लिंग: Difference between revisions
From जैनकोष
Komaljain7 (talk | contribs) No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText">साधु आदि के बाह्य वेष को लिंग कहते हैं। जैनाम्नाय में वह तीन प्रकार का माना गया है - साधु | <p class="HindiText">साधु आदि के बाह्य वेष को लिंग कहते हैं। जैनाम्नाय में वह तीन प्रकार का माना गया है - साधु, आर्यिका व उत्कृष्ट श्रावक। ये तीनों ही द्रव्य व भाव के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाते हैं। शरीर का वेष द्रव्यलिंग है और अंतरंग की वीतरागता भावलिंग है। भावलिंग सापेक्ष ही द्रव्यलिंग सार्थक है अन्यथा तो स्वांग मात्र है। <br /> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"><strong>लिंग सामान्य निर्देश</strong></li> | <li class="HindiText"><strong>लिंग सामान्य निर्देश</strong></li> | ||
Line 103: | Line 103: | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> भाव के साथ द्रव्य लिंग की व्याप्ति है द्रव्य के साथ भाव की नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> भाव के साथ द्रव्य लिंग की व्याप्ति है द्रव्य के साथ भाव की नहीं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/414/508/16 </span><span class="SanskritText">बहिरंगद्रव्यलिंगे सति भावलिंगं भवति न भवति वा नियमो नास्ति, अभ्यंतरे तु भावलिंगे सति सर्वसंगपरित्यागरूपं द्रव्यलिंगं भवत्येवेति।</span> = <span class="HindiText">बहिरंग द्रव्यलिंग के होने पर भावलिंग होता भी है, नहीं भी | <span class="GRef"> समयसार / तात्पर्यवृत्ति/414/508/16 </span><span class="SanskritText">बहिरंगद्रव्यलिंगे सति भावलिंगं भवति न भवति वा नियमो नास्ति, अभ्यंतरे तु भावलिंगे सति सर्वसंगपरित्यागरूपं द्रव्यलिंगं भवत्येवेति।</span> = <span class="HindiText">बहिरंग द्रव्यलिंग के होने पर भावलिंग होता भी है, नहीं भी होता, कोई नियम नहीं है। परंतु अभ्यंतर भावलिंग के होने पर सर्व संग (परिग्रह) के त्याग रूप बहिरंग द्रव्यलिंग अवश्य होता ही है।<br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/462/12 </span>मुनि लिंग धारै बिना तो मोक्ष न होय; परंतु मुनि लिंग धारै मोक्ष होय भी अर नाहीं भी होय।<br /> | <span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/462/12 </span><br/> | ||
पंचमकाल में | मुनि लिंग धारै बिना तो मोक्ष न होय; परंतु मुनि लिंग धारै मोक्ष होय भी अर नाहीं भी होय।<br /> | ||
<span class="HindiText"> पंचमकाल में भरतक्षेत्र में भी भाव लिंग की स्थापना - देखें [[ संयम#2.8 | संयम - 2.8 ]]<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> द्रव्यलिंग | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> द्रव्यलिंग की कथंचित् गौणता व प्रधानता</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong> केवल बाह्य | <li><span class="HindiText" name="3.1" id="3.1"><strong> केवल बाह्य लिंग मोक्ष का कारण नहीं</strong> <br /> | ||
देखें [[ वर्ण व्यवस्था#2.3 | वर्ण व्यवस्था - 2.3 ]](लिंग व जाति आदि से ही मुक्ति भावना मानना मिथ्या है।) </span><br /> | देखें [[ वर्ण व्यवस्था#2.3 | वर्ण व्यवस्था - 2.3 ]](लिंग व जाति आदि से ही मुक्ति भावना मानना मिथ्या है।) </span><br /> | ||
<span class="GRef"> समयसार/408-410 </span><span class="PrakritGatha">पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहप्पयाराणि। घित्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति।408। ण द होइ मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा। लिंगं मुंचितु दंसणणाणचरित्ताणि संयंति।409। णवि एस मोक्खमग्गो पासंडीगिहमयाणि लिंगाणि।410।</span> =<span class="HindiText"> बहुत प्रकार के मुनिलिंगों को अथवा गृहीलिंगों को ग्रहण करके मूढ | <span class="GRef"> समयसार/408-410 </span><span class="PrakritGatha">पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहप्पयाराणि। घित्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति।408। ण द होइ मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा। लिंगं मुंचितु दंसणणाणचरित्ताणि संयंति।409। णवि एस मोक्खमग्गो पासंडीगिहमयाणि लिंगाणि।410।</span> =<span class="HindiText"> बहुत प्रकार के मुनिलिंगों को अथवा गृहीलिंगों को ग्रहण करके मूढ (अज्ञानी) जन यह कहते हैं कि ‘यह लिंग मोक्षमार्ग है’।408। परंतु लिंग मोक्षमार्ग नहीं है क्योंकि अर्हंत देव देह के प्रति निर्ममत्व वर्तते हुए लिंग को छोड़कर दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करते हैं।409। मुनियों और गृहस्थों के लिंग यह मोक्षमार्ग नहीं है।410।</span><br /> | ||
मूलाचार/900 <span class="PrakritText">लिंगग्गहणं च संजमविहूणं। ... जो कुणइ णिरत्थयं कुणदि।</span> = <span class="HindiText">जो पुरुष संयम रहित जिन लिंग धारण करता है, वह सब निष्फल है।</span><br /> | मूलाचार/900 <span class="PrakritText">लिंगग्गहणं च संजमविहूणं। ... जो कुणइ णिरत्थयं कुणदि।</span> = <span class="HindiText">जो पुरुष संयम रहित जिन लिंग धारण करता है, वह सब निष्फल है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> भावपाहुड़/मूल/72 </span> <span class="PrakritGatha">जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा। ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले।72।</span> = <span class="HindiText">जो मुनि राग अर्थात् अंतरंग परिग्रहसे युक्त है, जिन स्वरूप की भावना से रहित हैं वे द्रव्य-निर्गंथ हैं। उसे जिनशासन में कहीं समाधि और बोधि की प्राप्ति नहीं होती।72।</span><br /> | <span class="GRef"> भावपाहुड़/मूल/72 </span> <span class="PrakritGatha">जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा। ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले।72।</span> = <span class="HindiText">जो मुनि राग अर्थात् अंतरंग परिग्रहसे युक्त है, जिन स्वरूप की भावना से रहित हैं वे द्रव्य-निर्गंथ हैं। उसे जिनशासन में कहीं समाधि और बोधि की प्राप्ति नहीं होती।72।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> समाधि शतक/मूल/87</span><span class="SanskritGatha"> लिंगं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः। न मुच्यंते भवात्तघस्मात्ते ये लिंगकृताग्रहाः।87। </span>= <span class="HindiText">लिंग (वेष) शरीर के आश्रित है, शरीर ही | <span class="GRef"> समाधि शतक/मूल/87</span><span class="SanskritGatha"> लिंगं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः। न मुच्यंते भवात्तघस्मात्ते ये लिंगकृताग्रहाः।87। </span>= <span class="HindiText">लिंग (वेष) शरीर के आश्रित है, शरीर ही आत्मा का संसार है, इसलिए जिनको लिंग का ही आग्रह है वे पुरुष संसार से नहीं छुटते।87।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/5/59 </span><span class="SanskritGatha">शरीरमात्मनो भिन्नं लिंगं येन तदात्मकम्। न मुक्तिकारणं लिंगं जायते तेन तत्त्वतः।59।</span> = <span class="HindiText">शरीर आत्मा से भिन्न है और लिंग शरीर स्वरूप है इसलिए आत्मा से | <span class="GRef"> योगसार (अमितगति)/5/59 </span><span class="SanskritGatha">शरीरमात्मनो भिन्नं लिंगं येन तदात्मकम्। न मुक्तिकारणं लिंगं जायते तेन तत्त्वतः।59।</span> = <span class="HindiText">शरीर आत्मा से भिन्न है और लिंग शरीर स्वरूप है इसलिए आत्मा से भिन्न होने के कारण निश्चय नय से लिंग मोक्ष का कारण नहीं।59। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> केवल द्रव्यलिंग अकिंचित्कर व व्यर्थ है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.2" id="3.2"><strong> केवल द्रव्यलिंग अकिंचित्कर व व्यर्थ है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/57 </span><span class="PrakritGatha"> णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं। अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं।57।</span> = <span class="HindiText">जहाँ ज्ञान चारित्रहीन है, जहाँ | <span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/57 </span><span class="PrakritGatha"> णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं। अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं।57।</span> = <span class="HindiText">जहाँ ज्ञान चारित्रहीन है, जहाँ तप से तो संयुक्त है पर सम्यक्त्व से रहित है और अन्य भी आवश्यकादि क्रियाओं में शुद्ध भाव नहीं है ऐसे लिंग के ग्रहण में कहाँ सुख है।57।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>मूल/6,68,111 <span class="PrakritGatha">‘जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण। पंथिय! सिव पुरिपंथं जिणउवइट्ठं पयत्तेण।6। णग्गो पावइ दक्खं णग्गो संसारसागरे भमति। णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं।68। सेवहि चउविहलिंगं अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो। बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं।111।</span> = <span class="HindiText">हे मुने! मोक्ष का मार्ग भाव ही से है इसलिए तू भाव ही को परमार्थभूत जान अंगीकार करना, केवल द्रव्यमात्र से क्या साध्य है। कुछ भी नहीं।6। जो नग्न है सदा दु:ख पावे है, संसार में भ्रमता है। तथा जो नग्न | <span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>मूल/6,68,111 <span class="PrakritGatha">‘जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण। पंथिय! सिव पुरिपंथं जिणउवइट्ठं पयत्तेण।6। णग्गो पावइ दक्खं णग्गो संसारसागरे भमति। णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं।68। सेवहि चउविहलिंगं अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो। बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं।111।</span> = <span class="HindiText">हे मुने! मोक्ष का मार्ग भाव ही से है इसलिए तू भाव ही को परमार्थभूत जान अंगीकार करना, केवल द्रव्यमात्र से क्या साध्य है। कुछ भी नहीं।6। जो नग्न है सदा दु:ख पावे है, संसार में भ्रमता है। तथा जो नग्न है वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र को नहीं पाता है सो कैसा है वह नग्न, जो कि जिन भावना से रहित है।68। हे मुनिवर ! तू अभ्यंतर की शुद्धि पूर्वक चार प्रकार के लिंग को धारण कर। क्योंकि भाव रहित केवल बाह्यलिंग अकार्यकारी है।111। (और भी <span class="GRef"> भावपाहुड़/मूल/48,54,89,96 </span>)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> भाव रहित | <li><span class="HindiText" name="3.3" id="3.3"><strong> भाव रहित द्रव्य लिंग का अत्यंत तिरस्कार</strong> </span><br /> | ||
मोक्षपाहुड़/मूल/61 <span class="PrakritGatha">बाहिरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहियपरियम्मो। सो सगचरित्तभट्टो मोक्खपहविणासगो साह।61।</span> = <span class="HindiText">जो जीव बाह्य लिंग से युक्त है और अभ्यंतर लिंग से रहित है और जिसमें परिवर्तन है। वह मुनि स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट है, इसलिए मोक्षमार्ग का विनाशक है।61।<br /> | मोक्षपाहुड़/मूल/61 <span class="PrakritGatha">बाहिरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहियपरियम्मो। सो सगचरित्तभट्टो मोक्खपहविणासगो साह।61।</span> = <span class="HindiText">जो जीव बाह्य लिंग से युक्त है और अभ्यंतर लिंग से रहित है और जिसमें परिवर्तन है। वह मुनि स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट है, इसलिए मोक्षमार्ग का विनाशक है।61।<br /> | ||
