मन
From जैनकोष
मन एक अभ्यन्तर इन्द्रिय है। ये दो प्रकार की है–द्रव्य व भाव। हृदय स्थान में अष्टपांखुड़ी के कमल के आकाररूप पुद्गलों की रचना विशेष द्रव्यमन है। चक्षु आदि इन्द्रियोंवत् अपने विषय में निमित्त होने पर भी अप्रत्यक्ष व अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इसे इन्द्रिय न कहकर अनिन्द्रिय या ईषत् इन्द्रिय कहा जाता है। संकल्पविकल्पात्मक परिणाम तथा विचार, चिन्तवन आदिरूप ज्ञान की अवस्था विशेष भावमन है।
- मन-सामान्य का लक्षण
स.सि./१/१४/१०९/३ अनिन्द्रियं मन: अन्तःकरणमित्यनर्थान्तरम्। = अनिन्द्रिय, मन और अन्त:करण ये एकार्थवाची नाम हैं। (रा.वा./१/१४/२/५९/१९); (न्या.द./भाष्य/१/१/९/१६); (न्या.दी./२/१२/३३/२)।
द्र.सं./टी./१२/३०/१ नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते। = नानाप्रकार के विकल्पजाल को मन कहते हैं। (प.प्र./टी./२/१६३/२७५/१०); (तत्त्वबोध/शंकराचार्य)।
देखें - संज्ञी / १ / २ –(‘संज्ञ’ अर्थात् ठीक प्रकार जानना मन है।)
देखें - मन :पर्यय/३/२ (कारण में कार्य के उपचार से मतिज्ञान को मन कहते हैं।) - मन के भेद
स.सि./२/११/१७०/३ मनो द्विविधं-द्रव्यमनो भावमनश्चेति। = मन दो प्रकार का है–द्रव्यमन व भावमन। (स.सि./५/३/२६९/२;५/१९/२८७/१); (रा.वा./२/११/१/१२५/१९; ५/३/३/४४२/९; ५/१९/२०/४७१/१); (ध.१/१,१,३५/२५९/६); (चा.सा./८८/३); (गो.जी./जी.प्र./६०६/१०१/१०६२/६)। - द्रव्यमन का लक्षण
स.सि./२/११/१७०/१ पुद्गलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमन:।
स.सि./५/३/२६९/४ द्रव्यमनश्च रूपादियोगात् पुद्गलद्रव्यविकार:। = द्रव्यमन पुद्गलविपाकी नामकर्म के उदय से होता है। (रा.वा./२/११/१/१२५/२०); (ध.१/१,१,३५/२५९/६)–रूपादिक युक्त होने से द्रव्यमन पुद्गलद्रव्य की पर्याय है। (रा.वा./५/३/३/४४२/१०)। (विशेष देखें - मूर्त्त / २ )।
गो.जी./मू./४४३/८६१ हिदि होदि हु दव्वमणं वियसियअट्ठच्छदारविंदं वा। अंगोवंगुदयादो मणवग्गणखंघदो णियमा। = जो हृदयस्थान में आठ पाँखुडी के कमल के आकारवाला है, तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से मनोवर्गणा के स्कन्ध से उत्पन्न हुआ है उसे द्रव्यमन कहते हैं। (वह अत्यन्त सूक्ष्म तथा इन्द्रियागोचर है– देखें - मन / ८ ); (द्र.सं./टी.१२/३०/६); (पं.ध./पू./७१३)। - भावमन का लक्षण
स.सि./२/११/१७०/४ वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षया आत्मनो विशुद्धिर्भावमन:।
स.सि./५/३/२६९/३ तत्र भावमनो ज्ञानम्; तस्य जीवगुणत्वादात्मन्यन्तर्भाव:।
स.सि./५/१९/२८७/१ भावमनस्तावल्लब्ध्युपयोगलक्षणम्। =- वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखने वाले आत्मा की विशुद्धि को भावमन कहते हैं। (रा.वा./२/११/१/१२५/२०); (ध.१/१,१,३५/२५९/६)।
