रागादिक में कथंचित् स्वभाव-विभावपना: Difference between revisions
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स.सा./आ./क.नं.<span class="SanskritText">भुङ्क्षे हन्त न जातु में यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते।१५१। <br /> | स.सा./आ./क.नं.<span class="SanskritText">भुङ्क्षे हन्त न जातु में यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते।१५१। <br /> | ||
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो, भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी।१८७। यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः, कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधो तत्र सर्पत्यबोधो, भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः।२२०।</span> = <span class="HindiText">हे ज्ञानी ! जो तू कहता है कि ‘‘सिद्धान्त में कहा है कि पर-द्रव्य के उपभोग से बन्ध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ,’’ तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है?।१५१। जो सापराध आत्मा है वह तो नियम से अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है। निरपराध आत्मा तो भली-भाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है।१८७। इस आत्मा में जो राग-द्वेष रूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्य का कोई भी दोष नहीं है, वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है;-इस प्रकार विदित हो और अज्ञान अस्त हो जाय।२२०। <br /> | नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो, भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी।१८७। यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः, कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधो तत्र सर्पत्यबोधो, भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः।२२०।</span> = <span class="HindiText">हे ज्ञानी ! जो तू कहता है कि ‘‘सिद्धान्त में कहा है कि पर-द्रव्य के उपभोग से बन्ध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ,’’ तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है?।१५१। जो सापराध आत्मा है वह तो नियम से अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है। निरपराध आत्मा तो भली-भाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है।१८७। इस आत्मा में जो राग-द्वेष रूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्य का कोई भी दोष नहीं है, वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है;-इस प्रकार विदित हो और अज्ञान अस्त हो जाय।२२०। <br /> | ||
देखें - [[ अपराध | अपराध ]]- (राध अर्थात् आराधना से हीन व्यक्ति सापराध है।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> विभाव भी बथंचित् स्वभाव है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> विभाव भी बथंचित् स्वभाव है</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./११६ <span class="SanskritText">इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसंनिधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभाव निर्वृत्तैवास्ति।</span>-<span class="HindiText">यहाँ (इस जगत् में) अनादि कर्मपुद्गल की उपाधि के सद्भाव के आश्रय से जिसके प्रतिक्षण विपरिणमन होता रहता है ऐसे संसारी जीव की क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है। </span><br /> | प्र.सा./त.प्र./११६ <span class="SanskritText">इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसंनिधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभाव निर्वृत्तैवास्ति।</span>-<span class="HindiText">यहाँ (इस जगत् में) अनादि कर्मपुद्गल की उपाधि के सद्भाव के आश्रय से जिसके प्रतिक्षण विपरिणमन होता रहता है ऐसे संसारी जीव की क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है। </span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./१८४/२४७/१९ <span class="SanskritText">कर्मबन्धप्रस्तावे रागादिपरिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते। </span>= <span class="HindiText">कर्मबन्ध के प्रकरण में रागादि परिणाम भी अशुद्ध निश्चयनय से जीव के स्वभाव कहे जाते हैं। (पं.का./ता./वृ./६१/११३/१३; ६५/११७/१०)। <br /> | प्र.सा./ता.वृ./१८४/२४७/१९ <span class="SanskritText">कर्मबन्धप्रस्तावे रागादिपरिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते। </span>= <span class="HindiText">कर्मबन्ध के प्रकरण में रागादि परिणाम भी अशुद्ध निश्चयनय से जीव के स्वभाव कहे जाते हैं। (पं.का./ता./वृ./६१/११३/१३; ६५/११७/१०)। <br /> | ||
