द्रव्यार्थिक नय निर्देश: Difference between revisions
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नयचक्र बृहद्/190 <span class="PrakritText">पज्जयगउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ...।190।</span>=<span class="HindiText">पर्याय को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य को ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं।</span><br /> | नयचक्र बृहद्/190 <span class="PrakritText">पज्जयगउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ...।190।</span>=<span class="HindiText">पर्याय को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य को ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं।</span><br /> | ||
समयसार / आत्मख्याति/13 <span class="SanskritText">द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में जो द्रव्य को मुख्यरूप से अनुभव करावे सो द्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | समयसार / आत्मख्याति/13 <span class="SanskritText">द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में जो द्रव्य को मुख्यरूप से अनुभव करावे सो द्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | ||
न.दी./3/82/125<span class="SanskritText"> तत्र द्रव्यार्थिकनय: द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायार्थिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयान्तरविषयसापेक्ष: सन्नय: इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्यानयनचोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकान्तस्वरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिकनय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्र को स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्य को अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सद्नय कहा है। जैसे‒यह कहना कि ‘सोना लाओ’। | न.दी./3/82/125<span class="SanskritText"> तत्र द्रव्यार्थिकनय: द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायार्थिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयान्तरविषयसापेक्ष: सन्नय: इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्यानयनचोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकान्तस्वरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिकनय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्र को स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्य को अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सद्नय कहा है। जैसे‒यह कहना कि ‘सोना लाओ’। यहाँ द्रव्यार्थिकनय के अभिप्राय से ‘सोना लाओ’ के कहने पर लाने वाला कड़ा, कुण्डल, केयूर (या सोने की डली) इनमें से किसी को भी ले आने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनारूप से कड़ा आदि में कोई भेद नहीं है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.1.2" id="IV.1.2"> द्रव्यार्थिकनय वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.1.2" id="IV.1.2"> द्रव्यार्थिकनय वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है</span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/9 <span class="SanskritText">द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरियर्त्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। ( तत्त्वसार/1/39 )।</span><br /> | सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/9 <span class="SanskritText">द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरियर्त्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। ( तत्त्वसार/1/39 )।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/13-14/ गा.107/205/252<span class="PrakritGatha"> पज्जवणयवाक्कंतं वत्थू [त्थं] द्रव्वट्ठियस्स वयणिज्जं। जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।107। </span>=<span class="HindiText">जिस के पश्चात् विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान | कषायपाहुड़/1/13-14/ गा.107/205/252<span class="PrakritGatha"> पज्जवणयवाक्कंतं वत्थू [त्थं] द्रव्वट्ठियस्स वयणिज्जं। जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।107। </span>=<span class="HindiText">जिस के पश्चात् विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान जहाँ तक होता है, वहाँ तक वह वस्तु द्रव्यार्थिकनय का विषय है। तथा वह पर्यायार्थिकनय से आक्रान्त है। अथवा जो वस्तु पर्यायार्थिकनय के द्वारा ग्रहण करके छोड़ दी गयी है, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। ( सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/10 ); ( हरिवंशपुराण/58/42 )।</span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10 <span class="SanskritText"> द्रव्यविषयो द्रव्यार्थ:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थ है। ( नयचक्र बृहद्/189 )।</span><br /> | श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10 <span class="SanskritText"> द्रव्यविषयो द्रव्यार्थ:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थ है। ( नयचक्र बृहद्/189 )।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/7 <span class="SanskritText"> तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">तद्भावलक्षण वाले सामान्य से अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले ऊर्ध्वता सामान्य से जो अभिन्न हैं, और सादृश्य लक्षण सामान्य से अर्थात् अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जाने वाले तिर्यग्सामान्य से जो कथंचित् अभिन्न है, ऐसी वस्तु को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। ( धवला 9/4,1,45/169/11 )।</span><br /> | कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/7 <span class="SanskritText"> तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">तद्भावलक्षण वाले सामान्य से अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले ऊर्ध्वता सामान्य से जो अभिन्न हैं, और सादृश्य लक्षण सामान्य से अर्थात् अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जाने वाले तिर्यग्सामान्य से जो कथंचित् अभिन्न है, ऐसी वस्तु को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। ( धवला 9/4,1,45/169/11 )।</span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.1.5" id="IV.1.5"> काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.1.5" id="IV.1.5"> काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/ गा.8/13 <span class="PrakritText">दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविणट्ठं।8। </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। ( धवला 4/1,5,4/ गा.29/337) ( धवला 9/4,1,49/ गा.94/244) ( कषायपाहुड़ 1/13-14/ गा.95/204/248) ( पंचास्तिकाय/11 ) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 247 )।