- भावमन ज्ञानस्वरूप है, और ज्ञान जीव का गुण होने से उसका आत्मा में अन्तर्भाव होता है । (रा.वा./५/३/३/४४२/९)।
- लब्धि और उपयोग लक्षणवाला भावमन है। (रा.वा./५/१९/२०/४७१/२); (गो.जी./जी.प्र./६०६/१०६२/६); (पं.ध./पू. ७१४)।
- दोनों मन कथंचित् मूर्त व पुद्गल हैं– देखें - मूर्त / ७ ।
- भावमन का विषय
ध.६/१,१-१,१४/१५/११ णोइंदिए दिट्ठसुदाणुभूदत्थो णियमिदा। = मनमें दृष्ट, श्रुत व अनुभूत पदार्थ नियमित हैं। (ध. १३/५,५,२८/२२८/१५)।
देखें - मन / १ (संकल्प–विकल्प करना मन का काम है)।
देखें - मन / १० ,११ (गुण-दोष विचार व स्मरणादि करना)।
पं.ध./पू./७१५ मूर्तामूर्तस्य वेदकं च मन:। = मन मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार के पदार्थों को विषय करने वाला है। (विशेष देखें - श्रुतज्ञान / I / २ )।
- मति आदि ज्ञानों में मन का निमित्त–देखें - वह -वह नाम।
- अपर्याप्त अवस्था में भाव मन नहीं होता।– देखें - प्राण / १ / ७ -८।
- इन्द्रियों का व्यापार मन के अधीन है–देखें - इन्द्रिय।
- मति आदि ज्ञानों में मन का निमित्त–देखें - वह -वह नाम।
- द्रव्यमन भावमन को निमित्त है
देखें - मूर्त / २ (भावमनरूप से परिणत आत्मा को गुण-दोष-विचार व स्मरणादि करने में द्रव्यमन अनुग्रहाक है।)
देखें - प्राण / १ / ७ -८ (अपर्याप्तावस्था में द्रव्यमन का अभाव होने के कारण वहाँ मनोबल नामक प्राण (अर्थात् भावमन) भी स्वीकार नहीं किया गया है)।
देखें - मन / ८ / २ (इन्द्रियों का व्यापार मन के अधीन है)। - मन को इन्द्रिय व्यपदेश न होने में हेतु
ध.१/१,१,३५/२६०/५ मनस इन्द्रियव्यपदेश: किन्न कृत इति चेन्न, इन्द्रस्य लिंगमिन्द्रियम्। ... शेषेन्द्रियाणामिव बाह्येन्द्रियग्राह्यत्वाभावतस्तस्येन्द्रलिङ्गत्वानुपपत्ते:। = प्रश्न–मन को इन्द्रिय संज्ञा क्यों नहीं दी गयी ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, इन्द्र अर्थात् आत्मा के लिंग को इन्द्रिय कहते हैं। जिस प्रकार शेष इन्द्रियों का बाह्य इन्द्रियों से ग्रहण होता है, उस प्रकार मन का नहीं होता है, इसलिए उसे इन्द्र का लिंग नहीं कह सकते। - मन को अनिन्द्रिय कहने में हेतु
स.सि./१/१४/१०९/३ कथं पुनरिन्द्रियप्रतिषेधेन इन्द्रलिङ्गे एव मनसि अनिन्द्रियशब्दस्य वृत्ति:। ईषदर्थस्य ‘नञ:’ प्रयोगात्। ईषदिन्द्रियमनिन्द्रियमिति। यथा ‘अनुदरा कन्या’ इति। कथमीषदर्थ: ? इमानीन्द्रियाणि प्रतिनियतदेशविषयाणि कालान्तरावस्थायीनि च। न तथा मन: इन्द्रस्य लिङ्गमपि सत्प्रतिनियतदेशविषयं कालान्तरावस्थायि च। = प्रश्न–अनिन्द्रिय शब्द इन्द्रिय का निषेधपरक है अत: इन्द्र के लिंग मन में अनिन्द्रिय शब्द का व्यापार कैसे हो सकता है। उत्तर–यहाँ ‘नञ्’ का प्रयोग ‘ईषद्’ अर्थ में किया है, ईषत् इन्द्रिय अनिन्द्रिय। (जैसे अब्राह्मण कहने से ब्राह्मणत्व रहित किसी अन्य पुरुष का ज्ञान होता है, वैसे अनिन्द्रिय कहने से इन्द्रिय रहित किसी अन्य पदार्थ का बोध नहीं करना चाहिए, बल्कि–रा.