रागादिक में कथंचित् स्वभाव-विभावपना: Difference between revisions
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पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./1074, 1078<span class="SanskritGatha"> इत्येवं ते कषायाख्याश्चत्वारोऽप्यौदयिकाः स्मृताः। चारित्रस्य गुणस्यास्य पर्याया वैकृतात्मनः।1074। ततश्चारित्रमोहस्य कर्मणो ह्युदयाद्ध्रुवम्। चारित्रस्य गुणस्यापि भावा वैभाविका अमी।1078।</span> = <span class="HindiText">ये चारों ही कषायें औदयिक भाव में आती हैं, क्योंकि ये आत्मा के चारित्र गुण की विकृत पर्याय हैं।1074। सामान्य रूप से उक्त तीनों वेद (स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद) चारित्र मोह के उदय से होते हैं, इसलिए ये तीनों ही भावलिंग निश्चय से चारित्रगुण के ही वैभाविक भाव हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> रागादि जीव के अपने अपराध हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> रागादि जीव के अपने अपराध हैं</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./102, 371 <span class="PrakritGatha">जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता। तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा।102। रागो दोसो मोहो जीवस्मेव य अणण्णपरिणामा। एएण कारणेण उ सद्दादिसु णत्थि रागादि।371। </span>= <span class="HindiText">आत्मा जिस शुभ या अशुभ भाव को करता है, उस भाव का वह वास्तव में कर्ता होता है, वह भाव उसका कर्म होता है और वह आत्मा उसका भोक्ता होता है।102। (स.सा./मू./90)। राग–द्वेष और मोह जीव के ही अनन्य परिणाम हैं, इस कारण रागादिक (इन्द्रियों के) शब्दादिक विषयों में नहीं है।371। </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./160 <span class="SanskritText">अनादिस्वपुरुषापराधप्रवर्तमानवर्ममलावच्छन्नत्वात्।</span> = <span class="HindiText">अनादि काल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममल के द्वारा लिप्त होने से....(स.सा./आ./412)। </span><br /> | ||
स.सा./आ./क.नं.<span class="SanskritText"> | स.सा./आ./क.नं.<span class="SanskritText">भुङ्क्षे हन्त न जातु में यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते।151। <br /> | ||
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो, भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी।187। यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः, कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधो तत्र सर्पत्यबोधो, भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः।220।</span> = <span class="HindiText">हे ज्ञानी ! जो तू कहता है कि ‘‘सिद्धान्त में कहा है कि पर-द्रव्य के उपभोग से बन्ध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ,’’ तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है?।151। जो सापराध आत्मा है वह तो नियम से अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है। निरपराध आत्मा तो भली-भाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है।187। इस आत्मा में जो राग-द्वेष रूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्य का कोई भी दोष नहीं है, वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है;-इस प्रकार विदित हो और अज्ञान अस्त हो जाय।220। <br /> | |||
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प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./116 <span class="SanskritText">इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसंनिधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभाव निर्वृत्तैवास्ति।</span>-<span class="HindiText">यहाँ (इस जगत् में) अनादि कर्मपुद्गल की उपाधि के सद्भाव के आश्रय से जिसके प्रतिक्षण विपरिणमन होता रहता है ऐसे संसारी जीव की क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है। </span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./184/247/19 <span class="SanskritText">कर्मबन्धप्रस्तावे रागादिपरिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते। </span>= <span class="HindiText">कर्मबन्ध के प्रकरण में रागादि परिणाम भी अशुद्ध निश्चयनय से जीव के स्वभाव कहे जाते हैं। (पं.का./ता./वृ./61/113/13; 65/117/10)। <br /> | ||
देखें [[ भाव#2 | भाव - 2 ]](औदयिकादि सर्व भाव निश्चय से जीव के स्वतत्त्व तथा पारिणामिक भाव हैं।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> शुद्ध जीव में विभाव कैसे हो जाता है?</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> शुद्ध जीव में विभाव कैसे हो जाता है?</strong></span><br /> | ||