</span><br /> | धवला 1/1,1,1/ गा.8/13 <span class="PrakritText">दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविणट्ठं।8। </span>=<span class="HindiText">द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। ( धवला 4/1,5,4/ गा.29/337) ( धवला 9/4,1,49/ गा.94/244) ( कषायपाहुड़ 1/13-14/ गा.95/204/248) ( पंचास्तिकाय/11 ) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 247 )।</span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/1 <span class="SanskritText">अयं सर्वोऽपि द्रव्यप्रस्तार: सदादि परमाणुपर्यन्तो नित्य:; द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।...सत: आविर्भाव एव उत्पाद: तस्यैव तिरोभाव एव विनाश:, इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत् स्थितम् । एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">सत् से लेकर परमाणु पर्यन्त ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। सत् का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से समस्त | कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/1 <span class="SanskritText">अयं सर्वोऽपि द्रव्यप्रस्तार: सदादि परमाणुपर्यन्तो नित्य:; द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।...सत: आविर्भाव एव उत्पाद: तस्यैव तिरोभाव एव विनाश:, इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत् स्थितम् । एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">सत् से लेकर परमाणु पर्यन्त ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। सत् का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से समस्त वस्तुएँ नित्य हैं। इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। यह निश्चय हो जाता है। इस प्रकार का द्रव्य जिस नय का प्रयोजन या विषय है, वह द्रव्यार्थिकनय है। ( धवला 1/1,1,1/84/7 )।<br /> | ||
और भी देखो‒(नय/IV/2/3/3) (नय/IV/2/6/2)।<br /> | और भी देखो‒(नय/IV/2/3/3) (नय/IV/2/6/2)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.1.6" id="IV.1.6"> भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.1.6" id="IV.1.6"> भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/33/1/95/4 <span class="SanskritText">अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ: कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्यं नार्थान्तरत्वम्, न कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।...अथवा अर्थनमर्थ: प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्गदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है। और परिणमन करता है या प्राप्त करता है ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारण का अर्थ या कार्य है। अर्थात् कारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है। कारण व कार्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है। उङ्गली व उसकी पोरी की | राजवार्तिक/1/33/1/95/4 <span class="SanskritText">अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ: कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्यं नार्थान्तरत्वम्, न कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।...अथवा अर्थनमर्थ: प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्गदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है। और परिणमन करता है या प्राप्त करता है ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारण का अर्थ या कार्य है। अर्थात् कारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है। कारण व कार्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है। उङ्गली व उसकी पोरी की भाँति दोनों एकाकार हैं। ऐसा द्रव्यार्थिकनय कहता है। अथवा अर्थन या अर्थ का अर्थ प्रयोजन है। द्रव्य ही जिसका अर्थ या प्रयोजन है सो द्रव्यार्थिक नय है। इसके विचार में अन्वय विज्ञान, अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मों का अर्थात् ज्ञान, शब्द व अर्थ तीनों का लोप नहीं किया जा सकता। तीनों एकरूप हैं। </span><br /> | ||
कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/2 <span class="SanskritText">न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते ...असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च।...एतद्द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य से पृथग्भूत पर्यायों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि असत् पदार्थ किया नहीं जा सकता; कार्य को उत्पन्न करने के लिए उपादानकारण का ग्रहण किया जाता है; सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही करते हैं; तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/2 <span class="SanskritText">न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते ...असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च।...एतद्द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य से पृथग्भूत पर्यायों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि असत् पदार्थ किया नहीं जा सकता; कार्य को उत्पन्न करने के लिए उपादानकारण का ग्रहण किया जाता है; सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही करते हैं; तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | ||
और भी | और भी दे.‒(नय/IV/2/3/4); (नय/IV/2/6/7,10)।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.1.7" id="IV.1.7">इसी से यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विकल्प है </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.1.7" id="IV.1.7">इसी से यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विकल्प है </span><br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="IV.2.3.1" id="IV.2.3.1">द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य</span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="IV.2.3.1" id="IV.2.3.1">द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य</span><br /> | ||
समयसार/14 <span class="PrakritGatha">जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।14। </span>=<span class="HindiText">जो नय आत्मा को बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे | समयसार/14 <span class="PrakritGatha">जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।14। </span>=<span class="HindiText">जो नय आत्मा को बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भावरूप से देखता है, उसे हे शिष्य ! तू शुद्धनय जान।14। (पं.वि./11/17)।</span><br /> | ||
धवला 9/4,1,45/170/5 <span class="SanskritText">सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी अद्वैतता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (विशेष देखें [[ नय#III.4 | नय - III.4]]) ( कषायपाहुड़/1/13-14/182/219/1 ) ( न्यायदीपिका/3/84/128 )।</span><br /> | धवला 9/4,1,45/170/5 <span class="SanskritText">सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी अद्वैतता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (विशेष देखें [[ नय#III.4 | नय - III.4]]) ( कषायपाहुड़/1/13-14/182/219/1 ) ( न्यायदीपिका/3/84/128 )।</span><br /> | ||
