वर्णव्यवस्था निर्देश: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<ol start="2"> | |||
| |||
<ol start="2"> | |||
<li><strong> <span class="HindiText" name="2" id="2">वर्णव्यवस्था निर्देश <br /> | <li><strong> <span class="HindiText" name="2" id="2">वर्णव्यवस्था निर्देश <br /> | ||
</span></strong> | </span></strong> | ||
Line 29: | Line 5: | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> वर्णव्यवस्था की स्थापना इतिहास </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> वर्णव्यवस्था की स्थापना इतिहास </strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/1618 </span><span class="PrakritText">चक्कधराउ दिजाणं हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ।1618। </span>= <span class="HindiText">हुंडावसर्पिणीकाल में चक्रवर्ती से की गयी द्विजों के वर्ण की उत्पत्ति भी होती है । <br /> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/1618 </span><span class="PrakritText">चक्कधराउ दिजाणं हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ।1618। </span>= <span class="HindiText">हुंडावसर्पिणीकाल में चक्रवर्ती से की गयी द्विजों के वर्ण की उत्पत्ति भी होती है । <br /> | ||
<span class="GRef"> पद्मपुराण/4/91-122 </span>का भावार्थ - भगवान् ॠषभदेव का समवशरण आया जान भरत चक्रवर्ती ने संघ के मुनियों के उद्देश्य से उत्तम-उत्तम भोजन बनवाये और नौकरों के सिरपर रखवाकर भगवान् के पास पहुँचा । परंतु भगवान् ने उद्दिष्ट होने के कारण उस भोजन को स्वीकार न किया ।91-97 । तब भरत ने अन्य भी आवश्यक सामग्री के साथ उस भोजन को दान देने के द्वारा व्रती श्रावकों का सम्मान करने के अर्थ उन्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया ।98-103 । क्योंकि आने वालों में सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि सभी थे इसलिए भरत चक्रवर्ती ने अपने भवन के आँगन में जौ, धान, मूँग, | <span class="GRef"> पद्मपुराण/4/91-122 </span>का भावार्थ - भगवान् ॠषभदेव का समवशरण आया जान भरत चक्रवर्ती ने संघ के मुनियों के उद्देश्य से उत्तम-उत्तम भोजन बनवाये और नौकरों के सिरपर रखवाकर भगवान् के पास पहुँचा । परंतु भगवान् ने उद्दिष्ट होने के कारण उस भोजन को स्वीकार न किया ।91-97 । तब भरत ने अन्य भी आवश्यक सामग्री के साथ उस भोजन को दान देने के द्वारा व्रती श्रावकों का सम्मान करने के अर्थ उन्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया ।98-103 । क्योंकि आने वालों में सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि सभी थे इसलिए भरत चक्रवर्ती ने अपने भवन के आँगन में जौ, धान, मूँग, उड़द आदि के अंकुर बोकर उन सब की परीक्षा की और सम्यग्दृष्टि पुरुषों की छाँट कर ली ।104-110 । भरत का सम्मान पाकर उन्हें अभिमान जागृत हो गया और अपने को महान् समझकर समस्त पृथिवी तल पर याचना करते हुए विचरण करने लगे ।111-114 । अपने मंत्री के मुख से उनके आगामी भ्रष्टाचार की संभावना सुन चक्रवर्ती उन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ, परंतु वे सब भगवान् ॠषभदेव की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे । और भगवान् ने भरत को उनका बध करने से रोक दिया ।115-122 । <br /> | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/9/33-39 </span>का भावार्थ - कल्पवृक्षों के लोप के कारण भगवान् ॠषभदेव ने प्रजा को असि मसि आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया ।33-36 । उसे सीखकर शिल्पीजनों ने नगर ग्राम आदि की रचना की ।37-38 । उसी समय क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए । विनाश से जीवों की रक्षा करने के कारण क्षत्रिय, वाणिज्य व्यापार के योग से वैश्य और शिल्प आदि के संबंध से शूद्र कहलाये ।39। (<span class="GRef"> महापुराण/16/179-183 </span>) । <br /> | <span class="GRef"> हरिवंशपुराण/9/33-39 </span>का भावार्थ - कल्पवृक्षों के लोप के कारण भगवान् ॠषभदेव ने प्रजा को असि मसि आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया ।33-36 । उसे सीखकर शिल्पीजनों ने नगर ग्राम आदि की रचना की ।37-38 । उसी समय क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए । विनाश से जीवों की रक्षा करने के कारण क्षत्रिय, वाणिज्य व्यापार के योग से वैश्य और शिल्प आदि के संबंध से शूद्र कहलाये ।