वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-15
From जैनकोष
सप्ततिर्मोहनीयस्य ।।8-15।।
(301) मोहनीयकर्म के उत्कृष्ट स्थितिबंध का वर्णन―मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 70 कोड़ाकोड़ी सागर है । यह उत्कृष्टस्थिति संज्ञीपंचेंद्रिय पर्याप्तक जीवों की है । उत्कृष्ट स्थिति का कारण संक्लेश परिणाम का होना है, । मोहभाव आसक्तिभाव का होना है । सो संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त जीव अतीव मोह और आसक्ति करता है उसकी इस तीव्र आसक्ति की व्यक्तता के कारण 70 कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण मोहनीयकर्म बंध जाता है । अन्य जीवों के मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति जैसी आगम लिखी है सो जानना । जैसे एकेंद्रिय पर्याप्तक जीव के मोहनीयकर्म का उत्कृष्ट स्थिति बंध एक सागर प्रमाण होता है, दो इंद्रिय पर्याप्तक जीव के मोहनीयकर्म का स्थिति बंध 25 सागर प्रमाण होता है, तीनइंद्रिय पर्याप्तक जीव अधिक से अधिक मोहनीयकर्म की स्थिति 50 सागर प्रमाण बांधते हैं, चार इंद्रिय पर्याप्तक जीव अधिकाधिक मोहनीय कर्म को 100 सागर प्रमाण बाँधते हैं । जो पर्याप्तक एकेंद्रिय जीव हैं उनके जो मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति एक सागर प्रमाण बताया है उसमें एक पल्य के असंख्यातवें भाग कम की जाये तो इतनी उत्कृष्ट स्थिति एकेंद्रिय अपर्याप्त की होती है । इसी प्रकार दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय या चौइंद्रिय जीव के अपर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति उनके पर्याप्त में जितनी उत्कृष्ट स्थिति थी उसमें पल्य के संख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति होती है । असंज्ञी पर्याप्तक पंचेंद्रिय जीव की उत्कृष्ट स्थिति एक हजार सागर प्रमाण है और इस ही असंज्ञी पंचेंद्रिय अपर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति पल्य के संख्यातवें भाग कम एक हजार सागर प्रमाण है । संज्ञी अपर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति अंत: कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । यह संसारी जीव बड़े चाव से मोह करता है, पर एक क्षण के मोहभाव से कितने विकट कर्म बँधते हैं, कितनी अधिक स्थिति के कर्म बंधते हैं, वह इस प्रकरण से समझना चाहिये और यह शिक्षा लेना चाहिए कि हम विकारभाव से उपेक्षा करके अपने स्वभावभाव का ही आदर रखें । अब मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति कह कर नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं । यद्यपि मोहनीय के बाद आयुकर्म का क्रम है फिर भी उसकी उत्कृष्ट स्थिति कोड़ा कोड़ी में नहीं है, सो इस समानता से सूत्र के लाघव करने के लिए नामकर्म और गोत्रकर्म की उत्कृष्ट स्थिति कह रहे हैं ।