वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 10
From जैनकोष
सम्मत्तचरण भट्ठा संजमचरणं चरंति जे वि ण रा ।
अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं ।।10।।
(38) सम्यक्त्वाचरण से भ्रष्ट जीवों की निर्वाणप्राप्ति की अयोग्यता―जो पुरुष सम्यक्त्वाचरण से भ्रष्ट हैं वे संयमाचरण भी करें तो भी वे अज्ञानी है, मूढ़-दृष्टि हैं और वे निर्माण के प्राप्त नहीं हो सकते । जैसे कोई पुरुष इष्ट ग्राम को जाना चाहता है तो उसे पहले मार्ग का श्रद्धान होना चाहिए कि यह रास्ता गया है और उस मार्ग का कुछ परिचय भी होना चाहिए । तो परिचय होना और उस मार्ग की ओर अपना चित्त अभिमुख होना, उसकी ओर जाने की तैयारी का पूर्ण इरादा हो जाना यह तो एक सम्यक्त्वाचरण की तरह है और फिर मार्ग पर चल देना यह संयमाचरण की तरह है । चलते-चलते वह इष्ट स्थानपर पहुंच जाता है, ऐसे ही संयमाचरण से चलते-चलते, आत्मा का विकास करते-करते परमात्मपद तक पहुंच जाता है । तो मूल सम्यक्त्वाचरण रहा जिसको रास्ते का श्रद्धान नहीं, ज्ञान नहीं वह रास्ता चल ही कैसे सकेगा? तो इसी तरह जिसको सम्यक्त्वाचरण नहीं वह संयमाचरण नहीं कर सकता और कदाचित् देखादेखी बाह्य संयमाचरण करे तो कहीं मन, वचन, काय की चेष्टाओं से कर्म की निर्जरा नहीं होती । कर्म की निर्जरा होती है आत्मस्वरूप के श्रद्धान, ज्ञान और आचरण से । तो सम्यक्त्वाचरण सहित संयम चारित्र ही निर्वाण का कारण है अतएव सम्यक्त्व प्रधान है । सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान ही सम्यक् कहलाता है और चारित्र भी सम्यक् कहलाता है । सम्यक्त्व के बिना चारित्र में भी मिथ्यापन कहलाता है । ऐसे परम उपकारी सम्यक्त्वाचरण की वृत्ति होना यह ज्ञानियों का प्रथम कर्तव्य है ।