स.सा./मू.व आ./ | स.सा./मू.व आ./89 <span class="SanskritText">मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः कृत इति चेत्–उपयोगस्स अणाई परिणामा तिण्ण मोहजुत्तस्सः मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णायव्वो।89।</span> =<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न–</strong>जीवमिथ्यात्वादि चैतन्य परिणाम का विकार कैसे है? <strong>उत्तर–</strong>अनादि से मोहयुक्त होने से उपयोग के अनादि से तीन परिणाम हैं–मिथ्यात्व, अज्ञान व अरतिभाव। </span></li> | ||
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Revision as of 21:46, 5 July 2020
- रागादिक में कथंचित् स्वभाव-विभावपना
- कषाय चारित्रगुण की विभाव पर्याय हैं
पं.ध./उ./1074, 1078 इत्येवं ते कषायाख्याश्चत्वारोऽप्यौदयिकाः स्मृताः। चारित्रस्य गुणस्यास्य पर्याया वैकृतात्मनः।1074। ततश्चारित्रमोहस्य कर्मणो ह्युदयाद्ध्रुवम्। चारित्रस्य गुणस्यापि भावा वैभाविका अमी।1078। = ये चारों ही कषायें औदयिक भाव में आती हैं, क्योंकि ये आत्मा के चारित्र गुण की विकृत पर्याय हैं।1074। सामान्य रूप से उक्त तीनों वेद (स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद) चारित्र मोह के उदय से होते हैं, इसलिए ये तीनों ही भावलिंग निश्चय से चारित्रगुण के ही वैभाविक भाव हैं।
- रागादि जीव के अपने अपराध हैं
स.सा./मू./102, 371 जं भावं सुहमसुहं करेदि आदा स तस्स खलु कत्ता। तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो अप्पा।102। रागो दोसो मोहो जीवस्मेव य अणण्णपरिणामा। एएण कारणेण उ सद्दादिसु णत्थि रागादि।371। = आत्मा जिस शुभ या अशुभ भाव को करता है, उस भाव का वह वास्तव में कर्ता होता है, वह भाव उसका कर्म होता है और वह आत्मा उसका भोक्ता होता है।102। (स.सा./मू./90)। राग–द्वेष और मोह जीव के ही अनन्य परिणाम हैं, इस कारण रागादिक (इन्द्रियों के) शब्दादिक विषयों में नहीं है।371।
स.सा./आ./160 अनादिस्वपुरुषापराधप्रवर्तमानवर्ममलावच्छन्नत्वात्। = अनादि काल से अपने पुरुषार्थ के अपराध से प्रवर्तमान कर्ममल के द्वारा लिप्त होने से....(स.सा./आ./412)।
स.सा./आ./क.नं.भुङ्क्षे हन्त न जातु में यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते।151।
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो, भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी।187। यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः, कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र। स्वयमयमपराधो तत्र सर्पत्यबोधो, भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः।220। = हे ज्ञानी ! जो तू कहता है कि ‘‘सिद्धान्त में कहा है कि पर-द्रव्य के उपभोग से बन्ध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ,’’ तो क्या तुझे भोगने की इच्छा है?।151। जो सापराध आत्मा है वह तो नियम से अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है। निरपराध आत्मा तो भली-भाँति शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है।187। इस आत्मा में जो राग-द्वेष रूप दोषों की उत्पत्ति होती है, उसमें परद्रव्य का कोई भी दोष नहीं है, वहाँ तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलाता है;-इस प्रकार विदित हो और अज्ञान अस्त हो जाय।220।
देखें अपराध (राध अर्थात् आराधना से हीन व्यक्ति सापराध है।)
- विभाव भी बथंचित् स्वभाव है
प्र.सा./त.प्र./116 इह हि संसारिणो जीवस्यानादिकर्मपुद्गलोपाधिसंनिधिप्रत्ययप्रवर्तमानप्रतिक्षणविवर्तनस्य क्रिया किल स्वभाव निर्वृत्तैवास्ति।-यहाँ (इस जगत् में) अनादि कर्मपुद्गल की उपाधि के सद्भाव के आश्रय से जिसके प्रतिक्षण विपरिणमन होता रहता है ऐसे संसारी जीव की क्रिया वास्तव में स्वभाव निष्पन्न ही है।
प्र.सा./ता.वृ./184/247/19 कर्मबन्धप्रस्तावे रागादिपरिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते। = कर्मबन्ध के प्रकरण में रागादि परिणाम भी अशुद्ध निश्चयनय से जीव के स्वभाव कहे जाते हैं। (पं.का./ता./वृ./61/113/13; 65/117/10)।
देखें भाव - 2 (औदयिकादि सर्व भाव निश्चय से जीव के स्वतत्त्व तथा पारिणामिक भाव हैं।)
- शुद्ध जीव में विभाव कैसे हो जाता है?
स.सा./मू.व आ./89 मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः कृत इति चेत्–उपयोगस्स अणाई परिणामा तिण्ण मोहजुत्तस्सः मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णायव्वो।89। = प्रश्न–जीवमिथ्यात्वादि चैतन्य परिणाम का विकार कैसे है? उत्तर–अनादि से मोहयुक्त होने से उपयोग के अनादि से तीन परिणाम हैं–मिथ्यात्व, अज्ञान व अरतिभाव।
- कषाय चारित्रगुण की विभाव पर्याय हैं