वा.)। जैसे ‘अनुदरा कन्या’ यहाँ ‘बिना पेट वाली लड़की’ अर्थ न होकर ‘गर्भधारण आदि के अयोग्य छोटी लड़की’ ऐसा अर्थ होता है, इसी प्रकार यहाँ ‘नञ्’ का अर्थ ईषद् ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न–अनिन्द्रियों में ‘नञ्’ का ऐसा अर्थ क्यों लिया गया। उत्तर–ये इन्द्रियाँ नियत देश में स्थित पदार्थों को विषय करती हैं और कालान्तर में अवस्थित रहती हैं। किन्तु मन इन्द्र का लिंग होता हुआ भी प्रतिनियत देश में स्थित पदार्थ को विषय नहीं करता और कालान्तर में अवस्थित नहीं रहता–(विशेष देखें - अगला शीर्षक ); (रा.वा./१/१४/२/५९/१९; २/१५/३/१२९/१८);।
रा.वा./१/१९-३-४/६९/७ मनसोऽनिन्द्रियव्यपदेशाभाव: स्वविषयग्रहणे करणान्तरानपेक्षत्वाच्चक्षुर्वत्।३। न वा, अप्रत्यक्षत्वात्।४। ... सूक्ष्मद्रव्यपरिणामात् तस्मादनिन्द्रियमित्युच्यते।
रा.वा./२/१५/४/१२९/२९ चक्षुरादीनां रूपादिविषयोपयोगपरिणामात् प्राक् मनसो व्यापार:। कथम्। शुक्लादिरूपं दिदृक्षु प्रथमं मनसोपयोगं करोति ‘एवंविधरूपं पश्यामि रसमास्वादयामि’ इति, ततस्तद्बलाधानीकृत्य चक्षुरादीनि विषयेषु व्याप्रियन्ते। ततश्चास्यानिन्द्रियत्वम्। = प्रश्न–मन अपने विचारात्मक कार्य में किसी अन्य इन्द्रिय की सहायता की अपेक्षा नहीं करता, अत: उसे चक्षु इन्द्रिय की तरह इन्द्रिय ही कहना चाहिए अनिन्द्रिय नहीं। उत्तर–१. सूक्ष्म द्रव्य की पर्याय होने के कारण वह अन्य इन्द्रियों की भाँति प्रत्यक्ष व व्यक्त नहीं है, इसलिए अनिन्द्रिय है। (गो.जी./मू.४४४/८६२)। ( देखें - मन / ७ )। २. चक्षु आदि इन्द्रियों के रूपादि विषयों में उपयोग करने से पहले मन का व्यापार होता है। वह ऐसे कि–‘मैं शुक्लादि रूप को देखूँ’ ऐसे पहले मन का उपयोग करता है। पीछे उसको निमित्त बनाकर ‘मैं इस प्रकार का रूप देखता हूँ या रस का आस्वादन करता हूँ’ इस प्रकार से चक्षु आदि इन्द्रियाँ अपने विषयों में व्यापार करती हैं। इसलिए इसको अनिन्द्रियपना प्राप्त है।
- द्रव्य व भाव मन का कथंचित् अवस्थायी व अनवस्थायीपना
रा.वा./५/१९/६/४६८/३० स्यान्मतम्–यथा चक्षुरादि व्यपदेशभाज आत्मप्रदेशा अवस्थिता नियतदेशत्वात् न तथा मनोऽवस्थितमस्ति, अतएव तदनिन्द्रियमित्युच्यते, ततोऽस्य न पृथग्ग्रहणमिति; तन्न; किं कारणम्। अनवस्थानेऽपि तन्निमित्तत्वात्। यत्र यत्र प्रणिधानं तत्र तत्र आत्मप्रदेशा अंगुलासंख्येभागप्रमिता मनो व्यपदेशभाज:।
