ज्ञानार्णव - श्लोक 383: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
रत्नत्रयमनासाद्य य: साक्षाद्ध्यातुमिच्छति ।खपुष्पै: कुरुते मूढ़: स बंध्यासतशेखरम् ॥383॥
रत्नत्रय की प्राप्ति बिना उत्तमध्यान की असंभवता – जो पुरुष साक्षात् रत्नत्रय को न पाकर ध्यान करने की इच्छा करता है अर्थात् आत्मध्यान, आत्मसिद्धि, विशुद्ध आत्मलाभ की इच्छा करता है वह मूढ़ पुरुष मानो आकाश के फूलों को बंध्यास्त्री के पुत्र के सिर पर रखने के लिए सेहरा बनाता है । अर्थात् जैसे न तो कोई बंध्या का पुत्र है, जिसमें पुत्र होने की शक्ति ही न थी ऐसी बंध्या के पुत्र की बात कही जा रही है, वह तो अभावरूप है और फिर उसके लिए सेहरा बनाया जाय आकाश के फूलों का । आकाश के फूल भी अभावरूप हैं अर्थात् यह बात तथ्यहीन है कि रत्नत्रय को छोड़कर कोई ध्यान करे और वह आत्मलाभ पाये । रत्नत्रय से ही परम ध्यान बनता है और उससे आत्मलाभ होता है । यों कहिये कि रत्नत्रय ध्यान और मुक्ति का साधनभूत है, रत्नत्रय के पाये बिना उत्तमध्यान व मोक्ष हो ही नहीं सकता । हम अपने आपका सही निर्णय बनायें तब हमारी प्रगति शांतिप्राप्ति के काम में चल सकती है । जिसे शांति देना है उसका ही पता नहीं और क्या देना उसका भी पता नहीं, जिसका कुछ निर्णय ही नहीं उसके लिए ध्यान क्या ? जैसे कोई बालक किसी को देखकर हँसे, उसे हँसता देखकर दूसरा हँसे, दूसरे का हँसना देखकर तीसरा हँसे, यों हँस तो सब रहे हैं पर उनसे पूछा जाय कि किस बात पर हँसी आयी, तो वे उत्तर क्या देंगे, कोई उत्तर उनके पास नहीं है । कोई ज्यादा डाट डपटकर पूछे तो कह देंगे – साहब ये हँसे सो हम हँस गए । तो जैसे वह निराधार हँसी है ऐसे ही समझिये कि अपने आपका स्वरूप जाने बिना और मुझे अपने में करना क्या है, पाना क्या है, यह सब कुछ जाने बिना धर्म के नाम पर कुछ भी प्रक्रिया की जाय वह बालकों के हँसने जैसी प्रक्रिया है । करना क्या चाहते हैं, होगा क्या, हो क्या रहा है, इसका कुछ पता ही नहीं, ध्यान साधना में लग रहे हैं तो यह ध्यान साधना नहीं हुआ ।
आत्मपरमार्थ प्रयोजन व सरल उद्देश्य के निर्णय बिना मोक्षमार्गणा की अपात्रता – विवेकी पुरुष कुछ काम करते हैं तो उनका प्रयोजन कोई सुदृढ़ अवश्य होता है । प्रयोजन के बिना कोई लोग कार्य नहीं करते हैं । धर्मसाधना का जैसा काम करना है तो उसका सही प्रयोजन तो बना लो । अजी बना लिया प्रयोजन । धर्म करने से स्वर्ग मिलेगा, देव होंगे, धर्म करने से घर के सब लोग सुख से रहेंगे, कुल चलेगा, परिवार संपन्न रहेगा । चाहे वे सब बातें हों चाहें न हों, पर इतनी बात तो हम सामने ही देखते हैं कि इन धर्मक्रियावों के करने से समाज में इज्जत तो मिल ही जाती है, तो क्या यह कम बात है, ऐसा ही जिसने फल बनाया तो जितना बनाया उतना मिल भी जाय और न भी मिले दोनों बातें हैं, क्योंकि न वहाँ यथार्थ धर्म रहा और न धर्म का यथार्थ प्रयोजन रहा । तो पहिले यह निर्णय होना चाहिए कि मैं क्या हूँ, मुझे क्या करना है, मेरा क्या स्वरूप है और किस तरह से मेरा उद्धार है, कल्याण है, शांतिलाभ है, सब निर्णय अपना रखना चाहिए । यदि एक शब्द में इन सब बातों का निर्णय चाहते हैं तो यों कह लीजिए कि जहाँ पराधीनता का अंश हैं वहाँ उद्धार नहीं है । इस बात को दिखावटी पराधीनताओं से निर्णय न बनायें । जैसे कोई संपन्न है, विषय साधन सामाग्री बहुत विस्तृत है, खूब किराया आता है, कोई चिंता नहीं है, परिवार का भली प्रकार गुजारा होता है वहाँ कोई सोचे कि मैं स्वाधीन हूँ तो वह अभी स्वाधीन नहीं है । किसी की ओर तो चित्त है, किसी से राग तो है, किसी को प्रसन्न करने की अभिलाषा तो है, किसी को कुछ अपना नाम बताने की इच्छा तो है, वे सब पराधीनताएँ हैं । जब अपने आपमें अपने ही द्वारा, अपने ही लिए, अपने से ही अपनी समृद्धि में बना रहे तो ऐसी स्थिति को स्वाधीन स्थिति कह सकते हैं । परविषयक कुछ भी अभिलाषा जगना ऐसे स्थिति में चाहे पुण्यप्रताप से कुछ भी वैभव हो स्वाधीनता नहीं कही जा सकती है । यथार्थ स्वाधीनता सम्यक्त्व जगने पर ही परिचित होती है और प्रकट होती है । इस कारण यथार्थ शांतिलाभ पाने के लिए हमें अपने आपके स्वरूप का यथार्थ परिचय और प्रत्यय रखना चाहिए । इसी कारण अब इस अधिकार में सम्यक्त्व के संबंध में वर्णन चलेगा ।