प्र.स./त.प्र./125<span class="SanskritText"> शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यान्त:प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते। </span>=<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर लीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है।<br /> | प्र.स./त.प्र./125<span class="SanskritText"> शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यान्त:प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते। </span>=<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर लीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2.3.4" id="IV.2.3.4"> भाव की अपेक्षा एक व शुद्ध स्वभावी है</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.3.4" id="IV.2.3.4"> भाव की अपेक्षा एक व शुद्ध स्वभावी है</span><br /> | ||
आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभाव:।</span> =<span class="HindiText">(पुद्गल का भी) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्धस्वभाव है।</span><br /> | आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभाव:।</span> =<span class="HindiText">(पुद्गल का भी) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्धस्वभाव है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं.47 <span class="SanskritText">शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरूपाधिस्वभावम् । </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय से आत्मा केवल मिट्टीमात्र की | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं.47 <span class="SanskritText">शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरूपाधिस्वभावम् । </span>=<span class="HindiText">शुद्धनय से आत्मा केवल मिट्टीमात्र की भाँति शुद्धस्वभाव वाला है। (घट, रामपात्र आदि की भाँति पर्यायगत स्वभाव वाला नहीं)।</span><br /> | ||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति 1/4/21 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव होता है।<br /> | पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति 1/4/21 <span class="SanskritText">शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। </span>=<span class="HindiText">शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव होता है।<br /> | ||
और भी देखें [[ नय#V.1.5.1 | नय - V.1.5.1 ]](जीव तो बन्ध व मोक्ष से अतीत है)।<br /> | और भी देखें [[ नय#V.1.5.1 | नय - V.1.5.1 ]](जीव तो बन्ध व मोक्ष से अतीत है)।<br /> | ||
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आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से (पुद्गल द्रव्य का) अशुद्ध स्वभाव है।</span><br /> | आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से (पुद्गल द्रव्य का) अशुद्ध स्वभाव है।</span><br /> | ||
आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्य ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.43)।</span><br /> | आलापपद्धति/9 <span class="SanskritText">अशुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध द्रव्य ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.43)।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय.नं.46 <span class="SanskritText">अशुद्धनयेन घटशराबविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधि स्वभावम् ।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध नय से आत्मा घट शराब आदि विशिष्ट (अर्थात् पर्यायकृत भेदों से विशिष्ट) मिट्टी मात्र की | प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय.नं.46 <span class="SanskritText">अशुद्धनयेन घटशराबविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधि स्वभावम् ।</span> =<span class="HindiText">अशुद्ध नय से आत्मा घट शराब आदि विशिष्ट (अर्थात् पर्यायकृत भेदों से विशिष्ट) मिट्टी मात्र की भाँति सोपाधिस्वभाव वाला है।</span><br /> | ||
पं.वि./1/17,27...<span class="SanskritText">इतरद्वाच्यं च तद्वाचकं।...प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध तत्त्व वचनगोचर है। उसका वाचक तथा भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध नय है।<br /> | पं.वि./1/17,27...<span class="SanskritText">इतरद्वाच्यं च तद्वाचकं।...प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्ध तत्त्व वचनगोचर है। उसका वाचक तथा भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध नय है।<br /> | ||
समयसार/ पं.जयचन्द/6 अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।<br /> | समयसार/ पं.जयचन्द/6 अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।<br /> | ||
और भी देखो नय/V/4 (व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होने से, उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विकल्प हैं।<br /> | और भी देखो नय/V/4 (व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होने से, उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विकल्प हैं।<br /> | ||
और भी देखो नय/IV/2/6 (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय | और भी देखो नय/IV/2/6 (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय पाँच विकल्पों द्वारा लक्षण किया गया है)।<br /> | ||
और भी देखो नय/V/1–(अशुद्ध निश्चय नय का लक्षण)।<br /> | और भी देखो नय/V/1–(अशुद्ध निश्चय नय का लक्षण)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="IV.2.6.1" id="IV.2.6.1"> कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="IV.2.6.1" id="IV.2.6.1"> कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक </span><br /> | ||
आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।</span>=<span class="HindiText">’संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है’ ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | आलापपद्धति/5 <span class="SanskritText">कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।</span>=<span class="HindiText">’संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है’ ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/191 <span class="PrakritGatha"> कम्माणं मज्झगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं। भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो। </span>=<span class="HindiText">कर्मों से | नयचक्र बृहद्/191 <span class="PrakritGatha"> कम्माणं मज्झगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं। भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो। </span>=<span class="HindiText">कर्मों से बँधे हुए जीव को जो सिद्धों के सदृश शुद्ध बताता है, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.40/श्लो.3)</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3<span class="SanskritText"> मिथ्यात्वादिगुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं। कर्मभिर्निरपेक्षो य: शुद्धद्रव्यार्थिको हि स:।