रा.वा./५/१९/२२-२३/४७१/११ स्यादेतत्–अस्थायि मन:, न तस्य निवृत्तिरिति; तन्न; किं कारणम्। अनन्तरसमयप्रच्युते:। मनस्त्वेन हि परिणता: पुद्गला: गुणदोषविचारस्मरणादिकार्य कृत्वा तदनन्तरसमय एव मनस्त्वात् प्रच्यवन्ते। नायमेकान्त:–अवस्थायैव मन: इति। कुत:। ... द्रव्यार्थादेशान्मन: स्यादवस्थायि, पर्यायार्थादेशात् स्यादनवस्थायि। = चक्षु आदि इन्द्रियों के आत्मप्रदेश नियत देश में अवस्थित हैं, उस तरह मन के नहीं है, इसलिए उसे अनिन्द्रिय भी कहते हैं और इसीलिए उसका पृथक् ग्रहण ही किया गया है। उत्तर–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, अनवस्थित होने पर भी वह क्षयोपशमनिमित्तक तो है ही । जहाँ-जहाँ उपयोग होता है, वहाँ-वहाँ के अंगुल के असंख्यात भाग प्रमाण आत्मप्रदेश मन के रूप से परिणत हो जाते हैं। = प्रश्न–मन अवस्थायी है, इसलिए उसकी (उपरोक्त प्रकार) निवृत्ति नहीं हो सकती। उत्तर–नहीं, क्योंकि, जो पुद्गल मनरूप से परिणत हुए थे उनकी मनरूपता गुणदोष-विचार और स्मरण आदि कार्य कर लेने पर, अनन्तर समय में नष्ट हो जाती है, आगे वे मन नहीं रहते। यहाँ यह एकान्त भी नहीं समझना चाहिए कि मन अवस्थायी ही है। द्रव्यार्थिकनय से वह कथंचित् अवस्थायी और पर्यायार्थिक नय से अनवस्थायी। (जन्म से मरण पर्यंत जीव का क्षयोपशमरूप सामान्य भावमन तथा कमलाकार द्रव्यमन वह के वह ही रहते हैं, इसलिए वे अवस्थायी हैं, और प्रत्येक उपयोग के साथ विवक्षित आत्मप्रदेशों में ही भावमन की निर्वृति होती है तथा उस द्रव्यमन को मनपना प्राप्त होता है, जो उपयोग अनन्तर समय में ही नष्ट हो जाता है, इसलिए वे दोनों अनवस्थायी हैं)। - मन को अन्त:करण कहने में हेतु
स.सि./१/१४/१०९/८ तदन्त:करणमिति चोच्यते। गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवत् वहिरनुपलब्धेश्च अन्तर्गतं करणमन्त:करणमित्युच्यते। = इसे गुण और दोषों के विचार और स्मरण करने आदि कार्यों में इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं लेनी पड़ती, तथा, चक्षु आदि इन्द्रियों के समान इसकी बाहर में उपलब्धि भी नहीं होती, इसलिए यह अन्तर्गत करण होने से अन्त:करण कहलाता है। (रा.वा./१/१४/३/५९/२६; ५/१९/३१/४७२/३१)। - भावमन के अस्तित्व की सिद्धि
रा.वा./१/१९/५-७/६९/१२ अज्ञाह कथमवगम्यते अप्रत्यक्षं तद् ‘अस्ति’ इति। अनुमानत्तस्याधिगम:।५।...कोऽसावनुमान:। युगपज्ज्ञानक्रियानुत्पत्तिर्मनसो हेतु:।६। ...अनुस्मरणदर्शनाच्च।७।
रा.वा./५/१९/३१/४७२/२८ पृथगुपकारानुपलम्भात् तदभाव इति चेत्; न गुणदोषविचारादिदर्शनात्।३१। = प्रश्न–मन यदि अप्रत्यक्ष है तो उसका ग्रहण कैसे हो सकता है ? उत्तर–अनुमान से उसका अधिगम होता है। प्रश्न–यह अनुमान क्या है ? उत्तर–इन्द्रियाँ व उनके विषयभूत पदार्थों के होने पर भी जिसके न होने से युगपत् ज्ञान और क्रियाएँ नहीं होतीं, वही मन है। मन जिस-जिस इन्द्रिय को सहायता करता है उसी-उसी के द्वारा क्रमश: ज्ञान और क्रिया होती है। (न्या.सू./१/१/१६) तथा जिसके द्वारा देखे या सुने गये पदार्थों का स्मरण होता है, वह मन है। प्रश्न–मन का कोई पृथक् कार्य नहीं देखा जाता इसलिए उसका अभाव है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, गुण-दोषों का विचार व स्मरण आदि देखे जाते हैं। वे मन के ही कार्य हैं। - वैशेषिक-मान्य स्वतत्र ‘मन’ का निरास