देखें [[ लिंग#2.2 | लिंग - 2.2 ]](द्रव्यलिंगी साधु पापमोहित यति व पाप जीव है। नरक व तिर्यंच गति का भाजन है।) </span><br /> | देखें [[ लिंग#2.2 | लिंग - 2.2 ]](द्रव्यलिंगी साधु पापमोहित यति व पाप जीव है। नरक व तिर्यंच गति का भाजन है।) </span><br /> | ||
Line 142: | Line 142: | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> द्रव्य लिंगी की कथंचित् प्रधानता</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong> द्रव्य लिंगी की कथंचित् प्रधानता</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/2/129 </span>पर उद्धृत - <span class="SanskritText">उक्तं चेंद्रनंदिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने -द्रव्यलिंगं समास्याय भावलिंगी भवेद्यतिः। विना तेन न वंद्य, स्यान्नानाव्रतधरोऽपि सन्।1। द्रव्यलिंगमिदं ज्ञेयं भावलिंगस्य कारणम्। तदध्यात्मकृतं स्पष्टं न नेत्रविषयं यतः।2।</span> =<span class="HindiText"> इंद्रनंदि भट्टारक ने समय भूषण प्रवचन में कहा है - कि द्रव्य लिंग को भले प्रकार प्राप्त करके यति भावलिंगी होता है। उस द्रव्यलिंग के बिना यह वंद्य नहीं है, भले ही नाना व्रतों | <span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/2/129 </span>पर उद्धृत - <span class="SanskritText">उक्तं चेंद्रनंदिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने -द्रव्यलिंगं समास्याय भावलिंगी भवेद्यतिः। विना तेन न वंद्य, स्यान्नानाव्रतधरोऽपि सन्।1। द्रव्यलिंगमिदं ज्ञेयं भावलिंगस्य कारणम्। तदध्यात्मकृतं स्पष्टं न नेत्रविषयं यतः।2।</span> =<span class="HindiText"> इंद्रनंदि भट्टारक ने समय भूषण प्रवचन में कहा है - कि द्रव्य लिंग को भले प्रकार प्राप्त करके यति भावलिंगी होता है। उस द्रव्यलिंग के बिना यह वंद्य नहीं है, भले ही नाना व्रतों को धारण क्यों न करता हो। द्रव्य को भावलिंग का कारण जानो। भावलिंग तो केवल अध्यात्म द्वारा ही देखा जा सकता है, क्योंकि वह नेत्र का विषय नहीं है।<br /> | ||
देखें [[ मोक्ष#4.5 | मोक्ष - 4.5 ]](निर्ग्रंथ लिंग से मुक्ति होती है।) <br /> | देखें [[ मोक्ष#4.5 | मोक्ष - 4.5 ]](निर्ग्रंथ लिंग से मुक्ति होती है।) <br /> | ||
देखें [[ वेद ]]/7/4 (सवस्त्र होने के कारण स्त्री को संयतत्व व मोक्ष नहीं होता।) <br /> | देखें [[ वेद ]]/7/4 (सवस्त्र होने के कारण स्त्री को संयतत्व व मोक्ष नहीं होता।) <br /> |
Revision as of 10:54, 15 August 2023
साधु आदि के बाह्य वेष को लिंग कहते हैं। जैनाम्नाय में वह तीन प्रकार का माना गया है - साधु, आर्यिका व उत्कृष्ट श्रावक। ये तीनों ही द्रव्य व भाव के भेद से दो-दो प्रकार के हो जाते हैं। शरीर का वेष द्रव्यलिंग है और अंतरंग की वीतरागता भावलिंग है। भावलिंग सापेक्ष ही द्रव्यलिंग सार्थक है अन्यथा तो स्वांग मात्र है।
- लिंग सामान्य निर्देश
- लिंग शब्द के अनेकों अर्थ
- द्रव्य भाव लिंग निर्देश
- मुनि आर्यिका आदि लिंग निर्देश
- उत्सर्ग व अपवाद लिंग निर्देश
- भावलिंग की प्रधानता
- साधु लिंग में सम्यक्त्व का स्थान
- भाव लिंग ही यथार्थ लिंग है
- भाव के साथ द्रव्य लिंग की व्याप्ति है द्रव्य के साथ भाव की नहीं
- द्रव्यलिंग को कथंचित् गौणता व प्रधानता
- केवल बाह्य लिंग मोक्ष का कारण नहीं
- केवल द्रव्यलिंग अकिंचित्कर व व्यर्थ है
- भाव रहित द्रव्य लिंग का अत्यंत तिरस्कार
- द्रव्य लिंगी की कथंचित् प्रधानता
- भरत चक्रीय ने भी द्रव्यलिंग धारण किया
- द्रव्य व भाव लिंग का समन्वय
- लिंग सामान्य निर्देश
- लिंग शब्द के अनेकों अर्थ
न्यायविनिश्चय / टीका/2/1/1/8 साध्याविनाभावनियमनिर्णयैकलक्षणं वक्ष्यमाणं लिंगम्। = साध्य के अविनाभावीपनेरूप नियम का निर्णय करना ही जिसका लक्षण है वह लिंग है।
धवला 1/1,1,35/260/6 उपभोक्तुरात्मनोऽनिवृत्तकर्मसंबंधस्य परमेश्वरशक्तियोगादिंद्रव्यपदेशमर्हतः स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्योपयोगोपकरणं लिंगमिति कथ्यते। = जिसके कर्मों का संबंध दूर नहीं हुआ है, जो परमेश्वरूप शक्ति के संबंध से इंद्र संज्ञा को धारण करता है, परंतु जो स्वतः पदार्थों को ग्रहण करने में असमर्थ है, ऐसे उपभोक्ता आत्मा के उपयोग के उपकरण को लिंग कहते हैं। (देखें इंद्रिय - 1.1)
धवला 13/5,5,43/245/6 किंलक्खणं लिंगं। अण्णहाणुववत्तिलक्खणं। = लिंग का लक्षण अन्यथानुपपत्ति है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/67/194/2 शिक्षादिक्रियाया भक्तप्रत्याख्यानक्रियांगभूताया योग्यपरिकरमादर्शयितुं लिंगोपादानं कृतम्। कृतपरिकरो हि कर्ता क्रियासाधनायोद्योगं करोति लोके। तथा हि घटादिकरणे प्रवर्तमाना दृढबद्धकक्षाः कुलाला दृश्यंते। = शिक्षा, विनय समाधि वगैरह क्रिया भक्त प्रत्याख्यान की साधन सामग्री है। उस सामग्री का यह लिंग योग्य परिकर है यह सूचित करने के लिए अर्हके अनंतर लिंग का विवेचन किया है। सर्व परिकर सामग्री जुटने पर जैसे कुंभकार घट निर्माण करता है वैसे अर्ह-योग्य व्यक्ति भी साधन सामग्री युक्त होकर सल्लेखनादि कार्य करने के लिए सन्नद्ध होता है। लिंग शब्द चिह्न का वाचक है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/172 लिंगैरिंद्रियै ...लिंगादिंद्रियगभ्याद् धूमादग्नेरिव ... लिंगेनोपयोगाख्यलक्षेण ... लिंगस्य मेहनाकारस्य ... लिंगानां स्त्रीपुन्नपुंसकवेदानां ... लिंगानां धर्मध्वजानां ... लिंगं गुणोग्रहणमर्थावबोधो.. लिंग पर्यायो ग्रहणमर्थावबोधो ... लिंगंप्रत्यभिज्ञानयहेतुर्ग्रहणम् ...। =- लिंगों के द्वारा अर्थात् इंद्रियों के द्वारा,
- जैसे धूएँ से अग्नि का ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंग द्वारा, अर्थात् इंद्रियगम्य (इंद्रियों के जानने योग्यचिह्न) द्वारा ;
- लिंग द्वारा अर्थात् उपयोग नामक लक्षण द्वारा;
- लिंग का अर्थात् (पुरुषादिकी इंद्रिय का आकार) का ग्रहण;