1।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अर्थात् अशुद्ध भावों में स्थित जीव का जो सिद्धत्व कहता है वह कर्मनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3<span class="SanskritText"> मिथ्यात्वादिगुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं। कर्मभिर्निरपेक्षो य: शुद्धद्रव्यार्थिको हि स:।1।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अर्थात् अशुद्ध भावों में स्थित जीव का जो सिद्धत्व कहता है वह कर्मनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 <span class="SanskritText"> कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् ।</span>=<span class="HindiText">कर्मोपाधि निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धनिश्चयरूप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा इन द्रव्य व भाव कर्मों से निर्मुक्त है।<br /> | नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 <span class="SanskritText"> कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् ।</span>=<span class="HindiText">कर्मोपाधि निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धनिश्चयरूप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा इन द्रव्य व भाव कर्मों से निर्मुक्त है।<br /> | ||
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आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् ।</span> =<span class="HindiText">अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसीलिए इस नय की अपेक्षा एक द्रव्य के भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे–जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि)</span><br /> | आलापपद्धति/8 <span class="SanskritText">अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् ।</span> =<span class="HindiText">अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसीलिए इस नय की अपेक्षा एक द्रव्य के भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे–जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि)</span><br /> | ||
नयचक्र बृहद्/197 <span class="PrakritGatha"> निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं। विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिदो।197। </span>=<span class="HindiText">नि:शेष स्वभावों को जो सर्व द्रव्यों के साथ अन्वय या अनुस्यूत रूप से कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लो.4)</span><br /> | नयचक्र बृहद्/197 <span class="PrakritGatha"> निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं। विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिदो।197। </span>=<span class="HindiText">नि:शेष स्वभावों को जो सर्व द्रव्यों के साथ अन्वय या अनुस्यूत रूप से कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लो.4)</span><br /> | ||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.5/श्लो.7 <span class="SanskritGatha">नि:शेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमब्रबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सत्कटकादिषु।7।</span> =<span class="HindiText">जो सम्पूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरह में अनुबद्ध रहने वाले स्वर्ण की | नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.5/श्लो.7 <span class="SanskritGatha">नि:शेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमब्रबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सत्कटकादिषु।7।</span> =<span class="HindiText">जो सम्पूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरह में अनुबद्ध रहने वाले स्वर्ण की भाँति अन्वयद्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/101/140/11 <span class="SanskritText">पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनय:। </span>= <span class="HindiText">जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीन का तथा स्वसंवेदन ज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणों का (उपलक्षण से सम्पूर्ण गुण व पर्यायों का) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।<br /> | प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/101/140/11 <span class="SanskritText">पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनय:। </span>= <span class="HindiText">जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीन का तथा स्वसंवेदन ज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणों का (उपलक्षण से सम्पूर्ण गुण व पर्यायों का) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।<br /> | ||
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Revision as of 14:23, 20 July 2020
- द्रव्यार्थिकनय सामान्य निर्देश
- द्रव्यार्थिकनय का लक्षण
- द्रव्य ही प्रयोजन जिसका
सर्वार्थसिद्धि/1/6/21/1 द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य जिसका प्रयोजन है, सो द्रव्यार्थिक है। ( राजवार्तिक/1/33/1/95/8 ); ( धवला 1/1,1,1/83/11 ) ( धवला 9/4,1,45/170/1 ) ( कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/6 ) ( आलापपद्धति/9 ) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19 )।
- पर्याय को गौण करके द्रव्य का ग्रहण
श्लोकवार्तिक 2/1/6/ श्लो.19/361 तत्रांशिन्यपि नि:शेषधर्माणां गुणतागतौ। द्रव्यार्थिकनयस्यैव व्यापारान्मुख्यरूपत:।19। =जब सब अंशों को गौणरूप से तथा अंशी को मुख्यरूप से जानना इष्ट हो, तब द्रव्यार्थिकनय का व्यापार होता है।
नयचक्र बृहद्/190 पज्जयगउणं किच्चा दव्वंपि य जो हु गिहणए लोए। सो दव्वत्थिय भणिओ...।190।=पर्याय को गौण करके जो इस लोक में द्रव्य को ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं।
समयसार / आत्मख्याति/13 द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में जो द्रव्य को मुख्यरूप से अनुभव करावे सो द्रव्यार्थिकनय है।
न.दी./3/82/125 तत्र द्रव्यार्थिकनय: द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायार्थिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुजानन् स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, नयान्तरविषयसापेक्ष: सन्नय: इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति। अत्र द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्यानयनचोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् ।=द्रव्यार्थिकनय प्रमाण के विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक तथा एकानेकात्मक अनेकान्तस्वरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिकनय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ, उसकी स्थितिमात्र को स्वीकार कर अपने विषयभूत द्रव्य को अभेदरूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसलिए दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सद्नय कहा है। जैसे‒यह कहना कि ‘सोना लाओ’। यहाँ द्रव्यार्थिकनय के अभिप्राय से ‘सोना लाओ’ के कहने पर लाने वाला कड़ा, कुण्डल, केयूर (या सोने की डली) इनमें से किसी को भी ले आने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनारूप से कड़ा आदि में कोई भेद नहीं है।