स.सि./५/११/२८७/४ कश्चिदाह मनो द्रव्यान्तरं रूपादिपरिणामरहितमणुमात्रं तस्य पौद्गलकित्वमयुक्तमिति। तदयुक्तम्। कथम्। उच्यते–तदिन्द्रियेणात्मना च संबद्धं वा स्यादसंबद्धं वा। यद्यसंबद्धम्, तथात्मन उपकारकं भवितुमर्हति इन्द्रियस्य च साचिव्यं न करोति। अथ संबद्धम्, एकस्मिन्प्रदेशे संबद्धं सत्तदणु इतरेषु प्रदेशेषु उपकारं न कुर्यात्। अदृष्टवशादस्य अलातचक्रवत्परिभ्रमणमिति चेत्। न: तत्सामर्थ्याभावात्। अमूर्त्तस्यात्मनो निष्क्रियस्यादृष्टो गुणः, स निष्क्रिय: सन्नन्यत्र क्रियारम्भे न समर्थ:। = प्रश्न–(वैशेषिक मत का कहना है कि) मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है। वह रूपादिरूप परिणमन से रहित है, और अणुमात्र है, इसलिए उसे पौद्गलिक मानना अयुक्त है। उत्तर–यह कहना अयुक्त है। वह इस प्रकार कि–मन आत्मा और इन्द्रियों से सम्बद्ध है या असम्बद्ध। यदि असम्बद्ध है तो वह आत्मा का उपकारक नहीं हो सकता और इन्द्रियों की सहायता भी नहीं कर सकता। यदि सम्बद्ध है तो जिस प्रदेश में वह अणुमन सम्बद्ध है, उस प्रदेश को छोड़कर इतर प्रदेशों का उपकार नहीं कर सकता। प्रश्न–अदृष्ट नामक गुण के वश से यह मन अलातचक्रवत् सर्व प्रदेशों में घूमता रहता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि अदृष्ट नाम के गुण में इस प्रकार की सामर्थ्य नहीं पायी जाती। यत: अमूर्त्त और निष्क्रिय आत्मा का अदृष्ट गुण है। अत: यह गुण भी निष्क्रिय है, इसलएि अन्यत्र क्रिया का आरम्भ करने में असमर्थ है। (रा.वा./५/१९/२४-२६/४७२/१); (गो.जी./जी.प्र./६०६/१०६२/७)।
रा.वा./५/१९/२४/४७२/१६ स्यादेतत्–एकद्रव्यं मन: प्रत्यात्मं वर्तते इति। ... तन्न; किं कारणम्। .... परमाणुमात्रत्वात्। ... तत्रेदं विचार्यते–तत् आत्मेन्द्रियाभ्यां सर्वात्मना वा संबन्ध्येत्, तदेकदेशेन वा। यदि सर्वात्मना; तयोरात्मेन्द्रिययोरर्थान्तरभावात् व्यतिरिक्तयोरन्यतरेण सर्वात्मना संबन्ध: स्यात् अणोर्मनस: नोभयाभ्यां युगपत् विरोधात्। अथान्येन देशेन आत्मना संबध्यते अन्येन देशेनेन्द्रियेण; एवं सति प्रदेशवत्त्वं मनस: प्रसक्तम्। ... किंच यद्यात्मा मनसा सर्वात्मना संबध्यते; मनसोऽणुत्वात् आत्मनोऽप्यणुत्वम्, आत्मनो विभुत्वात् मनसो वा विभुत्वं प्रसज्यते। अथैकदेशेनात्मा मनसा संयुज्यते, ननु प्रदेशवत्त्वमात्मन: प्रसक्तम्। ... प्रदेशवृत्तित्वात् आत्मन: कश्चित् प्रदेशो ज्ञानादियुक्त: कश्चित् प्रदेशो ज्ञानादिविरहित इति। ... तथेन्द्रियेण मनो यदि सर्वात्मना संयुज्यते; इन्द्रियस्याणुमात्रत्वं मनसो वेन्द्रियमात्रत्वान्नाणुत्वम्। अथैकदेशेन मन इन्द्रियेण