39। (<span class="GRef"> महापुराण/16/179-183 </span>) । <br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/16/184-187 </span>का भावार्थ - उनमें भी शूद्र दो प्रकार के हो गये - कारू और अकारू (विशेष देखें [[ वर्णव्यवस्था#4 | वर्णव्यवस्था - 4]]) । ये सभी वर्णों के लोग अपनी-अपनी निश्चित आजीविका को | <span class="GRef"> महापुराण/16/184-187 </span>का भावार्थ - उनमें भी शूद्र दो प्रकार के हो गये - कारू और अकारू (विशेष देखें [[ वर्णव्यवस्था#4 | वर्णव्यवस्था - 4]]) । ये सभी वर्णों के लोग अपनी-अपनी निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका नहीं करते थे ।184-187 । <br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/38/5-50 </span>का भावार्थ - दिग्विजय करने के पश्चात् भरत चक्रवर्ती को परोपकार में अपना धन लगाने की बुद्धि उपजी ।5। तब महामह यज्ञ का अनुष्ठान किया ।6। सद्व्रती गृहस्थों की परीक्षा करने के लिए समस्त राजाओं को अपने-अपने परिवार व परिकर सहित उस उत्सव में निमंत्रित किया ।7-10 । उनके विवेक की परीक्षा के अर्थ अपने घर के आँगन में अंकुर फल व पुष्प भरवा दिये ।11। जो लोग बिना सोचे समझे उन अंकुरों को कुचलते हुए राजमंदिर में घुस आये उनको पृथक् कर दिया गया ।12। परंतु जो लोग अंकुरों आदि पर पाँव रखने के भय से अपने घरों को वापस लौटने लगे, उनको दूसरे मार्ग से आँगन में प्रवेश कराके चक्रवर्ती ने बहुत सम्मानित किया ।13-20 । उनको उन-उनके व्रतों व प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञ पवीत से चिह्नित किया ।21-22 । (विशेष देखें [[ यज्ञोपवीत ]]) । भरत ने उन्हें उपास का ध्ययन आदि का उपदेश देकर अर्हत् पूजा आदि उनके नित्य कर्म व कर्त्तव्य बताये ।24-25 । पूजा, वार्ता, दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप इन छह प्रकार की विशुद्ध वृत्ति के कारण ही उनको द्विज संज्ञा दी । और उन्हें उत्तम समझा गया ।42-44 । (विशेष देखें [[ ब्राह्मण ]]) । उनको गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्न्नान्वय इन तीन प्रकार की क्रियाओं का भी उपदेश दिया ।-(विशेष देखें [[ संस्कार ]]) ।50। </span><br /> | <span class="GRef"> महापुराण/38/5-50 </span>का भावार्थ - दिग्विजय करने के पश्चात् भरत चक्रवर्ती को परोपकार में अपना धन लगाने की बुद्धि उपजी ।5। तब महामह यज्ञ का अनुष्ठान किया ।6। सद्व्रती गृहस्थों की परीक्षा करने के लिए समस्त राजाओं को अपने-अपने परिवार व परिकर सहित उस उत्सव में निमंत्रित किया ।7-10 । उनके विवेक की परीक्षा के अर्थ अपने घर के आँगन में अंकुर फल व पुष्प भरवा दिये ।11। जो लोग बिना सोचे समझे उन अंकुरों को कुचलते हुए राजमंदिर में घुस आये उनको पृथक् कर दिया गया ।12। परंतु जो लोग अंकुरों आदि पर पाँव रखने के भय से अपने घरों को वापस लौटने लगे, उनको दूसरे मार्ग से आँगन में प्रवेश कराके चक्रवर्ती ने बहुत सम्मानित किया ।13-20 । उनको उन-उनके व्रतों व प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञ पवीत से चिह्नित किया ।21-22 । (विशेष देखें [[ यज्ञोपवीत ]]) । भरत ने उन्हें उपास का ध्ययन आदि का उपदेश देकर अर्हत् पूजा आदि उनके नित्य कर्म व कर्त्तव्य बताये ।24-25 । पूजा, वार्ता, दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप इन छह प्रकार की विशुद्ध वृत्ति के कारण ही उनको द्विज संज्ञा दी । और उन्हें उत्तम समझा गया ।42-44 । (विशेष देखें [[ ब्राह्मण ]]) । उनको गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्न्नान्वय इन तीन प्रकार की क्रियाओं का भी उपदेश दिया ।-(विशेष देखें [[ संस्कार ]]) ।50। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/40/221 </span><span class="SanskritGatha"> इत्थं स धर्मविजयी भरताधिराजो, धर्मक्रियासु कृतधीर्नृपलोकसाक्षि । तान् सव्रतान् द्विजवरान् विनियम्य सम्यक् धर्मप्रियः समसृजत् द्विजलोकसर्गम् ।221। </span>=<span class="HindiText"> इस प्रकार जिसने धर्म के द्वारा विजय प्राप्त की है, जो धार्मिक क्रियाओं में निपुण हैं और जिसे धर्म प्रिय है, ऐसे भरत क्षेत्र के अधिपति महाराज भरत ने राजा लोगों की साक्षीपूर्वक अच्छे-अच्छे व्रत धारण करने वाले उन उत्तम द्विजों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण वर्ण की सृष्टि व स्थापना की/221 । <br /> | <span class="GRef"> महापुराण/40/221 </span><span class="SanskritGatha"> इत्थं स धर्मविजयी भरताधिराजो, धर्मक्रियासु कृतधीर्नृपलोकसाक्षि । तान् सव्रतान् द्विजवरान् विनियम्य सम्यक् धर्मप्रियः समसृजत् द्विजलोकसर्गम् ।221। </span>=<span class="HindiText"> इस प्रकार जिसने धर्म के द्वारा विजय प्राप्त की है, जो धार्मिक क्रियाओं में निपुण हैं और जिसे धर्म प्रिय है, ऐसे भरत क्षेत्र के अधिपति महाराज भरत ने राजा लोगों की साक्षीपूर्वक अच्छे-अच्छे व्रत धारण करने वाले उन उत्तम द्विजों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण वर्ण की सृष्टि व स्थापना की/221 । <br /> | ||
