रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 109: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
चतुराहारविसर्जन-मुपवास: प्रोषध: सकृद्भक्ति: ।
स प्रोषधोपवासो, यदुपोष्यारंभभाचरति ।। 101 ।।
उपवास व प्रोषध का तात्पर्य―उपवास का अर्थ तो है चारों प्रकार के आहार का त्याग करना । चार प्रकार के आहार ये हैं―(1) अशन, (2) पान (3) खाद्य और (4) स्वाद्य । रोटी दाल, चावल आदिक जिनसे उदरपूर्ति होती है वे अशन कहलाते हैं और जो पीने की वस्तु है दूध पानी आदिक वे पान कहलाते हैं, और जो खाने की चीजें हैं याने पेट भरने से जिनका संबंध नहीं, केवल जीभ के स्वाद के लिए जो ग्रहण की जाती है जैसे पान, इलायची, सौंफ आदिक ये खाद्य कहलाते हैं, लड्डू, पेड़ा, बर्फी आदि ये स्वाद्य कहलाते है । इससे यह जाहिर होता कि खूब मिठाइयां पकवान खा खाकर ही कोई अपना जीवन नहीं व्यतीत कर सकता । वह एक खाद्य है, असन नहीं है । स्वाद वह कहलाता है जो स्वाद वाली चीज है जैसे लौंग इलायची चटनी वगैरह । इन चार प्रकार की चीजों का त्याग होना इसका नाम उपवास है औ धारणा के दिन में एक बार भोजन करना प्रोषध है । उपवास से पहले दिन का नाम धारणा कहलाता है, और उपवास के बाद का या उपवास के खुलने का दिन पारणा कहलाता है । तो यों धारणा पारणा के मध्य प्रवेश होता है वह उत्कृष्ट प्रोषधोपवास कहलाता है । इसमें 16 प्रहर व्यतीत हो जाते हैं । एक प्रहर 3 घंटे का । सप्तमी के दो प्रहर, रात्रि के 4 प्रहर, अष्टमी के दिन के चार प्रहर अष्टमी के रात्रि के चार प्रहर और नवमी के दो प्रहर इस प्रकार 16 प्रहर तक यह श्रावक धर्मध्यान में अपना समय बिताता है । 16 प्रहर के आरंभ छोड़कर रहता है, पश्चात भोजन करता है इसी का नाम तो प्रोषधोपवास है । अब प्रोषधोपवास के अतिचार कहते हैं।