- लिंगों का अर्थात् स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदों का ग्रहण;
- लिंग अर्थात् गुणरूप ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध;
- लिंग अर्थात् पर्यायरूप ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध विशेष; 8 लिंग अर्थात् प्रत्यभिज्ञान का कारण रूप ग्रहण अर्थात् अर्थावबोध सामान्य ...।
स्त्री पुरुष व नपुंसक लिंग - देखें वेद-1.1.1 । (विशेष देखें वह वह नाम )
- द्रव्य भाव लिंग निर्देश
मूलाचार/908 अच्चेलक्कं लोचो वोसट्ठसरीरदा य पडिलिहणं। एसो ह लिंगकप्पो चदविधो होदि णादव्वो।908। = अचेलकत्व, केशलोंच, शरीरसंस्कारका त्याग और पीछी ये चार लिंग के भेद जानने चाहिए।
प्रवचनसार/205-206 जधजादरूवजादं उप्पाडिदकेसभंसुगं सुद्धं। रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं।205। मुच्छारं भविजुत्तं। जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं। लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेण्हं।206। = जन्म समय के रूप जैसा रूपवाला, सिर और दाढीमूँछ के वालों का लोंच किया हुआ, शुद्ध (अकिंचन) हिंसादि से रहित और प्रतिकर्म (शारीरिक शृंगार) से रहित लिंग (श्रामण्य का बहिरंग चिह्न) है।205। मूर्च्छा (ममत्व) और आरंभ रहित, उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त तथा पर की अपेक्षा से रहित ऐसा जिनेंद्रदेव कथित (श्रामण्य का अंतरंग) लिंग है जो कि मोक्ष का कारण है।206।
भावपाहुड़/ मूल/56 देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो। अप्पा अप्पम्मिरओ सभावलिंगो हवे साहू। = जो देहादि के परिग्रह से रहित, मान कषाय से रहित, अपनी आत्मा में लीन है, वह साधु भावलिंगी है।56।
- मुनि आर्यिका आदि लिंग निर्देश
दर्शनपाहुड़/मूल/18 एगं जिणस्स रूवं बीयं उक्किट्ठसावयाणं तु। अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि।18। = दर्शन अर्थात् शास्त्र में एक जिन भगवान् का जैसा रूप है वह लिंग है। दूसरा उत्कृष्ट श्रावक का लिंग है और तीसरा जघन्य पद में स्थित आर्यिका का लिंग है। चौथा लिंग दर्शन में नहीं है।
देखें वेद-7.7 (आर्यिका का लिंग सावरण ही होता है)।
- उत्सर्ग व अपवाद लिंग निर्देश
भगवती आराधना/77-81/207-210 उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव। अवबादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गिंयं लिंगं।77। जस्स वि अव्वभिचारी दोसो तिट्ठाणिगो विहारम्मि। सो वि हु संथारगदो गेग्हेज्जोस्सुग्गियं लिंगं।78। आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महढ्ढिओ हिरिमं। मिच्छजणे सजणे वा तैस्स होज्ज अववादियं लिंगं।79। अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा य प्रडिलिहणं। ऐसो ही लिंगकप्पो चदुव्विहो होदिउस्सग्गे।80। इत्थीवि य जं लिंगं दिट्ठं उस्सग्गियं व इदरं वा। तं तह होदि हं लिंगं परित्तमुवधिं करेंतीए।81।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/80/210/13 लिंग तपस्विनीनां प्राक्तनम्। इतरासां पुंसामिव योज्यम्। यदि महर्द्धिका लज्जावती मिथ्यादृष्टि स्वजना च तस्याः प्राक्तनं लिंंगंविविक्ते आवसथे, उत्सर्गालिंंगं वा सकलपरिग्रहत्यागरूपम्। उत्सर्गलिंंगं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तत् उत्सर्गालिंगं तत्थ स्त्रीणां होदि भवति। परित्तं अल्पम्। उवधिं परिग्रहम। करेंतीए कुर्वत्याः। =- संपूर्ण परिग्रहों का त्याग करना उत्सर्ग है। संपूर्ण परिग्रहों का त्याग जब होता है उस सयम जो चिह्न मुनि धारण करते हैं उसको औत्सर्गिक कहते हैं अर्थात् नग्नता को औत्सर्गिक लिंग कहते हैं। यती को परिग्रह अपवाद का कारण है अतः परिग्रह सहित लिंग को अपवादलिंग कहते हैं। अर्थात् अपवाद लिंग धारक गृहस्थ जब भक्त प्रत्याख्यान के लिए उद्यत होता है तब उसके पुरुष लिंग में कोई दोष न हो तो वह नग्नता धारण कर सकता है।77।
- जिसके लिंग में तीन दोष (देखें प्रव्रज्या - 1.4) औषधादिकों से नष्ट होने लायक नहीं है वह वसतिका में जब संस्तरारूढ होता है तब पूर्ण नग्न रह सकता है। संस्तरारोहण के समय में ही वह नग्न रह सकता है अन्य समय में उसको मना है।78।
- जो श्रीमान्, लज्जावान् हैं तथा जिसके बंधुगण मिथ्यात्व युक्त हैं ऐसे व्यक्तिको एकांत रहित वसतिका में सवस्त्र ही रहना चाहिए।79।
- वस्त्रों का त्याग अर्थात् नग्नता, लोच- हाथ से केश उखाड़ना, शरीरपर से ममत्व दूर करना, प्रतिलेखन प्राणि दया का चिह्न- मयूरपिच्छका हाथ में ग्रहण; इस तरह चार प्रकार का औत्सर्गिक लिंग है।80।
- परमागम में स्त्रियों अर्थात् आर्यिकाओं का और श्राविकाओं का जो उत्सर्गलिंग अपवाद लिंग कहा है वही लिंग भक्तप्रत्याख्यान के समय समझना चाहिए। अर्थात् आर्यिकाओं का भक्तप्रत्याख्यान के समय उत्सर्ग लिंग विविक्त स्थान में होना चाहिए अर्थात् वह भी मुनिवत् नग्न लिंग धारण कर सकती है ऐसी आगमाज्ञा है।
- परंतु श्राविका का उत्सर्ग लिंग भी है और अपवाद लिंग भी है। यदि वह श्राविका संपत्ति वाली, लज्जावती होगी, उसको बांधवगण मिथ्यात्वी हो तो वह अपवाद लिंग धारण करे अर्थात् पूर्ववेष में ही मरण करे। तथा जिस श्राविका ने अपना परिग्रह कम किया है वह एकांत वसतिका में उत्सर्ग लिंग-नग्नता धारण कर सकती है।
उत्सर्ग व अपवाद लिंग का समन्वय - देखें अपवाद - 4।
- लिंग शब्द के अनेकों अर्थ
- भावलिंग की प्रधानता
- साधु लिंग में सम्यक्त्व का स्थान
भगवती आराधना/770/929 ... लिंगग्गहणं च दंसणविहूणं ... जो कुणदि णिरत्थयं कुणदि।770। = सम्यग्दर्शन रहित लिंग अर्थात् मुनि दीक्षा धारण करना व्यर्थ है। इससे मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। ( शीलपाहुड़/मूल/5 )
रयणसार/मूल/87 कम्मु ण खवेइ जो हु परब्रम्ह ण जाणेइ सम्मउमुक्को। अत्थु ण तत्थु ण जीवो लिंगं धेत्तूणं किं करई।87। = जो जीव परब्रह्म को नहीं जानता है, और जो सम्यग्दर्शन से रहित है। वह न तो गृहस्थ अवस्था में है और न साधु अवस्था में है। केवल लिंग को धारण कर क्या कर सकते हैं। कर्मों का नाश तो सम्यक्त्वपूर्वक जिन लिंग धारण करने से होता है।