देखें - [[ भाव#2 | भाव / २ ]](औदयिकादि सर्व भाव निश्चय से जीव के स्वतत्त्व तथा पारिणामिक भाव हैं।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> शुद्ध जीव में विभाव कैसे हो जाता है?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> शुद्ध जीव में विभाव कैसे हो जाता है?</strong></span><br /> |
Revision as of 15:25, 6 October 2014
- रागादिक में कथंचित् स्वभाव-विभावपना
- कषाय चारित्रगुण की विभाव पर्याय हैं
पं.ध./उ./१०७४, १०७८ इत्येवं ते कषायाख्याश्चत्वारोऽप्यौदयिकाः स्मृताः। चारित्रस्य गुणस्यास्य पर्याया वैकृतात्मनः।१०७४। ततश्चारित्रमोहस्य कर्मणो ह्युदयाद्ध्रुवम्। चारित्रस्य गुणस्यापि भावा वैभाविका अमी।१०७८। = ये चारों ही कषायें औदयिक भाव में आती हैं, क्योंकि ये आत्मा के चारित्र गुण की विकृत पर्याय हैं।१०७४। सामान्य रूप से उक्त तीनों वेद (स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद) चारित्र मोह के उदय से होते हैं, इसलिए ये तीनों ही भावलिंग निश्चय से चारित्रगुण के ही वैभाविक भाव हैं।
- रागादि जीव के अपने अपराध हैं
स.सा./मू./१०२, ३७१ जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता। तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा।१०२। रागो दोसो मोहो जीवस्मेव य अणण्णपरिणामा। एएण कारणेण उ सद्दादिसु णत्थि रागादि।३७१। = आत्मा जिस शुभ या अशुभ भाव को करता है, उस भाव का वह वास्तव में कर्ता होता है, वह भाव उसका कर्म होता है और वह आत्मा उसका भोक्ता होता है।१०२। (स.सा./मू./९०)। राग–द्वेष और मोह जीव के ही अनन्य परिणाम हैं, इस कारण रागादिक (इन्द्रियों के) शब्दादिक विषयों में नहीं है।३७१।
स.सा./आ./१६० अनादिस्वपुरुषापराधप्रवर्तमानवर्ममलावच्छन्नत्वात्। = अनादि काल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममल के द्वारा लिप्त होने से....(स.सा./आ./४१२)।
स.सा./आ./क.नं.भुङ्क्षे हन्त न जातु में यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते।१५१।
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो, भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी।१८७। यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः, कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधो तत्र सर्पत्यबोधो, भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः।२२०। = हे ज्ञानी ! जो तू कहता है कि ‘‘सिद्धान्त में कहा है कि पर-द्रव्य के उपभोग से बन्ध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ,’’ तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है?।१५१। जो सापराध आत्मा है वह तो नियम से अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है। निरपराध आत्मा तो भली-भाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है।१८७। इस आत्मा में जो राग-द्वेष रूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्य का कोई भी दोष नहीं है, वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है;-इस प्रकार विदित हो और अज्ञान अस्त हो जाय।२२०।
देखें - अपराध - (राध अर्थात् आराधना से हीन व्यक्ति सापराध है।)
- विभाव भी बथंचित् स्वभाव है
प्र.सा./त.प्र./११६ इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसंनिधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभाव निर्वृत्तैवास्ति।-यहाँ (इस जगत् में) अनादि कर्मपुद्गल की उपाधि के सद्भाव के आश्रय से जिसके प्रतिक्षण विपरिणमन होता रहता है ऐसे संसारी जीव की क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है।
प्र.सा./ता.वृ./१८४/२४७/१९ कर्मबन्धप्रस्तावे रागादिपरिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते। = कर्मबन्ध के प्रकरण में रागादि परिणाम भी अशुद्ध निश्चयनय से जीव के स्वभाव कहे जाते हैं। (पं.का./ता./वृ./६१/११३/१३; ६५/११७/१०)।
देखें - भाव / २ (औदयिकादि सर्व भाव निश्चय से जीव के स्वतत्त्व तथा पारिणामिक भाव हैं।)
- शुद्ध जीव में विभाव कैसे हो जाता है?
स.सा./मू.व आ./८९ मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः कृत इति चेत्–उपयोगस्स अणाई परिणामा तिण्ण मोहजुत्तस्सः मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णायव्वो।८९। = प्रश्न–जीवमिथ्यात्वादि चैतन्य परिणाम का विकार कैसे है? उत्तर–अनादि से मोहयुक्त होने से उपयोग के अनादि से तीन परिणाम हैं–मिथ्यात्व, अज्ञान व अरतिभाव।
- कषाय चारित्रगुण की विभाव पर्याय हैं