मांस
From जैनकोष
- मांस की अभक्ष्यता का निर्देश– देखें - भक्ष्याभक्ष्य / २ ।
- मांसत्याग व्रत के अतिचार
सा.ध./३/१२ चर्मस्थमम्भ: स्नेहश्च हिंग्वसंहृतचर्म च। सर्वं च भोज्यं व्यापन्नं दोषः स्यादामिषन्नते।१२। = चमड़े में रखे हुए जल, घी, तेल आदि, चमड़े से आच्छादित अथवा सम्बन्ध रखने वाली हींग और स्वादचलित सम्पूर्ण भोजन आदि पदार्थों का खाना मांसत्याग व्रत में दोष है।
ला.सं./२/श्लोक–तद्भेदा बहवः सन्ति मादृशां वागगोचराः। तथापि व्यवहारार्थं निर्दिष्टाः केचिदन्वयात्।१०। = उन अतिचारों के बहुत से भेद हैं जो मेरे समान पुरुष से कहे जाने सम्भव नहीं हैं, तथापि व्यवहार के लिए आम्नाय के अनुसार कुछ भेद यहाँ कहे जाते हैं।१०। चमड़े के बर्तन में रखे हुए घी, तेल, पानी आदि।११। अशोधित आहार्य।१८। त्रस जीवों का जिसमें सन्देह हो, ऐसा भोजन।२०। बिना छाना अथवा विधिपूर्वक दुहरे छलने से न छाना गया, घी, दूध, तेल, जल आदि।२३-२४। शोधन विधि से अनभिज्ञ साधर्मी या शोधन विधि से परिचित विधर्मी के हाथ से तैयार किया गया भोजन।२८। शोधित भी भोजन यदि मर्यादा से बाहर हो गया है तो।३२। दूसरे दिन का सर्व प्रकार का बासी भोजन।३३। पत्ते का शाक।३५। पान।३७। रात्रिभोजन।३८। आसव, अरिष्ट, अचार, मुरब्बे आदि।५५। रूप, रस, गन्ध व स्पर्श से चलित कोई भी पदार्थ।५६। अमर्यादित दूध, दही आदि।५७। - मांस निषेध का कारण
मू.आ./३५३ चत्तारि महावियडि य होंति णवणीदमज्जमंसमधू। कंखापंसंगदप्पासंजमकारीओ एदाओ।३५३। = नवनीत, मद्य, मांस और मधु ये चार महा विकृतियाँ हैं, क्योंकि वे काम, मद व हिंसा को उत्पन्न करते हैं। (पु.सि.उ./७१)।
पु.सि.उ./६५-६८ न बिना प्राणविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात्। मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा।६५। यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादे:। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात्।६६। आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीसु। सातत्त्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानां।६७। आमां व पक्वां वा खादति य: स्पृशति वा पिशितपेशिं। स निहन्ति सततं निचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम्।६८। =- प्राणियों के घात के बिना मांस की उत्पत्ति नहीं हो सकती,इसलिए मांसभक्षी को अनिवारित रूप से हिंसा होती है।६५।
- स्वयं मरे हुए भैंस व बैल आदि के मांसभक्षण में भी हिंसा होती है, क्योंकि तदाश्रित अनन्तों निगोद जीवों की हिंसा वहाँ पायी जाती है।६६।
- कच्ची हो या अग्नि पर पकी हुई हो अथवा अग्नि पर पक रही हो ऐसी सब ही मांस की पेशियों में, उस ही जाति के अनन्त निगोद जीव प्रति समय निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं।६७। इसलिए कच्ची या पकी हुई किसी भी प्रकार की मांसपेशी को खाने या छूने वाला उन करोड़ों जीवों का घात करता है।६८। (यो.सा./अ./८/६०-६१)।