Line 49: | Line 25: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> वर्णों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए भगवान् ॠषभदेव ने ये नियम बनाये कि शूद्र केवल शूद्र कन्या के साथ विवाह करे, वैश्य वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ, क्षत्रिय क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ तथा ब्राह्मण चारों वर्णों की कन्याओं के साथ विवाह करे (अर्थात् स्ववर्ण अथवा अपने नीचे वाले वर्णों की कन्या को ही ग्रहण करे, ऊपर वाले वर्णों की नहीं ।247। </span></li> | <li><span class="HindiText"> वर्णों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए भगवान् ॠषभदेव ने ये नियम बनाये कि शूद्र केवल शूद्र कन्या के साथ विवाह करे, वैश्य वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ, क्षत्रिय क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ तथा ब्राह्मण चारों वर्णों की कन्याओं के साथ विवाह करे (अर्थात् स्ववर्ण अथवा अपने नीचे वाले वर्णों की कन्या को ही ग्रहण करे, ऊपर वाले वर्णों की नहीं ।247। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> चारों ही वर्ण अपनी-अपनी निश्चित आजीविका करें । अपनी आजीविका | <li><span class="HindiText"> चारों ही वर्ण अपनी-अपनी निश्चित आजीविका करें । अपनी आजीविका छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका करने वाला राजा के द्वारा दंडित किया जायेगा ।248। (<span class="GRef"> महापुराण/16/187 </span>) । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 62: | Line 38: | ||
<span class="GRef"> महापुराण/74/491-495 </span><span class="SanskritGatha"> वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रदर्शनात् ।491। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ।492। जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिता ः ।493। अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः । तद्धेतुनामगोत्राढयजीवाविच्छन्नसंभवात् ।494। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः । एवं वर्ण विभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ।495।</span> = | <span class="GRef"> महापुराण/74/491-495 </span><span class="SanskritGatha"> वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रदर्शनात् ।491। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ।492। जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिता ः ।493। अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः । तद्धेतुनामगोत्राढयजीवाविच्छन्नसंभवात् ।494। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः । एवं वर्ण विभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ।495।</span> = | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> मनुष्यों के शरीरों में न तो कोई आकृति का भेद है और न ही गाय और | <li class="HindiText"> मनुष्यों के शरीरों में न तो कोई आकृति का भेद है और न ही गाय और घोड़े के समान उनमें कोई जाति भेद है, क्योंकि ब्राह्मणी आदि में शूद्र आदि के द्वारा गर्भ धारण किया जाना देखा जाता है । आकृतिका भेद न होने से भी उनमें जाति भेद की कल्पना करना अन्यथा है ।491-492 । जिनकी जाति तथा कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं वे त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य) कहलाते हैं और बाकी शूद्र कह जाते हैं । (परंतु यहाँ केवल जाति को ही शुक्लध्यान को कारण मानना योग्य नहीं है - देखें [[ वर्णव्यवस्था#2.3 | वर्णव्यवस्था - 2.3]]) ।493। (और भे देखें [[ वर्णव्यवस्था#1.4 | वर्णव्यवस्था - 1.4]]) । </li> | ||
<li><span class="HindiText"> विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती रहती है ।494। किंतु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थ काल में ही जाति की परंपरा चलती है, अन्य कालों में नहीं । जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है ।495। - देखें [[ वर्णव्यवस्था#2.2 | वर्णव्यवस्था - 2.2 ]]। </span><br /> | <li><span class="HindiText"> विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती रहती है ।494। किंतु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थ काल में ही जाति की परंपरा चलती है, अन्य कालों में नहीं । जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है ।495। - देखें [[ वर्णव्यवस्था#2.2 | वर्णव्यवस्था - 2.2 ]]। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/13/9 </span><span class="PrakritText">उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ।13।</span> =<span class="HindiText"> जहाँ ऊँचा आचरण होता है वहाँ उच्चगोत्र और जहाँ नीचा आचरण होता है वहाँ नीचगोत्र होता है । <br /> | <span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड/13/9 </span><span class="PrakritText">उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ।13।</span> =<span class="HindiText"> जहाँ ऊँचा आचरण होता है वहाँ उच्चगोत्र और जहाँ नीचा आचरण होता है वहाँ नीचगोत्र होता है । <br /> | ||