देखें विनय - 4.4(द्रव्य लिंगी मुनि असंयत तुल्य है।)
राजवार्तिक/9/46/11/637/15 दृष्टया सह यत्र रूपं तत्र निर्ग्रंथव्यपदेशः न रूपमात्र इति। = जहाँ सम्यग्दर्शन सहित निर्ग्रंथरूप है वही निर्ग्रंथ है।
धवला 1/1,1,14/177/5 आप्तागमपदार्थेष्वनुत्पन्नश्रद्धस्य त्रिमूढालीढचेतसः संयमानुपपत्तेः। ... सम्यक् ज्ञात्वा श्रद्धाय यतः संयत इति व्युत्पत्तितस्तदवगतेः। = आप्त, आगम, पदार्थों में जिस जीव के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई है, तथा जिसका चित्त मूढताओं से व्याप्त है, उसके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। ... भले प्रकार जानकर और श्रद्धान कर जो यम सहित है उसे संयत कहते हैं। संयत शब्द की इस प्रकार व्युत्पत्ति करने से यह जाना जाता है कि यहाँ पर द्रव्य संयम का प्रकरण नहीं है (और भी देखें चारित्र - 3.8)।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/207 कायमुत्सृज्य यथाजातरूपं ... आलंब्य व्यवतिष्ठमान उपस्थितो भवति, उपस्थितस्तु सर्वत्र समदृष्टित्वात्साक्षाच्छ्रमणो भवति। = काय का उत्सर्ग करके यथाजात रूपवाले स्वरूप को ... अवलंबित करके उपस्थित होता है। और उपस्थित होता हुआ, सर्वत्र समदृष्टित्व के कारण साक्षात् श्रमण होता है।
- भाव लिंग ही यथार्थ लिंग है
समयसार/410 ण वि एस मोखमग्गो पासंडीगिहिमयाणि लिंगाणि। दंसणणाणचरित्ताणिमोक्खमग्गं जिणा विंति।410। (न खलु द्रव्यलिंगं मोक्षमार्गः)। = मुनियों और गृहस्थों के लिंग यह मोक्षमार्ग नहीं है। ज्ञान दर्शन चारित्र को जिनदेव मोक्षमार्ग कहते हैं।410। (द्रव्यलिंग वास्तव में मोक्षमार्ग नहीं है)।
मूलाचार/1002 भावसमणा हु समणा ण सेससमणाण सुग्गई जम्हा। ... 1002। = भाव श्रमण हैं वे ही श्रमण हैं क्योंकि शेष नामादि श्रमणों को सुगति नहीं होती।
लिंगपाहुड मूल/2 धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमत्तेण धम्मसंपत्ती। जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायव्वो।2। = धर्म सहित लिंग होता है, लिंग मात्र से धर्म की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए हे भव्य ? तू भावरूप धर्म को जान, केवल लिंग से क्या होगा तेरे कुछ नहीं।
भावपाहुड़/ मूल/2,74,100 भावो हि पढमलिंगं ण दव्वलिंगं च जाणपरमत्थं। भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विंति।2। भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणे भाववज्जिओ सवणो। कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो।74। पावंति भावसवणा कल्लाणपरंपराइं सोक्खाइं। दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेवजोणीए।100। =- भाव ही प्रथम लिंग है इसलिए हे भव्य जीव! तू द्रव्यलिंग को परमार्थरूप मत जान। और गुण दोष का कारणभूत भाव ही हैं, ऐसा जिन भगवान् कहते हैं।2। ( भावपाहुड़/मूल/6,7,48, 54, 55 ); ( योगसार (अमितगति)/5/57 )।
- भाव ही स्वर्ग मोक्ष का कारण है। भाव से रहित श्रमण पाप स्वरूप है, तिर्यंच गति का स्थानक है और कर्ममल से मलिन है चित्त जिसका ऐसा है।74। जो भाव श्रमण हैं वे परंपरा कल्याण है जिसमें ऐसे सुखों को पाते हैं। जो द्रव्य श्रमण हैं वे मनुष्य कुदेव आदि योनियों में दु:ख पाते हैं।100।
- भाव के साथ द्रव्य लिंग की व्याप्ति है द्रव्य के साथ भाव की नहीं
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/414/508/16 बहिरंगद्रव्यलिंगे सति भावलिंगं भवति न भवति वा नियमो नास्ति, अभ्यंतरे तु भावलिंगे सति सर्वसंगपरित्यागरूपं द्रव्यलिंगं भवत्येवेति। = बहिरंग द्रव्यलिंग के होने पर भावलिंग होता भी है, नहीं भी होता, कोई नियम नहीं है। परंतु अभ्यंतर भावलिंग के होने पर सर्व संग (परिग्रह) के त्याग रूप बहिरंग द्रव्यलिंग अवश्य होता ही है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/9/462/12
मुनि लिंग धारै बिना तो मोक्ष न होय; परंतु मुनि लिंग धारै मोक्ष होय भी अर नाहीं भी होय।
पंचमकाल में भरतक्षेत्र में भी भाव लिंग की स्थापना - देखें संयम - 2.8
- साधु लिंग में सम्यक्त्व का स्थान
- द्रव्यलिंग की कथंचित् गौणता व प्रधानता
- केवल बाह्य लिंग मोक्ष का कारण नहीं
देखें वर्ण व्यवस्था - 2.3 (लिंग व जाति आदि से ही मुक्ति भावना मानना मिथ्या है।)
समयसार/408-410 पासंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहप्पयाराणि। घित्तुं वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो त्ति।408। ण द होइ मोक्खमग्गो लिंगं जं देहणिम्ममा अरिहा। लिंगं मुंचितु दंसणणाणचरित्ताणि संयंति।409। णवि एस मोक्खमग्गो पासंडीगिहमयाणि लिंगाणि।410। = बहुत प्रकार के मुनिलिंगों को अथवा गृहीलिंगों को ग्रहण करके मूढ (अज्ञानी) जन यह कहते हैं कि ‘यह लिंग मोक्षमार्ग है’।408। परंतु लिंग मोक्षमार्ग नहीं है क्योंकि अर्हंत देव देह के प्रति निर्ममत्व वर्तते हुए लिंग को छोड़कर दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सेवन करते हैं।409। मुनियों और गृहस्थों के लिंग यह मोक्षमार्ग नहीं है।410।
मूलाचार/900 लिंगग्गहणं च संजमविहूणं। ... जो कुणइ णिरत्थयं कुणदि। = जो पुरुष संयम रहित जिन लिंग धारण करता है, वह सब निष्फल है।
भावपाहुड़/मूल/72 जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा। ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले।72। = जो मुनि राग अर्थात् अंतरंग परिग्रहसे युक्त है, जिन स्वरूप की भावना से रहित हैं वे द्रव्य-निर्गंथ हैं। उसे जिनशासन में कहीं समाधि और बोधि की प्राप्ति नहीं होती।72।
समाधि शतक/मूल/87 लिंगं देहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः। न मुच्यंते भवात्तघस्मात्ते ये लिंगकृताग्रहाः।87। = लिंग (वेष) शरीर के आश्रित है, शरीर ही आत्मा का संसार है, इसलिए जिनको लिंग का ही आग्रह है वे पुरुष संसार से नहीं छुटते।87।