- द्रव्य ही प्रयोजन जिसका
- द्रव्यार्थिकनय वस्तु के सामान्यांश को अद्वैतरूप विषय करता है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/140/9 द्रव्यं सामान्यमुत्सर्ग: अनुवृत्तिरियर्त्थ:। तद्विषयो द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य का अर्थ सामान्य, उत्सर्ग और अनुवृत्ति है। और इसको विषय करने वाला नय द्रव्यार्थिकनय है। ( तत्त्वसार/1/39 )।
कषायपाहुड़/1/13-14/ गा.107/205/252 पज्जवणयवाक्कंतं वत्थू [त्थं] द्रव्वट्ठियस्स वयणिज्जं। जाव दवियोपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।107। =जिस के पश्चात् विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसा द्रव्योपयोग अर्थात् सामान्यज्ञान जहाँ तक होता है, वहाँ तक वह वस्तु द्रव्यार्थिकनय का विषय है। तथा वह पर्यायार्थिकनय से आक्रान्त है। अथवा जो वस्तु पर्यायार्थिकनय के द्वारा ग्रहण करके छोड़ दी गयी है, वह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। ( सर्वार्थसिद्धि/1/6/20/10 ); ( हरिवंशपुराण/58/42 )।
श्लोकवार्तिक 4/1/33/3/215/10 द्रव्यविषयो द्रव्यार्थ:। =द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थ है। ( नयचक्र बृहद्/189 )।
कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/7 तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् ।=तद्भावलक्षण वाले सामान्य से अर्थात् पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले ऊर्ध्वता सामान्य से जो अभिन्न हैं, और सादृश्य लक्षण सामान्य से अर्थात् अनेक समान जातीय पदार्थों में पाये जाने वाले तिर्यग्सामान्य से जो कथंचित् अभिन्न है, ऐसी वस्तु को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। ( धवला 9/4,1,45/169/11 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/114 पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यंङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनवलोकितविशेषाणां तत्सर्वजीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। =पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब नारकत्व, तिर्यंक्त्व, मनुष्यत्व, देवत्व और सिद्धत्व पर्यायस्वरूप विशेषों में रहने वाले एक जीव सामान्य को देखने वाले और विशेषों को न देखने वाले जीवों को ‘यह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/269 जो साहदि सामण्णं अविणाभूदं विसेसरूवेहिं। णाणाजुत्तिबलादो दव्वत्थो सो णओ होदि।=जो नय वस्तु के विशेषरूपों से अविनाभूत सामान्यरूप को नाना युक्तियों के बल से साधता है, वह द्रव्यार्थिकनय है।
- द्रव्य की अपेक्षा विषय की अद्वैतता
- द्रव्य से भिन्न पर्याय नाम की कोई वस्तु नहीं
राजवार्तिक/1/33/1/94/25 द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकारा:, नाप्यभाव: तद्वयतिरेकेणानुपलब्धेरिति द्रव्यास्तिक:। ...अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुणकर्मणी तदवस्थारूपत्वादिति द्रव्यार्थिक:।...।=द्रव्य का होना ही द्रव्य का अस्तित्व है उससे अन्य भावविकार या पर्याय नहीं है, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यास्तिकनय है। अथवा द्रव्य ही जिसका अर्थ या विषय है, गुण व कर्म (क्रिया या पर्याय) नहीं, क्योंकि वे भी तदवस्थारूप अर्थात् द्रव्यरूप ही हैं, ऐसी जिसकी मान्यता है वह द्रव्यार्थिक नय है।
कषायपाहुड़/1/13-14/180/216/1 द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् । न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते; सत्तादिव्यतिरिक्तपर्यायानुपलम्भात् । न चोत्पत्तिरप्यस्ति; असत: खरविषाणस्योत्पत्तिविरोधात् ।... एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। पर्याय द्रव्य से पृथक् उत्पन्न होती है, ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्तादिरूप द्रव्य से पृथक् पर्यायें नहीं पायी जाती हैं। तथा सत्तादिरूप द्रव्य से उनको पृथक् मानने पर वे असत्रूप हो जाती हैं, अत: उनकी उत्पत्ति भी नहीं बन सकती है, क्योंकि खरविषाण की तरह असत् की उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। ऐसा द्रव्य जिस नय का प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।
- वस्तु के सब धर्म अभिन्न व एकरस हैं
देखें सप्तभंगी - 5.8 (द्रव्यार्थिक नय से काल, आत्मस्वरूप आदि 8 अपेक्षाओं से द्रव्य के सर्व धर्मों में अभेद वृत्ति है)। और भी देखो‒(नय/IV/2/3/1) (नय/IV/2/6/3)।
- द्रव्य से भिन्न पर्याय नाम की कोई वस्तु नहीं
- क्षेत्र की अपेक्षा विषय की अद्वैतता है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/6 द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि भवन्ति, जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि। =द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव पुद्गल व काल ये तीन द्रव्य अनेक अनेक हैं। (देखें द्रव्य - 3.4)।
और भी देखो नय/IV/2/6/3 भेद निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश व जीव इन चारों में एक प्रदेशीपना है।
देखें नय - IV.2.3.2 प्रत्येक द्रव्य अपने अपने में स्थित है।
- काल की अपेक्षा विषय की अद्वैतता
धवला 1/1,1,1/ गा.8/13 दव्वट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविणट्ठं।8। =द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। ( धवला 4/1,5,4/ गा.29/337) ( धवला 9/4,1,49/ गा.94/244) ( कषायपाहुड़ 1/13-14/ गा.95/204/248) ( पंचास्तिकाय/11 ) ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध 247 )।
कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/1 अयं सर्वोऽपि द्रव्यप्रस्तार: सदादि परमाणुपर्यन्तो नित्य:; द्रव्यात् पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।...सत: आविर्भाव एव उत्पाद: तस्यैव तिरोभाव एव विनाश:, इति द्रव्यार्थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत् स्थितम् । एतद्द्रव्यमर्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। =सत् से लेकर परमाणु पर्यन्त ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्य से सर्वथा पृथग्भूत पर्यायों की सत्ता नहीं पायी जाती है। सत् का आविर्भाव ही उत्पाद है और उसका तिरोभाव ही विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय से समस्त वस्तुएँ नित्य हैं। इसलिए न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है। यह निश्चय हो जाता है। इस प्रकार का द्रव्य जिस नय का प्रयोजन या विषय है, वह द्रव्यार्थिकनय है। ( धवला 1/1,1,1/84/7 )।
और भी देखो‒(नय/IV/2/3/3) (नय/IV/2/6/2)।
- भाव की अपेक्षा विषय की अद्वैतता
