योगसार - संवर-अधिकार गाथा 249
From जैनकोष
शरीरात्मक लिंग से मुक्ति नहीं -
शरीरमात्मनो भिन्नं लिङ्गं येन तदात्मकम् ।
न मुक्तिकारणं लिङ्गं जायते तेन तत्त्वत: ।।२४९।।
यन्मुक्तिं गच्छता त्याज्यं न मुक्तिर्जायते तत: ।
अन्यथा कारणं कर्म तस्य केन निवर्तते ।।२५०।।
अन्वय :- येन शरीरं आत्मन: भिन्नं तदात्मकं लिङ्गं (च) तेन तत्त्वत: लिङ्गं मुक्ति-कारणं न जायते । मुक्तिं गच्छता यत् (लिङ्गम्) त्याज्यं (अस्ति) तत: मुक्ति: न जायते; अन्यथा तस्य (लिङ्गस्य) कारणं कर्म केन निवर्तते ?
सरलार्थ :- शरीर आत्मा से भिन्न है और लिंग शरीरात्मक है; इसलिए वस्तुत: लिंग मुक्ति का कारण नहीं होता । जो शरीर/लिंग मुक्ति को जानेवालों से त्याज्य हैं, उस शरीर से मुक्ति नहीं होती । यदि लिंग को मुक्ति का कारण माना जायेगा तो लिंग के लिये कारण होनेवाले नामकर्म को किस साधन से दूर किया जायेगा? अर्थात् किसी से भी नामकर्म का दूर किया जाना नहीं बनता ।