योगसार (अमितगति)/5/59 शरीरमात्मनो भिन्नं लिंगं येन तदात्मकम्। न मुक्तिकारणं लिंगं जायते तेन तत्त्वतः।59। = शरीर आत्मा से भिन्न है और लिंग शरीर स्वरूप है इसलिए आत्मा से भिन्न होने के कारण निश्चय नय से लिंग मोक्ष का कारण नहीं।59।
- केवल द्रव्यलिंग अकिंचित्कर व व्यर्थ है
मोक्षपाहुड़/57 णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं। अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं।57। = जहाँ ज्ञान चारित्रहीन है, जहाँ तप से तो संयुक्त है पर सम्यक्त्व से रहित है और अन्य भी आवश्यकादि क्रियाओं में शुद्ध भाव नहीं है ऐसे लिंग के ग्रहण में कहाँ सुख है।57।
भावपाहुड़/ मूल/6,68,111 ‘जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण। पंथिय! सिव पुरिपंथं जिणउवइट्ठं पयत्तेण।6। णग्गो पावइ दक्खं णग्गो संसारसागरे भमति। णग्गो ण लहइ बोहिं जिणभावणवज्जिओ सुइरं।68। सेवहि चउविहलिंगं अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो। बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं।111। = हे मुने! मोक्ष का मार्ग भाव ही से है इसलिए तू भाव ही को परमार्थभूत जान अंगीकार करना, केवल द्रव्यमात्र से क्या साध्य है। कुछ भी नहीं।6। जो नग्न है सदा दु:ख पावे है, संसार में भ्रमता है। तथा जो नग्न है वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र को नहीं पाता है सो कैसा है वह नग्न, जो कि जिन भावना से रहित है।68। हे मुनिवर ! तू अभ्यंतर की शुद्धि पूर्वक चार प्रकार के लिंग को धारण कर। क्योंकि भाव रहित केवल बाह्यलिंग अकार्यकारी है।111। (और भी भावपाहुड़/मूल/48,54,89,96 )।
- भाव रहित द्रव्य लिंग का अत्यंत तिरस्कार
मोक्षपाहुड़/मूल/61 बाहिरलिंगेण जुदो अब्भंतरलिंगरहियपरियम्मो। सो सगचरित्तभट्टो मोक्खपहविणासगो साह।61। = जो जीव बाह्य लिंग से युक्त है और अभ्यंतर लिंग से रहित है और जिसमें परिवर्तन है। वह मुनि स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट है, इसलिए मोक्षमार्ग का विनाशक है।61।
देखें लिंग - 2.2 (द्रव्यलिंगी साधु पापमोहित यति व पाप जीव है। नरक व तिर्यंच गति का भाजन है।)
भावपाहुड़/49, 69, 71, 90 दंडयणयरं सयलं डहिओ अब्भंतरेण दोसेण। जिणलिंगेण वि बाह पडिओ सो रउरवे णरये।49। अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण।पेसुण्णहासमच्छरमायाबहलेण सवणेण।69। धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो। णिप्फलणिग्गुणयारो णउसवणो णग्गरूवेण।71। ... मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु।90। = बाह नामक मुनि बाह्य जिन लिंग युक्त था। तो भी अभ्यंतर दोष से दंडक नामक नगर को भस्स करके सप्तम पृथिवी के रौरव नामक बिल में उत्पन्न हुआ।49। हे मुनि ! तेरे नग्नपने से क्या साध्य है जिसमें पैशुन्य, हास्य, मत्सर, माया आदि परिणाम पाये जाते हैं। इसलिए ऐसा ये नग्नपना पाप से मलिन और अपकीर्ति का स्थान है।69। जो धर्म से रहित है, दोषों का निवास स्थान है। और इक्षु पुष्प के सदृश जिसमें कुछ भी गुण नहीं है, ऐसा मुनिपना तो नग्नरूप से नटश्रमण अर्थात् नाचने वाला भाँड़ सरीखा स्वांग है।71। ... हे मुने ! तू बाह्यव्रत का वेष लोकका रंजन करने वाला मत धारण कर।90।
समयसार / आत्मख्याति/411 यतो द्रव्यलिंगं न मोक्षमार्गः। = द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है।
- द्रव्यलिंगी की सूक्ष्म पहचान - देखें साधु - 4.1।
- द्रव्य लिंगी को दिये गये घृणास्पद नाम - देखें निंदा - 6
- पुलाक आदि साधु द्रव्यलिंगी नहीं - देखें साधु - 5.3.4।
- द्रव्य लिंगी की कथंचित् प्रधानता
भावपाहुड़ टीका/2/129 पर उद्धृत - उक्तं चेंद्रनंदिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने -द्रव्यलिंगं समास्याय भावलिंगी भवेद्यतिः। विना तेन न वंद्य, स्यान्नानाव्रतधरोऽपि सन्।1। द्रव्यलिंगमिदं ज्ञेयं भावलिंगस्य कारणम्। तदध्यात्मकृतं स्पष्टं न नेत्रविषयं यतः।2। = इंद्रनंदि भट्टारक ने समय भूषण प्रवचन में कहा है - कि द्रव्य लिंग को भले प्रकार प्राप्त करके यति भावलिंगी होता है। उस द्रव्यलिंग के बिना यह वंद्य नहीं है, भले ही नाना व्रतों को धारण क्यों न करता हो। द्रव्य को भावलिंग का कारण जानो। भावलिंग तो केवल अध्यात्म द्वारा ही देखा जा सकता है, क्योंकि वह नेत्र का विषय नहीं है।
देखें मोक्ष - 4.5 (निर्ग्रंथ लिंग से मुक्ति होती है।)
देखें वेद /7/4 (सवस्त्र होने के कारण स्त्री को संयतत्व व मोक्ष नहीं होता।)
- भरत चक्रीय ने भी द्रव्यलिंग धारण किया
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/414/508/20 येऽपि घटिकाद्वयेन मोक्षं गता भरतचक्रवर्त्यादयस्तेऽपि निर्ग्रंथरूपेणैव। परं किंतु तेषां परिग्रहत्यागं लोका न जानंति स्तोककालत्वादिति भावार्थः। = जो ये दीक्षा के बाद घड़ीकाल में ही भरत-चक्रवर्ती आदि ने मोक्ष प्राप्त किया है, उन्होंने भी निर्ग्रंथ रूप से ही (मोक्ष प्राप्त किया है )। परंतु समय स्तोक होने के कारण उनका परिग्रह त्याग लोग जानते नहीं हैं।
परमात्मप्रकाश टीका/2/52 भरतेश्वरोऽपि पूर्वजिनदीक्षां प्रस्तावे लोचानंतरं हिंसादिनिवृत्तिरूपं महाव्रतरूपं कृत्वांतर्मुहर्ते गते .... निजशुद्धात्मध्याने स्थित्वा पश्चान्निर्विकल्पो जातः। परं किंतु तस्य स्तोककालत्वान्महाव्रतप्रसिद्धिर्नास्ति। = भरतेश्वरने पहले जिनदीक्षा धारण की, सिर के केश लुंचन किये, हिंसादि पापों की निर्वृत्ति रूप पंच महाव्रत आदरे। फिर अंतर्मुहर्त में ... निज शुद्धात्मा के ध्यान में ठहरकर निर्विकल्प हुए। तब भरतेश्वर ने अंतर्मुहर्त में केवलज्ञान प्राप्त किया परंतु उसका समय स्तोक है, इसलिए महाव्रत की प्रसिद्धि नहीं हुई। ( द्रव्यसंग्रह टीका/57/231/2 )।
- केवल बाह्य लिंग मोक्ष का कारण नहीं
- द्रव्य व भाव लिंग का समन्वय
- रत्नत्रय से प्रयोजन है नग्नता की क्या आवश्यकता ?