संयुज्यते, न तर्हि अणु तत्।... अथ संयोगविभागाभ्यां मन: परिणमते; न तर्हि नित्यम्। ... अचेतनत्वाच्च मनस: अनेनैव इन्द्रियेणानेनैव चात्मना संयोक्तव्यं नेन्द्रियान्तरैर्न चात्मान्तरैरिति ...। कर्मवदिति चेत्; न; ... कर्मण: स्याच्चैतन्यम् ... स्यादचेतनत्वमिति विषमो दृष्टान्त:। = प्रश्न–मन अणुरूप एक स्वतन्त्र द्रव्य है, जो प्रत्येक आत्मा से एक-एक सम्बद्ध है। उत्तर–- नहीं, क्योंकि, अणुरूप होता हुआ वह सर्वात्मना तो इन्द्रिय व आत्मा दोनों से युगपत् जुड़ नहीं सकता। भिन्न-भिन्न देशों से उन दोनों के साथ सम्बन्ध मानने पर मन को प्रदेशवत्व प्राप्त होता है।–
- आत्मा मन के साथ सर्वात्मना सम्बद्ध होने पर या तो आत्मा अणुरूप हो जायेगा और या मन विभु बन जायेगा। और एक देशेन सम्बद्ध होने पर आत्मा को प्रदेशवत्व प्राप्त होता है। और ऐसी अवस्था में वह किन्हीं प्रदेशों में तो ज्ञानसहित रहेगा और किन्हीं प्रदेशों में ज्ञानरहित।
- इसी प्रकार इन्द्रियाँ मन के साथ सर्वात्मना सम्बन्ध होने पर या तो इन्द्रिय अणुमात्र हो जायेगी और या मन इन्द्रियप्रमाण हो जायेगा। और एकदेशेन सम्बद्ध होने पर वह मन अणुमात्र न रह सकेगा।
- संयोग विभाग के द्वारा मन का परिणमन होने से वह नित्य न हो सकेगा।
- अचेतन होने के कारण मन को यह विवेक कैसे हो सकेगा कि अमुक इन्द्रिय या आत्मा के साथ ही संयुक्त होता है, अन्य के साथ नहीं। यहाँ जैनियों के कर्म का दृष्टान्त देना विषमदृष्टान्त है, क्योंकि उनके द्वारा मान्य वह कर्म सर्वथा अचेतन नहीं है, बल्कि कथंचित् चेतन व कथंचित् अचेतन है।
- बौद्ध व सांख्यमान्य मन का निरास
रा.वा./५/११/३२-३४/४७२/३३ विज्ञानमिति चेत्; न; तत्सामर्थ्याभावात्।३२। ... वर्तमानं तावद्विज्ञानं क्षणिकं पूर्वोत्तरविज्ञानसंबन्धनिरुत्सुकं कथं गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे साचिव्यं कुर्यात्। ... एकसंतानमतित्वात् तदुपपत्तिरिति चेत्; न; तदवस्तुत्वात्। ... प्रधानविकार इति चेत्; न; अचेतनत्वात्।३३। तदव्यतिरेकात्तदभाव:।३४। = प्रश्न–(बौद्ध) विज्ञान ही मन है और इसके अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नहीं है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, वर्तमानमात्र तथा पूर्व व उत्तर विज्ञान के सम्बन्ध में निरुत्सुक उस क्षणिक विज्ञान में गुणदोष-विचार व स्मरणादि व्यापार के साचिव्य की सामर्थ्य नहीं है। एक सन्तान के द्वारा उसकी उपपत्ति मानना भी नहीं बनता क्योंकि सन्तान अवस्तु है। प्रश्न–(सांख्य) प्रधान का विकार ही मन है, उससे अतिरिक्त कोई पौद्गलिक मन नहीं है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, एक तो प्रधान अचेतन है और दूसरे उससे अभिन्न होने के कारण उसका अभाव है।
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