Line 83: | Line 59: | ||
देखें [[ वर्णव्यवस्था#1.10 | वर्णव्यवस्था - 1.10 ]](उच्चगोत्री जीव नीचगोत्री के शरीर की और नीचगोत्री जीव उच्चगोत्री के शरीर की विक्रिया करें तो उनके गोत्र भी उतने समय के लिए बदल जाते हैं । अथवा उच्चगोत्र उसी भव में बदलकर नीचगोत्र हो जाये और पुनः बदलकर उच्चगोत्र हो जाये, यह भी संभव है ।) <br /> | देखें [[ वर्णव्यवस्था#1.10 | वर्णव्यवस्था - 1.10 ]](उच्चगोत्री जीव नीचगोत्री के शरीर की और नीचगोत्री जीव उच्चगोत्री के शरीर की विक्रिया करें तो उनके गोत्र भी उतने समय के लिए बदल जाते हैं । अथवा उच्चगोत्र उसी भव में बदलकर नीचगोत्र हो जाये और पुनः बदलकर उच्चगोत्र हो जाये, यह भी संभव है ।) <br /> | ||
देखें [[ यज्ञोपवीत#2 | यज्ञोपवीत - 2 ]](किसी के कुल में किसी कारणवश दोष लग जाने पर वह राजाज्ञा से शुद्ध हो सकता है । किंतु दीक्षा के अयोग्य अर्थात् नाचना-गाना आदि कार्य करने वालों को यज्ञोपवीत नहीं दिया जा सकता । यदि वे अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण कर लें तो यज्ञोपवीत धारण के योग्य हो जाते हैं ।) <br /> | देखें [[ यज्ञोपवीत#2 | यज्ञोपवीत - 2 ]](किसी के कुल में किसी कारणवश दोष लग जाने पर वह राजाज्ञा से शुद्ध हो सकता है । किंतु दीक्षा के अयोग्य अर्थात् नाचना-गाना आदि कार्य करने वालों को यज्ञोपवीत नहीं दिया जा सकता । यदि वे अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण कर लें तो यज्ञोपवीत धारण के योग्य हो जाते हैं ।) <br /> | ||
धर्म परीक्षा/17/28-31 (बहुत काल बीत जाने पर शुद्ध शीलादि सदाचार छूट जाते हैं और जातिच्युत होते देखिये है ।28। जिन्होंने शील संयमादि | धर्म परीक्षा/17/28-31 (बहुत काल बीत जाने पर शुद्ध शीलादि सदाचार छूट जाते हैं और जातिच्युत होते देखिये है ।28। जिन्होंने शील संयमादि छोड़ दिये ऐसे कुलीन भी नरक में गये है ।31।) <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> कथंचित् जन्म की प्रधानता </strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> कथंचित् जन्म की प्रधानता </strong><br /> | ||
देखें [[ वर्णव्यवस्था#1.3 | वर्णव्यवस्था - 1.3 ]]- (उच्चगोत्र के उदय से उच्च व पुज्य कुलों में जन्म होता है और नीच गोत्र के उदय से गर्हित कुलों में ।) <br /> | देखें [[ वर्णव्यवस्था#1.3 | वर्णव्यवस्था - 1.3 ]]- (उच्चगोत्र के उदय से उच्च व पुज्य कुलों में जन्म होता है और नीच गोत्र के उदय से गर्हित कुलों में ।) <br /> | ||
देखें [[ प्रव्रज्या#1.2 | प्रव्रज्या - 1.2 ]](ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन कुलों में उत्पन्न हुए व्यक्ति ही प्रायः प्रव्रज्या के योग्य समझे जाते हैं ।) <br /> | देखें [[ प्रव्रज्या#1.2 | प्रव्रज्या - 1.2 ]](ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन कुलों में उत्पन्न हुए व्यक्ति ही प्रायः प्रव्रज्या के योग्य समझे जाते हैं ।) <br /> | ||
देखें [[ वर्णव्यवस्था#2.4 | वर्णव्यवस्था - 2.4 ]](वर्णसांकर्य की रक्षा के लिए प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति अपने वर्ण की अथवा अपने नीचे के वर्ण की ही कन्या के साथ विवाह करे, ऊपर के वर्ण की कन्या के साथ नहीं और न ही अपने वर्ण की आजीविका को | देखें [[ वर्णव्यवस्था#2.4 | वर्णव्यवस्था - 2.4 ]](वर्णसांकर्य की रक्षा के लिए प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति अपने वर्ण की अथवा अपने नीचे के वर्ण की ही कन्या के साथ विवाह करे, ऊपर के वर्ण की कन्या के साथ नहीं और न ही अपने वर्ण की आजीविका को छोड़कर अन्य के वर्ण की आजीविका करे ।) <br /> | ||