भगवती आराधना/82-87/211-222 नन्वर्हस्य रत्नत्रयभावनाप्रकर्षेण मृतिरुपयुज्यते किममुना लिंगविकल्पोपादानेनेत्यस्योत्तरमाह – जत्तासाधणचिन्हकरणंखु जगपच्चयादाठिदिकिरणं। गिहभावविवेगो वि य लिंगग्गहणे गुणा होंति।82। गंथच्चाओ लाघवमप्पडिलिहणं च गदभयत्तं च। संसज्जणपरिहारो परिकम्म विवज्जणा चेव।83। विस्सासकरं रूवं अणादरो विसयदेहसुवखेसु। सव्वत्थ अप्पवसदा परिसहअधिवासणा चेव।84।जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं। इच्चेवमादिबहगा अच्चेलक्के गुणा होंति।85। इय सव्वसमिदिकरणो ठाणासणसयणगमणकिरियासु। णिगिणं गुत्तिमुवगदो पग्गहिददरं परक्कमदि।86। अववादिय लिंगकदो विसयासत्तिं अगूहमाणो य। णिंदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधिं परिहरंतो।87। = प्रश्न - जो भक्त प्रतिज्ञा योग्य है उसको रत्नत्रय का प्रकर्ष करके मरना योग्य है। उत्सर्ग लिंग अथवा अपवाद लिंग धारण करके मरना चाहिए ऐसा हठ क्यों। उत्तर - नग्नता यात्रा का साधन है। गृहस्थ वेष से उनके विशिष्ट गुण ज्ञात न होने से गृहस्थ उनको दान न देंगे, तब क्रम से शरीरस्थिति तथा रत्नत्रय व मोक्ष की प्राप्ति कैसे होगी। अतः नग्नता गुणीपने का सूचक है इससे दानादिकी प्रवृत्ति होती है। मोक्ष के साधन रत्नत्रय उसका नग्नता चिह्न है। इसमें जगत् प्रत्ययता - सर्व जगत् की इसके ऊपर श्रद्धा होना, आत्मस्थितिकरण गुण है।82। ग्रंथ त्याग-परिग्रह त्याग, लाघव हल्कापन, अप्रतिलेखन, परिकर्मवर्जना अर्थात् वस्त्र विषय धोनादि क्रिया से रहितपन, गतभयत्व, परिषहाधिवासना आदि गुण मुनिलिंग में समाविष्ट हुए हैं।83। निर्वस्त्रता विश्वास उत्पन्न कराने वाली है, अनादर, विषयजनित सुखों में अनादर, सर्वत्र आत्मवशता तथा शीतादि परीषहों को सहन करना चाहिए ऐसा अभिप्राय सिद्ध होता है। 84। जिनरूप-तीर्थंकरोंने जो लिंग धारण किया वही मुमुक्षु को धारण करना चाहिए, वीर्याचार, रागादि दोषपरिहरण-वस्रका त्याग करने से सर्व रागादि दोष नहीं रहते सब महागुण मुनिराज को मिलते हैं।85। स्पर्शनादि इंद्रिय अपने विषयों में समिति युक्त प्रवृत्ति करती हैं। स्थान क्रिया, आसन क्रिया, शयनक्रिया, गमनक्रिया, इत्यादि कार्यों में समिति युक्त वर्तते हैं। गुप्ति को पालनेवाले मुनि शरीर से प्रेम दूर करते हैं। इस प्रकार अनेकों गुण नग्नता में हैं।86। अपवादलिंग धारी ऐलक आदि भी अपनी चारित्र धारण की शक्ति को न छिपाता हुआ कर्ममल निकल जाने से शुद्ध होता है क्योंकि वह अपनी निंदा गर्हा करता है ‘संपूर्ण परिग्रह का त्याग करना ही मुक्ति का मार्ग है परंतु मेरे परिषहों के डर के कारण परिग्रह है ’ ऐसा मन में पश्चात्ताप पूर्वक परिग्रह स्वल्प करता है अतः उसके कर्म निर्जरा होकर आत्मशुद्धि होती है।87। (और भी देखें अचेलकत्व )।
- द्रव्य लिंग के निषेध का कारण व प्रयोजन
समयसार / आत्मख्याति/410-411 न खलु द्रव्यलिंगं मोक्षमार्गः; शरीराश्रितत्वे सति परद्रव्यत्वात्। दर्शनज्ञानचारित्राण्येव मोक्षमार्गः आत्माश्रितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात्।410। ततः समस्तमपि द्रव्यलिंगं त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्रै चैव मोक्षमार्गत्वात् आत्मा योक्तव्य इति। = द्रव्यलिंग वास्तव में मोक्षमार्ग नहीं है, क्योंकि वह शरीराश्रित होने से परद्रव्य है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है, क्योंकि वे आत्माश्रित होने से स्वद्रव्य है। इसलिए समस्त द्रव्यलिंग का त्याग करके दर्शनज्ञान चारित्र में ही वह मोक्षमार्ग होने से आत्मा को लगाना योग्य है।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/414/508/5 अहो शिष्य! द्रव्यलिंगं निषिद्धमेवेति त्वं मा जानीहि किं तु ... भावलिंगरहितानां यतीनां संबोधनं कृतं। कथं। इति चेत् अहो तपोधनाः! द्रव्यलिंगमात्रेण संतोषं मा कुरुत किंतुद्रव्यलिंगाधारेण ... निर्विकल्पसमाधिरूपभावनां कुरुत। .... भावलिंगरहितं द्रव्यलिंगं निषिद्धं न च भावलिंगंसहितं। कथं। इति चेत् द्रव्यलिंगाधारभूतो योऽसौ देहस्तस्य ममत्वं निषिद्धं। = हे शिष्य ! द्रव्यलिंग निषिद्ध ही है ऐसा तू मत जान। किंतु ... भावलिंग से रहित यतियों को यहाँ संबोधन किया गया है। वह ऐसे कि - हे तपोधन ! द्रव्यलिंग मात्र से संतोष मत करो किंतु द्रव्यलिंग के आधार से ... निर्विकल्प समाधि रूप भावना करो। ... भावलिंग रहित द्रव्यलिंग निषिद्ध है न कि भावलिंग सहित। क्योंकि द्रव्यलिंग का आधारभूत जो यह देह है, उसका ममत्व निषिद्ध है।
