योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 136: Difference between revisions
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मिथ्यात्व का स्वरूप एवं कार्य - | <p class="Utthanika">मिथ्यात्व का स्वरूप एवं कार्य -</p> | ||
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कुर्वाण: परमात्मानं सदात्मानं पुन: परम् ।<br> | कुर्वाण: परमात्मानं सदात्मानं पुन: परम् ।<br> | ||
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<p><b> अन्वय </b>:- मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्त: सदा परं आत्मानं, पुन: आत्मानं परं कुर्वाण: निरन्तरं (कर्म) रजोग्राही (भवति) । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्त: सदा परं आत्मानं, पुन: आत्मानं परं कुर्वाण: निरन्तरं (कर्म) रजोग्राही (भवति) । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- जो मिथ्यात्व से मोहितचित्त होता हुआ सदा पर वस्तु को आत्मा मानता है और अपनी आत्मा को परद्रव्यरूप करता है, वह निरंतर कर्मरूपी रज को ग्रहण करता है अर्थात् उसे निरन्तर कर्मास्रव होता है । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- जो मिथ्यात्व से मोहितचित्त होता हुआ सदा पर वस्तु को आत्मा मानता है और अपनी आत्मा को परद्रव्यरूप करता है, वह निरंतर कर्मरूपी रज को ग्रहण करता है अर्थात् उसे निरन्तर कर्मास्रव होता है । </p> | ||
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Latest revision as of 10:36, 15 May 2009
मिथ्यात्व का स्वरूप एवं कार्य -
कुर्वाण: परमात्मानं सदात्मानं पुन: परम् ।
मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्तो रजोग्राही निरन्तरम् ।।१३६।।
अन्वय :- मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्त: सदा परं आत्मानं, पुन: आत्मानं परं कुर्वाण: निरन्तरं (कर्म) रजोग्राही (भवति) ।
सरलार्थ :- जो मिथ्यात्व से मोहितचित्त होता हुआ सदा पर वस्तु को आत्मा मानता है और अपनी आत्मा को परद्रव्यरूप करता है, वह निरंतर कर्मरूपी रज को ग्रहण करता है अर्थात् उसे निरन्तर कर्मास्रव होता है ।