पद्मसेन: Difference between revisions
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<li> महापुराण/59/ श्लोक पश्चिम | <li> महापुराण/59/ श्लोक पश्चिम धातकीखंड में रम्यकावती देश के महानगर का राजा था (2-3)। दीक्षित होकर 11 अंगों का पारगामी हो गया। तथा तीथकर प्रकृति का बंध कर अंत में समाधिपूर्वक सहस्रार स्वर्ग में इंद्रपद प्राप्त किया (8-10)। यह विमलनाथ भगवान् का पूर्व का दूसरा भव है - देखें [[ विमलनाथ ]]। </li> | ||
<li>पचस्तूपसंघ की गुर्वावली के अनुसार (देखें [[ इतिहास#5.17 | इतिहास - 5.17]]) आप धवलाकार वीरसेन स्वामी के शिष्य थे। ( महापुराण/ प्र./31/पं.)। </li> | <li>पचस्तूपसंघ की गुर्वावली के अनुसार (देखें [[ इतिहास#5.17 | इतिहास - 5.17]]) आप धवलाकार वीरसेन स्वामी के शिष्य थे। ( महापुराण/ प्र./31/पं.)। </li> | ||
<li>पुन्नाटसंघ की गुर्वावली के अनुसार आप वीरवित के शिष्य तथा व्याघ्रहस्त के गुरु थे। - देखें [[ इतिहास#5.18 | इतिहास - 5.18]]। </li> | <li>पुन्नाटसंघ की गुर्वावली के अनुसार आप वीरवित के शिष्य तथा व्याघ्रहस्त के गुरु थे। - देखें [[ इतिहास#5.18 | इतिहास - 5.18]]। </li> | ||
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<p id="1"> (1) पश्चिम | <p id="1"> (1) पश्चिम धातकीखंड में स्थित रम्यकावती देश के महानगर के प्रजा हितैषी एक राजा । सर्वगुप्त केवली से धर्मतत्त्व को जानकर तथा यह भी जानकर कि उनके मुक्त होने में केवल दो आगामी भव शेष रह गये हैं― उन्होंने अपने पुत्र पद्मनाभ को राज्य दे दिया । इन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और उत्कृष्ट तप से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । मृत्यु होने पर ये सहस्रार स्वर्ग के विमान में इंद्र हुए और यहाँ से च्युत होकर तेरहवें तीर्थंकर विमल नाथ हुए । <span class="GRef"> महापुराण 59.2-3, 7-10, 21-22 </span></p> | ||
<p id="2">(2) अयोध्या का राजा । इसने पूर्व विदेहक्षेत्र के मंगलावती देश में रत्नसंचय नगर के राजा विश्वसेन को मारा था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60. 57-59 </span></p> | <p id="2">(2) अयोध्या का राजा । इसने पूर्व विदेहक्षेत्र के मंगलावती देश में रत्नसंचय नगर के राजा विश्वसेन को मारा था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60. 57-59 </span></p> | ||
<p id="3">(3) भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् हुए आचार्यों में एक आचार्य । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 66.27 </span></p> | <p id="3">(3) भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् हुए आचार्यों में एक आचार्य । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 66.27 </span></p> |
Revision as of 16:28, 19 August 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- महापुराण/59/ श्लोक पश्चिम धातकीखंड में रम्यकावती देश के महानगर का राजा था (2-3)। दीक्षित होकर 11 अंगों का पारगामी हो गया। तथा तीथकर प्रकृति का बंध कर अंत में समाधिपूर्वक सहस्रार स्वर्ग में इंद्रपद प्राप्त किया (8-10)। यह विमलनाथ भगवान् का पूर्व का दूसरा भव है - देखें विमलनाथ ।
- पचस्तूपसंघ की गुर्वावली के अनुसार (देखें इतिहास - 5.17) आप धवलाकार वीरसेन स्वामी के शिष्य थे। ( महापुराण/ प्र./31/पं.)।
- पुन्नाटसंघ की गुर्वावली के अनुसार आप वीरवित के शिष्य तथा व्याघ्रहस्त के गुरु थे। - देखें इतिहास - 5.18।
पुराणकोष से
(1) पश्चिम धातकीखंड में स्थित रम्यकावती देश के महानगर के प्रजा हितैषी एक राजा । सर्वगुप्त केवली से धर्मतत्त्व को जानकर तथा यह भी जानकर कि उनके मुक्त होने में केवल दो आगामी भव शेष रह गये हैं― उन्होंने अपने पुत्र पद्मनाभ को राज्य दे दिया । इन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और उत्कृष्ट तप से तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया । मृत्यु होने पर ये सहस्रार स्वर्ग के विमान में इंद्र हुए और यहाँ से च्युत होकर तेरहवें तीर्थंकर विमल नाथ हुए । महापुराण 59.2-3, 7-10, 21-22
(2) अयोध्या का राजा । इसने पूर्व विदेहक्षेत्र के मंगलावती देश में रत्नसंचय नगर के राजा विश्वसेन को मारा था । हरिवंशपुराण 60. 57-59
(3) भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् हुए आचार्यों में एक आचार्य । हरिवंशपुराण 66.27