( समयसार/पं. जयचंद/411 ) यहाँ मुनि श्रावक के व्रत छुड़ाने का उपदेश नहीं है जो केवल द्रव्यलिंग को ही मोक्षमार्ग मानकर भेष धारण करते हैं उनको द्रव्यलिंग का पक्ष छुड़ाया है कि वेष मात्र से मोक्ष नहीं है। ( भावपाहुड़/पं. जयचंद।113। )
- द्रव्यलिंग धारने का कारण
पद्मनंदी पंचविशतिका/1/41 म्लाने क्षालनतः कुतः कृतजलाद्यारंभतः संयमो नष्टे व्याकुलचित्तताथ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम्। कौपीनेऽपि हते परैश्च झटिति क्रोधः समुत्पद्यते तन्नित्यं शुचिरागह्रत् शमवतां वस्त्रं ककुम्मडलम्।41। = वस्त्र के मलिन हो जाने पर उसके धोने के लिए जल एवं साबुन आदि का आरंभ करना पड़ता है, और इस अवस्था में संयम का घात होना अवश्यंभावी है। वस्त्र के नष्ट होने पर महान् पुरुषों का भी मन व्याकुल हो जाता है, दूसरो से उसको प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करनी पड़ती है। केवल लंगोटी का ही अपहरण हो जावे तो झट से क्रोध होने लगता है इसलिए मुनिजन सदा पवित्र एवं रागभाव को दूर करने के लिए दिग्मंडल रूप अविनश्वर वस्त्र का आश्रय लेते हैं।41।
राजवार्तिक हिंदी/9/46/766 जो वस्त्रादि ग्रंथ करि संयुक्त हैं तै निर्ग्रंथ नाहीं। जातै वाह्य परिग्रह का सद्भाव होय तो अभ्यंतर के ग्रंथका अभाव होय नाहीं।
द्रव्यलिंगी साधु के ज्ञान की कथंचित् यथार्थता - देखें ज्ञान - IV.2.1
- जबरदस्ती वस्त्र उढ़ाने से साधु का लिंग भंग नहीं होता
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/414/508/18 हे भगवन्! भावलिंगे सति बहिरंगं द्रव्यलिंगं भवतीति नियमो नास्ति ! परिहारमाह - कोऽपि तपोधनो ध्यानारूढस्तिष्ठति तस्य केनापि दुष्टभावेन वस्त्रवेष्टनं कृतं। आभरणादिकं वा कृतं तथाप्यसौ निर्ग्रंथ एव। कस्मात्। इति चेत, बुद्धिपूर्वकममत्वाभावात्। = प्रश्न - हे भगवान् ! भावलिंग के होने पर बहिरंग द्रव्यलिंग होता है, ऐसा कोई निमय नहीं है। उत्तर - इसका उत्तर देते हैं - जैसे कोई तपोधन ध्यानारूढ बैठा है। उसको किसी ने दुष्ट भाव से (अथवा करुणा भाव से) वस्त्र लपेट दिया अथवा आभूषण आदि पहना दिये, तब भी वह निर्ग्रंथ है, क्योंकि, बुद्धिपूर्वक ममत्व का उनके अभाव है।
कदाचित् परिस्थितिवश वस्त्र ग्रहण की आज्ञा
-देखें अचेलकत्व /3।
- दोनों लिंग परस्पर सापेक्ष हैं
प्रवचनसार/207/ आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता। सोच्चा सवदं किरियं उवट्ठिदो होदिसो समणो।207। = परम गुरु के द्वारा प्रदत्त उन दोनों लिंगों को ग्रहण करके, उन्हें नमस्कार करके, व्रत सहित क्रिया को सुनकर उपस्थिति (आत्मा के समीपस्थित) होता हुआ वह श्रमण होता है।207।
भावपाहुड़ टीका/73/216/22 भावलिंगेन द्रव्यलिंगेन द्रव्यलिंगेन भावलिंगं भवतीत्युभयमेव प्रमाणीकर्तव्यं। एकांतमतेन तेन सर्व नष्टं भवतीति वेदितव्यम्। = भावलिंग से द्रव्यलिंग और द्रव्यलिंग से भावलिंग होता है इसलिए दोनों को ही प्रमाण करना चाहिए। एकांत मत से तो सर्व नष्ट हो जाता है ऐसा जानना चाहिए।
- भाव सहित ही द्रव्यलिंग सार्थक है
भावपाहुड़/मूल/73 भावेण होइणग्गो मिच्छत्ताइं य दोस चइउणं। पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए।73। = पहले मिथ्यात्वादि दोषों को छोड़कर भाव से अंतरंग नग्न होकर एक शुद्धात्मा का श्रद्धान- ज्ञान व आचरण करे पीछे द्रव्य से बाह्य लिंग जिन आज्ञा से प्रकट करे यह मार्ग है।73।
देखें लिंग - 3.2 (अंतर शुद्धि को प्राप्त होकर चार प्रकार बाह्य लिंग का सेवन कर, क्योंकि भावरहित द्रव्यलिंग अकार्यकारी है।)
योगसार (अमितगति)/5/57-58 द्रव्यमात्रनिवृत्तस्य नास्ति निर्वृतिरेनसां। भावतोऽस्ति निवृत्तस्य तात्त्विकी संवृतिः पुनः 57। विज्ञायेति निराकृत्य निवृत्तिं द्रव्यतस्त्रिधा। भाव्यं भावनिवृत्तेन समस्तैनोनिषिद्धये।58। = जो केवल द्रव्यरूप से विषयों से निवृत्त है उनके पापों की निवृत्ति नहीं, किंतु भाव रूप से निवृत्त हैं उन्हीं के कर्मों का संवर है।57। द्रव्य और भावरूप निवृत्ति का भले प्रकार स्वरूप जानकर मन, वच, काय से विषयों से निवृत्त होकर समस्त पापों के नाशार्थ भाव रूप से विषयों से निवृत्त होना चाहिए।58।
समयसार / तात्पर्यवृत्ति/114/507/10 भावलिंगसहितं निर्ग्रंथयति लिंगं ... गृहिलिंगं चेति द्वयमपि मोक्षमार्गे व्यवहारनयो मन्यते। = भावलिंग सहित निर्ग्रंथ यति का लिंग ... तथा गृहस्थ का लिंग है। इसलिए दोनों को (द्रव्य - भाव) ही मोक्षमार्ग में व्यवहार नय से माना गया है।
( भावपाहुड़/ पं. जयचंद/2 )मुनि श्रावक के द्रव्य तैं पहले भावलिंग होय तो सच्चा मुनि श्रावक होय।
- रत्नत्रय से प्रयोजन है नग्नता की क्या आवश्यकता ?