देखें [[ वर्णव्यवस्था#4.1 | वर्णव्यवस्था - 4.1 ]](शूद्र भी दो प्रकार के हैं सत् शूद्र और असत् शूद्र । तिनमें सत् शूद्र स्पृश्य है और असत् शूद्र अस्पृश्य है । सत् शूद्र कदाचित् प्रव्रज्या के योग्य होते हैं, पर असत् शूद्र कभी भी प्रव्रज्या के योग्य नहीं होते ।) <br /> | देखें [[ वर्णव्यवस्था#4.1 | वर्णव्यवस्था - 4.1 ]](शूद्र भी दो प्रकार के हैं सत् शूद्र और असत् शूद्र । तिनमें सत् शूद्र स्पृश्य है और असत् शूद्र अस्पृश्य है । सत् शूद्र कदाचित् प्रव्रज्या के योग्य होते हैं, पर असत् शूद्र कभी भी प्रव्रज्या के योग्य नहीं होते ।) <br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/3/97/15 </span>क्षत्रियादिकनिकै (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन वर्ण वालों के) उच्चगोत्र का भी उदय होता है । <br /> | <span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/3/97/15 </span>क्षत्रियादिकनिकै (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन वर्ण वालों के) उच्चगोत्र का भी उदय होता है । <br /> |
Revision as of 12:33, 1 January 2021
- वर्णव्यवस्था निर्देश
- वर्णव्यवस्था की स्थापना इतिहास
तिलोयपण्णत्ति/4/1618 चक्कधराउ दिजाणं हवेदि वंसस्स उप्पत्ती ।1618। = हुंडावसर्पिणीकाल में चक्रवर्ती से की गयी द्विजों के वर्ण की उत्पत्ति भी होती है ।
पद्मपुराण/4/91-122 का भावार्थ - भगवान् ॠषभदेव का समवशरण आया जान भरत चक्रवर्ती ने संघ के मुनियों के उद्देश्य से उत्तम-उत्तम भोजन बनवाये और नौकरों के सिरपर रखवाकर भगवान् के पास पहुँचा । परंतु भगवान् ने उद्दिष्ट होने के कारण उस भोजन को स्वीकार न किया ।91-97 । तब भरत ने अन्य भी आवश्यक सामग्री के साथ उस भोजन को दान देने के द्वारा व्रती श्रावकों का सम्मान करने के अर्थ उन्हें अपने यहाँ निमंत्रित किया ।98-103 । क्योंकि आने वालों में सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि सभी थे इसलिए भरत चक्रवर्ती ने अपने भवन के आँगन में जौ, धान, मूँग, उड़द आदि के अंकुर बोकर उन सब की परीक्षा की और सम्यग्दृष्टि पुरुषों की छाँट कर ली ।104-110 । भरत का सम्मान पाकर उन्हें अभिमान जागृत हो गया और अपने को महान् समझकर समस्त पृथिवी तल पर याचना करते हुए विचरण करने लगे ।111-114 । अपने मंत्री के मुख से उनके आगामी भ्रष्टाचार की संभावना सुन चक्रवर्ती उन्हें मारने के लिए उद्यत हुआ, परंतु वे सब भगवान् ॠषभदेव की शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे । और भगवान् ने भरत को उनका बध करने से रोक दिया ।115-122 ।
हरिवंशपुराण/9/33-39 का भावार्थ - कल्पवृक्षों के लोप के कारण भगवान् ॠषभदेव ने प्रजा को असि मसि आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया ।33-36 । उसे सीखकर शिल्पीजनों ने नगर ग्राम आदि की रचना की ।37-38 । उसी समय क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए । विनाश से जीवों की रक्षा करने के कारण क्षत्रिय, वाणिज्य व्यापार के योग से वैश्य और शिल्प आदि के संबंध से शूद्र कहलाये ।39। ( महापुराण/16/179-183 ) ।
महापुराण/16/184-187 का भावार्थ - उनमें भी शूद्र दो प्रकार के हो गये - कारू और अकारू (विशेष देखें वर्णव्यवस्था - 4) । ये सभी वर्णों के लोग अपनी-अपनी निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका नहीं करते थे ।184-187 ।
महापुराण/38/5-50 का भावार्थ - दिग्विजय करने के पश्चात् भरत चक्रवर्ती को परोपकार में अपना धन लगाने की बुद्धि उपजी ।5। तब महामह यज्ञ का अनुष्ठान किया ।6। सद्व्रती गृहस्थों की परीक्षा करने के लिए समस्त राजाओं को अपने-अपने परिवार व परिकर सहित उस उत्सव में निमंत्रित किया ।7-10 । उनके विवेक की परीक्षा के अर्थ अपने घर के आँगन में अंकुर फल व पुष्प भरवा दिये ।11। जो लोग बिना सोचे समझे उन अंकुरों को कुचलते हुए राजमंदिर में घुस आये उनको पृथक् कर दिया गया ।12। परंतु जो लोग अंकुरों आदि पर पाँव रखने के भय से अपने घरों को वापस लौटने लगे, उनको दूसरे मार्ग से आँगन में प्रवेश कराके चक्रवर्ती ने बहुत सम्मानित किया ।13-20 । उनको उन-उनके व्रतों व प्रतिमाओं के अनुसार यज्ञ पवीत से चिह्नित किया ।21-22 । (विशेष देखें यज्ञोपवीत ) । भरत ने उन्हें उपास का ध्ययन आदि का उपदेश देकर अर्हत् पूजा आदि उनके नित्य कर्म व कर्त्तव्य बताये ।24-25 । पूजा, वार्ता, दत्ति (दान), स्वाध्याय, संयम और तप इन छह प्रकार की विशुद्ध वृत्ति के कारण ही उनको द्विज संज्ञा दी । और उन्हें उत्तम समझा गया ।42-44 । (विशेष देखें ब्राह्मण ) । उनको गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्न्नान्वय इन तीन प्रकार की क्रियाओं का भी उपदेश दिया ।-(विशेष देखें संस्कार ) ।50।
महापुराण/40/221 इत्थं स धर्मविजयी भरताधिराजो, धर्मक्रियासु कृतधीर्नृपलोकसाक्षि । तान् सव्रतान् द्विजवरान् विनियम्य सम्यक् धर्मप्रियः समसृजत् द्विजलोकसर्गम् ।221। = इस प्रकार जिसने धर्म के द्वारा विजय प्राप्त की है, जो धार्मिक क्रियाओं में निपुण हैं और जिसे धर्म प्रिय है, ऐसे भरत क्षेत्र के अधिपति महाराज भरत ने राजा लोगों की साक्षीपूर्वक अच्छे-अच्छे व्रत धारण करने वाले उन उत्तम द्विजों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण वर्ण की सृष्टि व स्थापना की/221 ।