- धान्य व मांस को समान कहना योग्य नहीं
सा.ध./२/१० प्राण्यङ्गत्वे समेप्यन्णं भोज्यं मांसं न धार्मिकैः। भोग्या त्रीत्वाविशेषेऽपि जनैर्जायैव नाम्बिका।१०। (यथा उद्धृत)–पञ्चेन्द्रियस्य कस्यापि बधे तन्मांसभक्षणे। तथा हि नरकप्राप्तिर्न तता धान्यभोजनात्। धान्यपाके प्राणिवधः परमेकोऽवशिष्यते। गृहिणां देशयमिनां स तु नात्यन्तबाधक:। = यद्यपि मांस व अन्न दोनों ही प्राणी के अंग होने के नाते समान हैं, परन्तु फिर भी धार्मिक जनों के लिए मांस खाना योग्य नहीं है। जैसे कि त्रीपने की अपेक्षा समान होते हुए भी पत्नी ही भोग्य है माता नहीं।१०। दूसरी बात यह भी है कि पंचेन्द्रिय प्राणी को मारने या उसका मांस खाने से जैसी नरक आदि दुर्गति मिलती है वैसी दुर्गति अन्न के भोजन करने से नहीं होती। धान्य के पकने पर केवल एकेन्द्रिय का ही घात होता है, इसलिए देशसंयमी गृहस्थों के लिए यह अत्यन्त बाधक नहीं है।
- दूध व मांस समान नहीं है–देखें - भक्ष्याभक्ष्य।
- अनेक वनस्पति जीवों की अपेक्षा एक त्रस जीव की हिंसा ठीक है–यह हेतु उचित नहीं– देखें - हिंसा / २ / १ ।
- दूध व मांस समान नहीं है–देखें - भक्ष्याभक्ष्य।
- चर्म-निक्षिप्त वस्तु के त्याग में हेतु
ला.सं./२/११-१३ चर्मभाण्डे तु निक्षिप्ता: घृततैलजलादय:। त्याज्याः यतत्रत्रसादीनां शरीरपिशिताश्रिताः।११। न चाशङ्क्यं पुनस्तत्र सन्ति यद्वा न सन्ति ते। संशयोऽनुपलब्धित्वाद् दुर्वारो व्योमचित्रवत्।१२। सर्व सर्वज्ञज्ञानेन दृष्टं विश्वैकचक्षुषा। तदाज्ञया प्रमाणेन माननीयं मनोषिभि:।३। = चमड़े के बर्तन में रखे हुए घी, तेल, जलादि का त्याग कर देना चाहिए क्योंकि ऐसी वस्तुओं में उस-उस जीव के मांस के आश्रित रहने वाले त्रस जीव अवश्य रहते हैं।११। तहाँ वे जीव हैं या नहीं ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, व्योमचित्र की भाँति इन्द्रियों से न दिखाई देने के कारण यद्यपि वे जीव किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं हैं।१२। तो भी सर्वज्ञदेव ने उनका वहाँ प्रत्यक्ष किया है और उसी के अनुसार आचार्यों ने शात्रों में निर्देश किया है, अत: बुद्धिमानों को सर्वज्ञदेव की आज्ञा मानकर उनका अस्तित्व वहाँ स्वीकार कर लेना चाहिए।१३। - सूक्ष्म त्रस जीवों के भक्षण में पाप है
ला.सं./२/१४ नोह्यमेतावता पापं स्याद्वा न स्यादतीन्द्रियात्। अहो मांसाशिनोऽवश्यं प्रोक्तं जैनागमे यत:। = इन्द्रियों के अगोचर ऐसे सूक्ष्म जीवों के भक्षण से पाप होता है या नहीं, ऐसी आशंका करना भी योग्य नहीं है, क्योंकि मांस भक्षण करनेवालों को पाप अवश्य होता है, ऐसा जैनशात्रों में स्पष्ट उल्लेख है।१४।
- विधर्मी से अन्न शोधन न कराने में हेतु– देखें - आहार / I / २ / २