राजवार्तिक/1/33/1/95/4 अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थ: कार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्यं नार्थान्तरत्वम्, न कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।...अथवा अर्थनमर्थ: प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्गदर्शनस्य निह्नोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिक:। =अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है। और परिणमन करता है या प्राप्त करता है ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारण का अर्थ या कार्य है। अर्थात् कारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है। कारण व कार्य में किसी प्रकार का भेद नहीं है। उङ्गली व उसकी पोरी की भाँति दोनों एकाकार हैं। ऐसा द्रव्यार्थिकनय कहता है। अथवा अर्थन या अर्थ का अर्थ प्रयोजन है। द्रव्य ही जिसका अर्थ या प्रयोजन है सो द्रव्यार्थिक नय है। इसके विचार में अन्वय विज्ञान, अनुगताकार वचन और अनुगत धर्मों का अर्थात् ज्ञान, शब्द व अर्थ तीनों का लोप नहीं किया जा सकता। तीनों एकरूप हैं।
कषायपाहुड़ 1/13-14/180/216/2 न पर्यायस्तेभ्य: पृथगुत्पद्यते ...असदकरणात् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् कारणाभावाच्च।...एतद्द्रव्यमर्थं प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:। =द्रव्य से पृथग्भूत पर्यायों की उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योंकि असत् पदार्थ किया नहीं जा सकता; कार्य को उत्पन्न करने के लिए उपादानकारण का ग्रहण किया जाता है; सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्य को ही करते हैं; तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिकनय है।
और भी दे.‒(नय/IV/2/3/4); (नय/IV/2/6/7,10)।
- इसी से यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विकल्प है
कषायपाहुड़ 1/13-14/ गा.107/205 जाव दविओपजोगो अपच्छिमवियप्पणिव्वयणो।107। =जिसके पीछे विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार नहीं है ऐसे अन्तिमविशेष तक द्रव्योपयोग की प्रवृत्ति होती है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/518 भवति द्रव्यार्थिक इति नय: स्वधात्वर्थसंज्ञकश्चैक: =वह अपने धात्वर्थ के अनुसार संज्ञावाला द्रव्यार्थिक नय एक है।
और भी देखो‒(नय/V/2)
- द्रव्यार्थिकनय का लक्षण
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय निर्देश
धवला 9/4,1,45/170/5 शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:...अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। =संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक है और व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/1 ) ( तत्त्वसार/1/41 )।
आलापपद्धति/9 शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदो। =शुद्ध निश्चय व अशुद्ध निश्चय दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं।
- शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण
- शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्व का प्रयोजक
आलापपद्धति/9 शुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक:। =शुद्ध द्रव्य ही है अर्थ और प्रयोजन जिसका सो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.43 शुद्धद्रव्यार्थेन चरतीति शुद्धद्रव्यार्थिक:। =जो शुद्धद्रव्य के अर्थरूप से आचरण करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है।
पं.विं./1/157 शुद्धं वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति...। =शुद्ध तत्त्व वचन के अगोचर है, ऐसे शुद्ध तत्त्व को ग्रहण करने वाला नय शुद्धादेश है। ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/747 )।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/33,133 अथ शुद्धनयादेशाच्छुद्धश्चैकविधोऽपि य:। =शुद्ध नय की अपेक्षा से जीव एक तथा शुद्ध है।
और भी देखें नय - III.4‒(सत्मात्र है अन्य कुछ नहीं)।
- शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्व का प्रयोजक
- शुद्धद्रव्यार्थिक नय का विषय
- द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य
समयसार/14 जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णयं णियदं। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि।14। =जो नय आत्मा को बन्ध रहित और पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, विशेष रहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भावरूप से देखता है, उसे हे शिष्य ! तू शुद्धनय जान।14। (पं.वि./11/17)।
धवला 9/4,1,45/170/5 सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स संग्रह:। =जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी अद्वैतता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (विशेष देखें नय - III.4) ( कषायपाहुड़/1/13-14/182/219/1 ) ( न्यायदीपिका/3/84/128 )।
प्र.स./त.प्र./125 शुद्धद्रव्यनिरूपणायां परद्रव्यसंपर्कासंभवात्पर्यायाणां द्रव्यान्त:प्रलयाच्च शुद्धद्रव्य एवात्मावतिष्ठते। =शुद्धद्रव्य के निरूपण में परद्रव्य के संपर्क का असंभव होने से और पर्यायें द्रव्य के भीतर लीन हो जाने से आत्मा शुद्धद्रव्य ही रहता है।
और भी देखो नय/V/1/2 (निश्चय से न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है (आत्मा तो एक ज्ञायक मात्र है)।
और भी देखो नय/IV/1/3 (द्रव्यार्थिक नय सामान्य में द्रव्य का अद्वैत)।
और भी देखो नय/IV/2/6/3 (भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय)।
- क्षेत्र की अपेक्षा स्व में स्थिति
परमात्मप्रकाश/ मू./1/29/32 देहादेहिं जो वसइ भेयाभेयणएण। सो अप्पा मुणि जीव तुहुं किं अण्णें बहुएण।29।
परमात्मप्रकाश टीका/2 शुद्धनिश्चयनयेन तु अभेदनयेन स्वदेहाद्भिन्ने स्वात्मनि वसति य: तमात्मानं मन्यस्व। =जो व्यवहार नय से देह में तथा निश्चयनय से आत्मा में बसता है उसे ही हे जीव तू आत्मा जान।29। शुद्धनिश्चयनय अर्थात् अभेदनय से अपनी देह से भिन्न रहता हुआ वह निजात्मा में बसता है।
द्रव्यसंग्रह टीका/19/58/2 सर्वद्रव्याणि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठन्ति। =सभी द्रव्य निश्चयनय से निज निज प्रदेशों में रहते हैं। और भी देखो‒(नय/IV/1/4); (नय/2/6/3)।
- काल की अपेक्षा उत्पादव्यय रहित है
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/11/27/19 शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन नरनारकादिविभावपरिणामोत्पत्तिविनाशरहितम् । =शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से नर नारकादि विभाव परिणामों की उत्पत्ति तथा विनाश से रहित है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/216 यदि वा शुद्धत्वनयान्नाप्युप्पादो व्ययोऽपि न ध्रौव्यम् । ...केवलं सदिति।216। =शुद्धनय की अपेक्षा न उत्पाद है, न व्यय है और न ध्रौव्य है, केवल सत् है।
और भी देखो‒(नय/IV/1/5); (नय/IV/2/6/2)।
- भाव की अपेक्षा एक व शुद्ध स्वभावी है
आलापपद्धति/8 शुद्धद्रव्यार्थिकेन शुद्धस्वभाव:। =(पुद्गल का भी) शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से शुद्धस्वभाव है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय नं.47 शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरूपाधिस्वभावम् । =शुद्धनय से आत्मा केवल मिट्टीमात्र की भाँति शुद्धस्वभाव वाला है। (घट, रामपात्र आदि की भाँति पर्यायगत स्वभाव वाला नहीं)।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति 1/4/21 शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति। =शुद्ध निश्चयनय से अपने में ही आराध्य आराधक भाव होता है।