- जैनाम्नाय में चारों वणौं का स्वीकार
तिलोयपण्णत्ति/4/2250 बहुविहवियप्पजुत्त खत्तियवइसाण तह य सुद्दाणुं । वंसा हवंति कच्छे तिण्णि च्चिय तत्थ ण हु अण्णे ।2250। = विदेह क्षेत्र के कच्छा देश में बहुत प्रकार के भेदों से युक्त क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के तीन ही वंश हैं, अन्य (ब्राह्मण) वंश नहीं है ।2250। (ज.ष./7/59); (देखें वर्णव्यवस्था - 3.1) ।
देखें वर्णव्यवस्था - 2.1 । (भरत क्षेत्र में इस हुंडावसर्पिणी काल में भगवान् ॠषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की थी । पीछे भरत चक्रवर्ती ने एक ब्राह्मण वर्ण की स्थापना और कर दी ।)
देखें श्रेणी - 1 । (चक्रवर्ती की सेना में 18 श्रेणियाँ होती हैं, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन चार श्रेणियों का भी निर्देश किया गया है) ।
धवला 1/1, 1, 1/ गा.61/65 गोत्तेण गोदमो विप्पो चाउव्वेइयसडंगवि । णामेण इदभूदि त्ति सीलवं बम्हणुत्तमो ।61।’’ = गौतम गोत्री, विप्रवर्णी, चारों वेद और षडंगविद्या का पारगामी, शीलवान् और ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ऐसा वर्द्धमानस्वामी का प्रथम गणधर ‘इंद्रभूमि’ इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ।61।
महापुराण/38/45-46 मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिताद्भेदाच्चातुर्विध्यमिहाश्नुते ।45। ब्राह्मणा व्रतसं-स्कारात्, क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।46। = यद्यपि जाति नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविका के भेद से होने वाले भेद के कारण वह चार प्रकार की हो गयी है ।45। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और नीच वृत्तिका आश्रय लेने से मनुष्य शूद्र कहलाते हैं ।46। ( हरिवंशपुराण/9/39 ); ( महापुराण/16/184 ) ।
- केवल उच्च जाति मुक्ति का कारण नहीं है
समाधिशतक/ मू.व.टी./89 जातिलिंंगविकल्पेन येषां च समयाग्रहः । तेऽपि न प्राप्नुवंत्येव परमं पदमात्मनः ।89। जातिलिंंगरूपविकल्पोभेदस्तेन येषां शैवादीनां समयाग्रहः आगमानुबंधः उत्तमजाति-विशिष्टं हि लिंंग मुक्तिहेतुरित्यागमे प्रतिपादितमतस्तावन्मात्रेणैव मुक्तिरित्येवंरूपो येषामागमाभिनिवेशः तेऽपि न प्राप्नुवंत्येव परमं पदमात्मनः । = जिन शैवादिकों का ऐसा आग्रह है कि ‘अमुक जातिवाला अमुक वेष धारण करे तभी मुक्ति की प्राप्ति होती है’ ऐसा आगम में कहा है, वे भी मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकते, क्योंकि जाति और लिंग दोनों ही जब देहाश्रित हैं और देह ही आत्मा का संसार है, तब संसार का आग्रह रखने वाले उससे कैसे छूट सकते हैं ।
- वर्णसांकर्य के प्रति रोकथाम
महापुराण/16/247-248 शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या तां स्वां च नैगमः । वहेत् स्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्कचिच्च ताः ।247। स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत् । स पार्थिवैर्नियंतव्यो वर्णसंकीर्णिरन्यथा ।248। =- वर्णों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए भगवान् ॠषभदेव ने ये नियम बनाये कि शूद्र केवल शूद्र कन्या के साथ विवाह करे, वैश्य वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ, क्षत्रिय क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र कन्याओं के साथ तथा ब्राह्मण चारों वर्णों की कन्याओं के साथ विवाह करे (अर्थात् स्ववर्ण अथवा अपने नीचे वाले वर्णों की कन्या को ही ग्रहण करे, ऊपर वाले वर्णों की नहीं ।247।
- चारों ही वर्ण अपनी-अपनी निश्चित आजीविका करें । अपनी आजीविका छोड़कर अन्य वर्ण की आजीविका करने वाला राजा के द्वारा दंडित किया जायेगा ।248। ( महापुराण/16/187 ) ।
- वर्णव्यवस्था की स्थापना इतिहास
- उच्चता व नीचता में गुणकर्म व जन्म की कथंचित् प्रधानता व गौणता
- कथंचित् गुणकर्म की प्रधानता
कुरल/98/3 कुलीनोऽपि कदाचारात् कुलीनो नैव जायते । निम्नजोऽपि सदाचारान् न निम्नः प्रतिभासते ।3। = उत्तम कुल में उत्पन्न होने पर भी यदि कोई सच्चरित्र नहीं है तो वह उच्च नहीं हो सकता और हीन वंश में जन्म लेने मात्र से कोई पवित्र आचार वाला नीच नहीं हो सकता ।3 ।
