हुए गणधरदेवादिक ने एक वर्ष, एक ऋतु, एक अयन, एक मास, चार मास, एक पक्ष अथवा एक नक्षत्र को काल की अवधि कहा है अर्थात् इस प्रकार देशावकाशिक व्रत में आने-जाने की कालमर्यादा की जाती है, ऐसा कहा है ।