ज्ञानार्णव - श्लोक 1328: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
नासाग्रदेशविन्यस्ते धत्ते नेत्रेऽतिनिश्चले।
प्रसन्ने सौम्यतापन्ने निष्पंदे मंदतारके।।1328।।
ध्यानार्थी पुरुष मुख को इस प्रकार करें कि भौहें तो विकाररहित हों, शांत मुद्रा में रहें। जब कभी किसी को गुस्सा आती है तो लगता हे कि भौहें कुछ चढ़ी सी दिखती हैं और जो शांत रहता है उसकी भौहें गिरी हुई होती हैं। तो ध्यान में प्रथम बात तो यह चाहिए कि भौहें विकाररहित हों, दूसरी बात― जो मुख के ओंठ हैं ये न बहुत खुले हों और न बहुत मिले हों। जैसे जब किसी को गुस्सा आता है तो ओंठ परस्पर में बहुत तेज भिड़ते हैं, ऐसी मुद्रा ध्यान के योग्य नहीं है और मुख खुला भी नहीं रहता। केवल ओंठों से यह विदित होता है कि कुछ खुला मुख है। तो ओंठ न बहुत खुले हों और न ज्यादा मिले ही हों। और सोते हुए मच्छ के हृदय की तरह जिनका मुख कमल हो, धीर हो, गंभीर हो, शांत हो, ऐसी मुद्रा ध्यान के योगय कही गई है।