महापुराण/74/491-495 वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यैर्गर्भाधानप्रदर्शनात् ।491। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां गवाश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते ।492। जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युस्त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिता ः ।493। अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः । तद्धेतुनामगोत्राढयजीवाविच्छन्नसंभवात् ।494। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः । एवं वर्ण विभागः स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ।495। =- मनुष्यों के शरीरों में न तो कोई आकृति का भेद है और न ही गाय और घोड़े के समान उनमें कोई जाति भेद है, क्योंकि ब्राह्मणी आदि में शूद्र आदि के द्वारा गर्भ धारण किया जाना देखा जाता है । आकृतिका भेद न होने से भी उनमें जाति भेद की कल्पना करना अन्यथा है ।491-492 । जिनकी जाति तथा कर्म शुक्लध्यान के कारण हैं वे त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य) कहलाते हैं और बाकी शूद्र कह जाते हैं । (परंतु यहाँ केवल जाति को ही शुक्लध्यान को कारण मानना योग्य नहीं है - देखें वर्णव्यवस्था - 2.3) ।493। (और भे देखें वर्णव्यवस्था - 1.4) ।
- विदेहक्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती रहती है ।494। किंतु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थ काल में ही जाति की परंपरा चलती है, अन्य कालों में नहीं । जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है ।495। - देखें वर्णव्यवस्था - 2.2 ।
गोम्मटसार कर्मकांड/13/9 उच्चं णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ।13। = जहाँ ऊँचा आचरण होता है वहाँ उच्चगोत्र और जहाँ नीचा आचरण होता है वहाँ नीचगोत्र होता है ।
देखें ब्राह्मण /3 - (ज्ञान, संयम, तप आदि गुणों को धारण करने से ही ब्राह्मण है, केवल जन्म से नहीं ।)
देखें वर्णव्यवस्था - 2.2 (ज्ञान, रक्षा, व्यवसाय व सेवा इन चार कर्मों के कारण ही इन चार वर्णों का विभाग किया गया है) ।
सागार धर्मामृत/7/20 ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्च सप्तमे । चत्वारोऽगे क्रियाभेदादुक्ता वर्णवदाश्रमाः ।20। = जिस प्रकार स्वाध्याय व रक्षा आदि के भेद से ब्राह्मण आदि चार वर्ण होते हैं, उसी प्रकार धर्म क्रियाओं के भेद से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास ये चार आश्रम होते हैं । ऐसा सातवें अंग में कहा गया है । (और भी - देखें आश्रम ) ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/3/89/9 कुल की अपेक्षा आपको ऊँचा नीचा मानना भ्रम है । ऊँचा कुल का कोई निंद्य कार्य करै तो वह नीचा होइ जाय । अर नीच कुलविषै कोई श्लाघ्य कार्य करै तो वह ऊँचा होइ जाय ।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/6/258/2 कुल की उच्चता तो धर्म साधनतैं है । जो उच्चकुलविषै उपजि हीन आचरन करै, तौ वाकौ उच्च कैसे मानिये ।.....धर्म पद्धतिविषै कुल अपेक्षा महंतपना नाहीं संभवै है ।
- गुणवान् नीच भी ऊँच है
देखें सम्यग्दर्शन - I.5 (सम्यग्दर्शन से संपन्न मातंग देहज भी देव तुल्य है । मिथ्यात्व युक्त मनुष्य भी पशु के तुल्य है और सम्यक्त्व सहित पशु भी मनुष्य के तुल्य है ।)
नीतिवाक्यामृत/12 आचारमनवद्यत्वं शुचिरुपकरः शरीरी च विशुद्धिः । करोति शूद्रमपि देवद्विजतपस्विपरिकर्मयोग्यम् । = अनवद्य चारित्र तथा शरीर व वस्त्रादि उपकरणों की शुद्धि से शूद्र भी देवों द्विजों व तपस्वियों की सेवाका (तथा धर्मश्रवण का) पात्र बन जाता है । ( सागार धर्मामृत/2/22 ) ।
देखें प्रव्रज्या - 1.2 - (म्लेच्छ व सत् शूद्र भी कदाचित् मुनि व क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं ।) (विशेष देखें वर्णव्यवस्था - 4.2) ।
देखें वर्णव्यवस्था - 1.8 (संयमासंयम का धारक तिर्यंच भी उच्चगोत्री समझा जाता है)
- उच्च व नीच जाति में परिवर्तन
धवला 15/288/2 अजसकित्ति-दुभग-अणादेज्जं को वेदओ । अगुणपडिवण्णो अण्णदरो तप्पाओगो । तित्थयरणामाए को वेदओ । सजोगो अजोगो वा । उच्चागोदस्स तित्थयरभंगो । णीचागोदस्स अणादेज्जभंगो । = अयशःकीर्ति, दुर्भग और अनादेय का वेदक कौन होता है? उनका वेदक गुणप्रतिपन्न से भिन्न तत्प्रायोग्य अन्यतर जीव होता है । तीर्थंकर नामकर्म का वेदक कौन होता है? उसका वेदक सयोग (केवली) और अयोग (केवली) जीव भी होता है । उच्चगोत्र के उदय का कथन तीर्थंकर प्रकृति के समान है और नीचगोत्र के उदय का कथन अनादेय के समान है । (अर्थात् गुणप्रतिपन्न से भिन्न जीव नीचगोत्र का वेदक होता है गुणप्रतिपन्न नहीं । जैसे कि तिर्यंच - देखें वर्णव्यवस्था - 3.2 ।
देखें वर्णव्यवस्था - 1.10 (उच्चगोत्री जीव नीचगोत्री के शरीर की और नीचगोत्री जीव उच्चगोत्री के शरीर की विक्रिया करें तो उनके गोत्र भी उतने समय के लिए बदल जाते हैं । अथवा उच्चगोत्र उसी भव में बदलकर नीचगोत्र हो जाये और पुनः बदलकर उच्चगोत्र हो जाये, यह भी संभव है ।)