और भी देखें नय - V.1.5.1 (जीव तो बन्ध व मोक्ष से अतीत है)।
और भी देखो आगे (नय/IV/2/6/10)।
- द्रव्य की अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य
- अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का लक्षण
धवला 9/4,1,45/171/3 पर्यायकलङ्किततया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:। =(अनेक भेदों रूप) पर्यायकलंक से युक्त होने के कारण व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिक है। (विशेष देखें नय - V.4) ( कषायपाहुड़ 1/13-14/182/219/2 )।
आलापपद्धति/8 अशुद्धद्रव्यार्थिकेन अशुद्धस्वभाव:। =अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय से (पुद्गल द्रव्य का) अशुद्ध स्वभाव है।
आलापपद्धति/9 अशुद्धद्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येत्यशुद्धद्रव्यार्थिक:। =अशुद्ध द्रव्य ही है अर्थ या प्रयोजन जिसका सो अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.43)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/ परि./नय.नं.46 अशुद्धनयेन घटशराबविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधि स्वभावम् । =अशुद्ध नय से आत्मा घट शराब आदि विशिष्ट (अर्थात् पर्यायकृत भेदों से विशिष्ट) मिट्टी मात्र की भाँति सोपाधिस्वभाव वाला है।
पं.वि./1/17,27...इतरद्वाच्यं च तद्वाचकं।...प्रभेदजनकं शुद्धेतरत्कल्पितम् ।=शुद्ध तत्त्व वचनगोचर है। उसका वाचक तथा भेद को प्रगट करने वाला अशुद्ध नय है।
समयसार/ पं.जयचन्द/6 अन्य परसंयोगजनित भेद हैं वे सब भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषय हैं।
और भी देखो नय/V/4 (व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय होने से, उसके ही सर्व विकल्प अशुद्धद्रव्यार्थिकनय के विकल्प हैं।
और भी देखो नय/IV/2/6 (अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय पाँच विकल्पों द्वारा लक्षण किया गया है)।
और भी देखो नय/V/1–(अशुद्ध निश्चय नय का लक्षण)।
- द्रव्यार्थिक के दश भेदों का निर्देश
आलापपद्धति/5 द्रव्यार्थिकस्य दश भेदा:। कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको, ...उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिक:, ...भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिक:, ...कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको,...उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धो द्रव्यार्थिको, ...अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको,...स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको, ...परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको। =द्रव्यार्थिकनय के 10 भेद हैं––1. कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; 2. उत्पादव्यय गौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक; 3. भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक; 4. कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; 5. उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक; 6. भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक; 7. अन्वय द्रव्यार्थिक; 8. स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; 9. परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक; 10. परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.36-37)
- द्रव्यार्थिक नयदशक के लक्षण
- कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 कर्मोपाधिनिरपेक्ष: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारी जीवो सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।=’संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्धात्मा है’ ऐसा कहना कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।
नयचक्र बृहद्/191 कम्माणं मज्झगदं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं। भण्णइ सो सुद्धणओ खलु कम्मोवाहिणिरवेक्खो। =कर्मों से बँधे हुए जीव को जो सिद्धों के सदृश शुद्ध बताता है, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.40/श्लो.3)
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 मिथ्यात्वादिगुणस्थाने सिद्धत्वं वदति स्फुटं। कर्मभिर्निरपेक्षो य: शुद्धद्रव्यार्थिको हि स:।1। =मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अर्थात् अशुद्ध भावों में स्थित जीव का जो सिद्धत्व कहता है वह कर्मनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/107 कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ताग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्तम् ।=कर्मोपाधि निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धनिश्चयरूप द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा इन द्रव्य व भाव कर्मों से निर्मुक्त है।
- सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 उत्पादव्ययगौणत्वेन सत्ताग्राहक: शुद्धद्रव्यार्थिको यथा, द्रव्यं नित्यम् ।=उत्पादव्ययगौण सत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यार्थिक नय से द्रव्य नित्य या नित्यस्वभावी है। ( आलापपद्धति/8 ), ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लो.2)
नयचक्र बृहद्/192 उप्पादवयं गउणं किच्चा जो गहइ केवला सत्ता। भण्णइ सो सुद्धणओ इह सत्तागाहिओ समये।192। =उत्पाद और व्यय को गौण करके मुख्य रूप से जो केवल सत्ता को ग्रहण करता है, वह सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/40/ श्लो.4)
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/19 सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्तव्यञ्जनपर्यायेभ्य: सकाशान्मुक्तामुक्तसमस्तजीवराशय: सर्वथा व्यतिरिक्ता एव। =सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के बल से, मुक्त तथा अमुक्त सभी जीव पूर्वोक्त (नर नारक आदि) व्यंजन पर्यायों से सर्वथा व्यतिरिक्त ही हैं।
- भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम् ।
आलापपद्धति/8 भेदकल्पनानिरपेक्षेणैकस्वभाव:। =भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य निज गुणपर्यायों के स्वभाव से अभिन्न है तथा एक स्वभावी है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लो.3)
नयचक्र बृहद्/193 गुणगुणिआइचउक्के अत्थे जो णो करइ खलु भेयं। सुद्धो सो दव्वत्थो भेयवियप्पेण णिरवेक्खो।193।=गुण-गुणी और पर्याय-पर्यायी रूप ऐसे चार प्रकार के अर्थ में जो भेद नहीं करता है अर्थात् उन्हें एकरूप ही कहता है, वह भेदविकल्पों से निरपेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिक नय है। (और भी देखें नय - V.1.2) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लो.5)
आलापपद्धति/8 भेदकल्पनानिरपेक्षेणेतरेषां धर्माधर्माकाशजीवानां चाखण्डत्वादेकप्रदेशत्वम् ।=भेदकल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव इन चारों बहुप्रदेशी द्रव्यों के अखण्डता होने के कारण एकप्रदेशपना है।
- कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा। =कर्मजनित क्रोधादि भाव ही आत्मा है ऐसा कहना कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
नयचक्र बृहद्/194 भावे सरायमादी सव्वे जीवम्मि जो दु जंपदि। सो हु असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो।194। =जो सर्व रागादि भावों को जीव में कहता है अर्थात् जीव को रागादिस्वरूप कहता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लो.1)
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लो.4 औदयिकादित्रिभावान् यो ब्रूते सर्वात्मसत्तया। कर्मोपाधिविशिष्टात्मा स्यादशुद्धस्तु निश्चय:।4। =जो नय औदयिक, औपशमिक व क्षायोपशमिक इन तीन भावों को आत्मसत्ता से युक्त बतलाता है वह कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
- उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथैकस्मिन्समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम् ।=उत्पादव्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य एक समय में ही उत्पाद व्यय व ध्रौव्य रूप इस प्रकार त्रयात्मक है। ( नयचक्र बृहद्/195 ), ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.4/श्लो.5) ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लो.2)
- भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 भेदकल्पनासापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथात्मनो ज्ञानदर्शनज्ञानादयो गुणा:।
आलापपद्धति/8 भेदकल्पनासापेक्षेण चतुर्णामपि नानाप्रदेशस्वभावत्वम् । =भेद कल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा ज्ञान दर्शन आदि आत्मा के गुण हैं, (ऐसा गुण गुणी भेद होता है)–तथा धर्म, अधर्म, आकाश व जीव ये चारों द्रव्य अनेक प्रदेश स्वभाव वाले हैं।
नयचक्र बृहद्/196 भेए सदि सबन्धं गुणगुणियाईहि कुणदि जो दव्वे। सो वि अशुद्धो दिट्टी सहिओ सो भेदकप्पेण।=जो द्रव्य में गुण-गुणी भेद करके उनमें सम्बन्ध स्थापित करता है (जैसे द्रव्य गुण व पर्याय वाला है अथवा जीव ज्ञानवान् है) वह भेदकल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/5/ श्लो.6 तथा/41/ख.3) (विशेष देखें नय - V.4)
- अन्वय द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 अन्वयसापेक्षो द्रव्यार्थिको यथा, गुणपर्यायस्वभावं द्रव्यम् ।
आलापपद्धति/8 अन्वयद्रव्यार्थिकत्वेनैकस्याप्यनेकस्वभावत्वम् । =अन्वय सापेक्ष द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गुणपर्याय स्वरूप ही द्रव्य है और इसीलिए इस नय की अपेक्षा एक द्रव्य के भी अनेक स्वभावीपना है। (जैसे–जीव ज्ञानस्वरूप है, जीव दर्शनस्वरूप है इत्यादि)
नयचक्र बृहद्/197 निस्सेससहावाणं अण्णयरूवेण सव्वदव्वेहिं। विवहावणाहि जो सो अण्णयदव्वत्थिओ भणिदो।197। =नि:शेष स्वभावों को जो सर्व द्रव्यों के साथ अन्वय या अनुस्यूत रूप से कहता है वह अन्वय द्रव्यार्थिकनय है ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/41/ श्लो.4)
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.5/श्लो.7 नि:शेषगुणपर्यायान् प्रत्येकं द्रव्यमब्रबीत् । सोऽन्वयो निश्चयो हेम यथा सत्कटकादिषु।7। =जो सम्पूर्ण गुणों और पर्यायों में से प्रत्येक को द्रव्य बतलाता है, वह विद्यमान कड़े वगैरह में अनुबद्ध रहने वाले स्वर्ण की भाँति अन्वयद्रव्यार्थिक नय है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/101/140/11 पूर्वोक्तोत्पादादित्रयस्य तथैव स्वसंवेदनज्ञानादिपर्यायत्रयस्य चानुगताकारेणान्वयरूपेण यदाधारभूतं तदन्वयद्रव्यं भण्यते, तद्विषयो यस्य स भवत्यन्वयद्रव्यार्थिकनय:। = जो पूर्वोक्त उत्पाद आदि तीन का तथा स्वसंवेदन ज्ञान दर्शन चारित्र इन तीन गुणों का (उपलक्षण से सम्पूर्ण गुण व पर्यायों का) आधार है वह अन्वय द्रव्य कहलाता है। वह जिसका विषय है वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है।
- स्वद्रव्यादि ग्राहक
आलापपद्धति/5 स्वद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यमस्ति। =स्वद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव इस स्वचतुष्टय से ही द्रव्य का अस्तित्व है या इन चारों रूप ही द्रव्य का अस्तित्व स्वभाव है। ( आलापपद्धति/8 ); ( नयचक्र बृहद्/198 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 व पृ.41/श्लो.5); (नय/I/5/2)
- परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति।=परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव इस परचतुष्टय से द्रव्य का नास्तित्व है। अर्थात् परचतुष्टय की अपेक्षा द्रव्य का नास्तित्व स्वभाव है। ( आलापपद्धति/8 ); ( नयचक्र बृहद्/198 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 तथा 41/श्लो.6); (नय/I/5/2)
- परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक
आलापपद्धति/5 परमभावग्राहकद्रव्यार्थिको यथा–ज्ञानस्वरूप आत्मा। =परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा आत्मा ज्ञानस्वभाव में स्थित है।
आलापपद्धति/8 परमभावग्राहकेण भव्याभव्यपारिणामिकस्वभाव:। ...कर्मनोकर्मणोरचेतनस्वभाव:। ... कर्मनोकर्मणोर्मूर्तस्वभाव:।...पुद्गलं विहाय इतरेषाममूर्त्तस्वभाव:। ...कालपरमाणूनामेकप्रदेशस्वभावम् । =परमभावग्राहक नय से भव्य व अभव्य पारिणामिक स्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म अचेतनस्वभावी हैं; कर्म व नोकर्म मूर्तस्वभावी हैं, पुद्गल के अतिरिक्त शेष द्रव्य अमूर्तस्वभावी हैं; काल व परमाणु एकप्रदेशस्वभावी है।
नयचक्र बृहद्/199 गेह्णइ दव्वसहावं असुद्धसुद्धोवयारपरिचत्तं। सो परमभावगाही णायव्वो सिद्धिकामेण।199। =जो औदयिकादि अशुद्धभावों से तथा शुद्ध क्षायिकभाव के उपचार से रहित केवल द्रव्य के त्रिकाली परिणामाभावरूप स्वभाव को ग्रहण करता है उसे परमभावग्राही नय जानना चाहिए। ( नयचक्र बृहद्/116 )
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.3 संसारमुक्तपर्यायाणामाधारं भूत्वाप्यात्मद्रव्यकर्मबन्धमोक्षाणां कारणं न भवतीति परमभावग्राहकद्रव्यार्थिकनय:। =परमभाव ग्राहकनय की अपेक्षा आत्मा संसार व मुक्त पर्यायों का आधार होकर भी कर्मों के बन्ध व मोक्ष का कारण नहीं होता है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/320/408/5 सर्वविशुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धोपादानभूतेन शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन कर्तृत्व-भोक्तृत्वमोक्षादिकारणपरिणामशून्यो जीव इति सूचित:। =सर्वविशुद्ध पारिणामिक परमभाव ग्राहक, शुद्ध उपादानभूत शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से, जीव कर्ता, भोक्ता व मोक्ष आदि के कारणरूप परिणमों से शून्य है।
द्रव्यसंग्रह टीका/57/236 यस्तु शुद्धशक्तिरूप: शुद्धपारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्ष: स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानीं भविष्यतीत्येवं न। =जो शुद्धद्रव्य की शक्तिरूप शुद्ध-पारिणामिक परमभावरूप परम निश्चय मोक्ष है वह तो जीव में पहिले ही विद्यमान है। वह अब प्रकट होगी, ऐसा नहीं है।
और भी देखें [[ ]](नय/V/1/5 शुद्धनिश्चय नय बन्ध मोक्ष से अतीत शुद्ध जीव को विषय करता है)।
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