देखें यज्ञोपवीत - 2 (किसी के कुल में किसी कारणवश दोष लग जाने पर वह राजाज्ञा से शुद्ध हो सकता है । किंतु दीक्षा के अयोग्य अर्थात् नाचना-गाना आदि कार्य करने वालों को यज्ञोपवीत नहीं दिया जा सकता । यदि वे अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण कर लें तो यज्ञोपवीत धारण के योग्य हो जाते हैं ।)
धर्म परीक्षा/17/28-31 (बहुत काल बीत जाने पर शुद्ध शीलादि सदाचार छूट जाते हैं और जातिच्युत होते देखिये है ।28। जिन्होंने शील संयमादि छोड़ दिये ऐसे कुलीन भी नरक में गये है ।31।)
- कथंचित् जन्म की प्रधानता
देखें वर्णव्यवस्था - 1.3 - (उच्चगोत्र के उदय से उच्च व पुज्य कुलों में जन्म होता है और नीच गोत्र के उदय से गर्हित कुलों में ।)
देखें प्रव्रज्या - 1.2 (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन कुलों में उत्पन्न हुए व्यक्ति ही प्रायः प्रव्रज्या के योग्य समझे जाते हैं ।)
देखें वर्णव्यवस्था - 2.4 (वर्णसांकर्य की रक्षा के लिए प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति अपने वर्ण की अथवा अपने नीचे के वर्ण की ही कन्या के साथ विवाह करे, ऊपर के वर्ण की कन्या के साथ नहीं और न ही अपने वर्ण की आजीविका को छोड़कर अन्य के वर्ण की आजीविका करे ।)
देखें वर्णव्यवस्था - 4.1 (शूद्र भी दो प्रकार के हैं सत् शूद्र और असत् शूद्र । तिनमें सत् शूद्र स्पृश्य है और असत् शूद्र अस्पृश्य है । सत् शूद्र कदाचित् प्रव्रज्या के योग्य होते हैं, पर असत् शूद्र कभी भी प्रव्रज्या के योग्य नहीं होते ।)
मोक्षमार्ग प्रकाशक/3/97/15 क्षत्रियादिकनिकै (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य इन तीन वर्ण वालों के) उच्चगोत्र का भी उदय होता है ।
देखें यज्ञोपवीत - 2 (गाना-नाचना आदि नीच कार्य करने वाले सत् शूद्र भी यज्ञोपवीत धारण करने योग्य नहीं हैं) ।
- गुण व जन्म की अपेक्षाओं का समन्वय
देखें वर्णव्यवस्था - 1.3 (यथा योग्य ऊँच व नीच कुलों में उत्पन्न करना भी गोत्रकर्म का कार्य है और आचार ध्यान आदि की योग्यता प्रदान करना भी ।)
- निश्चय से ऊँच नीच भेद को स्थान नहीं
परमात्मप्रकाश/ मू./2/107 एक्कु करे मण विण्णि करि मं करि वण्ण-विसेसु । इक्कइँ देवइँ जें वसइ तिहुयणु एहु असेसु ।107। = हे आत्मन् ! तू जाति की अपेक्षा सब जीवों को एक जान, इसलिए राग और द्वेष मत कर । मनुष्य जाति की अपेक्षा ब्राह्मणादि वर्णभेद को भी मत कर, क्योंकि अभेद नय से शुद्धात्मा के समान ये सब तीन लोक में रहने वाली जीव राशि ठहरायी हुई है । अर्थात् जीवपने से सब एक हैं ।
- कथंचित् गुणकर्म की प्रधानता
- शूद्र निर्देश
- शूद्र के भेद व लक्षण
महापुराण/38/46 शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ।46।
महापुराण/16/185-186 तेषां शुश्रषणाच्छूद्रास्ते द्विधा कार्वकारवः । कारवो रजकाद्याः स्युः ततोऽन्ये स्युरकारवः ।185। कारवोऽपि मता द्वेधास्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः ।तत्रास्पृश्याः प्रजाबाह्याः स्पृश्याः स्युः कर्त्तकादयः ।186। = नीच वृत्तिका आश्रय करने से शूद्र होता है ।45। जो उनकी (ब्राह्मणादि तीन वर्णों की) सेवा शुश्रूषा करते थे वे शूद्र कहलाते थे । वे शूद्र दो प्रकार के थे - कारु और अकारु । धोबी आदि शूद्र कारु कहलाते थे और उनसे भिन्न अकारु कहलाते थे । कारु शूद्र भी स्पृश्य तथा अस्पृश्य के भेद से दो प्रकार के माने गये हैं । उनमें जो प्रजा से बाहर रहते हैं उन्हें अस्पृश्य और नाई वगैरह को स्पृश्य कहते हैं ।186। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/8/418/21 ) ।
प्रायश्चित्त चूलिका/गा.154 व उसकी टीका-.....‘‘कारिणो द्विविधाः सिद्धाः भोज्याभोज्यप्रभेदतः । यदन्नपानं ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्रा भुंजंते भोज्याः । अभोज्या तद्विपरीतलक्षणाः ।’’ = कारु शूद्र दो प्रकार के होते हैं - भोज्य व अभोज्य । जिनके हाथ का अन्नपान ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र खाते हैं, उन्हें भोज्य कारु कहते हैं और इनसे विपरीत अभोज्य कारु जानने चाहिए ।
- स्पृश्य शूद्र ही क्षुल्लक दीक्षा के योग्य हैं
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/225/ प्रक्षेपक 10 की टीका/306/2 यथोयोग्यं सच्छूद्राद्यपि । = सत् शूद्र भी यथायोग्य दीक्षा के योग्य होते हैं (अर्थात् क्षुल्लक दीक्षा के योग्य होते हैं) ।
प्रायश्चित्त चूलिका/मूल व टीका/154 भोज्येष्वेव प्रदातव्यं सर्वदा क्षुल्लकव्रतम् ।154। भोज्येष्वेव प्रदातव्या क्षुल्लकदीक्षा नापरेषु ।टीका । = कारु शूद्रों में भी केवल भोज्य या स्पृश्य शूद्रों को ही क्षुल्लक दीक्षा दी जाने योग्य है, अन्य को नहीं ।
- शूद्र के भेद व लक्षण