समाधिभक्ति - श्लोक 15: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरण मम।
तस्मात्कारूण्य भावेन रक्ष-रक्ष जिनेश्वर:।।15।।
अविकारता के अतिरिक्त अन्य भाव में शरण्यता का प्रभाव- इस जीव का रक्षक यही है कि यह शांति में रहे।जब तक शांति में नहीं रहता तो इसकी अरक्षा है।अब परख कर लो कि हम शांत रह सकें इसका कौनसा उपाय है? सब जगह यह जीव भाव-भाव के सिवाय और कुछ तो करता नहीं, और मैं करता हूं ऐसा, यदि यह प्रतीति है तो वह पूरा भ्रम है।जब मैं भावों के सिवाय अन्य कुछ कर नहीं सकता तो यहां यह परख करनी चाहिए कि मैं कैसा भाव बनाऊँ तो मुझे शांति मिले।जब रागद्वेष का भाव बनता है तब यह जीव अशांत रहता है, किसी दूसरे चेतन अथवा अचेतन के प्रति यदि यह भाव रहता है कि ये मेरे हैं, मैं इनका हूं, इनसे मुझे सुख मिलता है आदि, तो फिर उसे चैन नहीं पड़ सकती, क्योंकि बाह्य में दृष्टि लगाये हुए है।बाह्य की ओर दृष्टि करे ऐसे परिणाम में शांति कहां से प्राप्त हो सकती है? यह बात रागद्वेष के परिणाम में भी है।मोह रागद्वेष से रहित निराला केवल ज्ञाता दृष्टा रहे, ऐसी स्थिति बने तो शांति मिल सकती है।ऐसा भाव बनाने के लिए यदि हमारा कुछ आलंबन हो सकता है तो वह है प्रभुभक्ति।प्रभु की शरण गहना, शरण उसे कहते हैं कि अब अपना सब कुछ समर्पण कर दे।अपने में कोई अभिमान न रहे।तो प्रभु अर्थात् जो रागद्वेष रहित, मोह रहित शुद्ध ज्ञान पिंड को यदि अपना समर्पण कर दे उनकी शरण गहें तो इस जीव को शांति मिलती है और निश्चयत: ऐसा ही जो अपना स्वरूप है, उस ही को शरण गहें तो शांति मिलती है।
निज भाव के सिवाय अन्य की क्रियमाणता का अभाव- इस प्रसंग में इतना तो निर्णय कर ही लेना चाहिए कि मैं भावों के सिवाय कुछ नहीं करता, शुभ भाव करता हूं और पुण्य बांधे लेता हूं, भाव करता हूं और पाप बाँध लेता हूं।यदि शुभ अशुभ भावों से रहित केवल शुद्ध भाव करूँ तो वहाँ कर्म कट जाते हैं।भावों के सिवाय मैं अन्य अन्य कुछ कर ही नहीं सकता।दो भाई थे देहात के।गरीब परिस्थिति थी।एक दिन रसोई घर के लिए लकडियां भी जंगल से लानी थी और उसी दिन उनकी पूजा करने की भी बारी थी।तो मानो बड़े भाई ने कहा कि तुम आज पूजा करने चले जावो और हम जंगल से लकडियां लेने चले जावें।सो बड़ा भाई तो जंगल चला गया और छोटा भाई पूजा करने मंदिर चला गया।उधर बड़ा भाई सोचता है कि मैं कहां आफत में पड़ गया? छोटा भाई तो प्रभु के गुण गाकर प्रसन्न हो रहा होगा।और मंदिर में पूजन करने वाला भाई सोचता है कि मेरा बड़ा भाई जंगल में वृक्ष पर चढ़ रहा होगा, लकडियां तोड़ रहा होगा, आम, जामुन आदिक के फल तोड़ तोड़ कर खा रहा होगा, बड़ा खुश हो रहा होगा।अब आप यह बताओ कि पुण्यबंध किसने किया? पुण्य बंध किया बड़े भाई ने जो जंगल में लकडियां जोड़ने गया था और मंदिर में पूजन करने वाले ने पापबंध किया।तो भाई, भावों का ही फल है।भावों के सिवाय हम आप करते ही क्या हैं।जैसा भाव बनाते हैं वैसा ही फल पाते हैं।इस कारण हम आपको अपने भावों की बड़ी संभाल करनी चाहिए।आपने छोटे-छोटे बच्चों को पंगत का खेल खेलते हुए देखा होगा।कुछ पत्तियाँ परोस दी और कह दिया ये हैं रोटियाँ, कुछ कंकड़ परोस दिये और कह दिया यह है गुड।अरे वहाँ कहां गुड है? कहां रोटियां धरी हैं? जब भाव सी बना रहे हैं तो अच्छे भाव क्यों न बनायें? पत्तों को परोस कर कहें ये पूडी कचौडियां हैं, कंकड़ों को परोस कर कहें ये बूँदी के लड्डू हैं।जब भाव ही बनाना है तो अच्छे भाव क्यों न बनाये जायें।ऐसे ही मंदिर में, प्रभुभक्ति करते समय हम आप अच्छे भाव क्यों न बनायें? हे प्रभो ! मैं यही भावना करता हूं कि मेरी बुद्धि स्पष्ट रहे और आपकी ओर लगी रहे।
विराग प्रभु की शरण्यता का विवेचन- हे प्रभो ! आपको छोड़कर अन्य किसी की शरण में जाऊँ? कौन मेरा राखनहार है? कौन मेरी रक्षा कर सकेगा? आपके सिवाय जब अन्य पर दृष्टि जाती है तो वे सब दु:खी नजर आते हैं।जो स्वयं दु:खी है उसकी शरण लेने से क्या दु:ख मिट सकेंगे? जो स्वयं शांत हैं, सुखी हैं, आनंदमय हैं, उसकी ही शरण लेने से शांति प्राप्त होगी।हे नाथ ! अन्य प्रकार मेरा और कुछ कहीं शरण नहीं है।अपने जीवन में प्रभुभक्ति का आनंद लूट लो।कुटुंब भक्ति तो बहुत की।जो चित्त में बसा रहे भक्ति तो उसी की कहलाती है।कुटुंब को चित्त में बहुत बसाया तो उस भक्ति से लाभ कुछ न मिला।अब प्रभु को अपने चित्त में बसाना चाहिए।अपना यह निर्णय रखिये कि समस्त बाह्य पदार्थ ये मेरे लिए शरणभूत नहीं हैं।मेरे लिए शरण तो केवल एक प्रभु की उपासना और अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप की उपासना है।अपना स्वरूप भी प्रभु है और जो स्पष्ट वीतराग हो गए वे तो प्रभु हैं ही।तो प्रभुता की उपासना करने से शांति मिलेगी, पंचेंद्रिय के विषयों की उपासना से शांति नहीं मिल सकती है।तो हे प्रभो ! हे वीतराग सर्वज्ञ पावन परमात्मन् ! आपको छोड़कर अन्य प्रकार से मेरे लिए शरण नहीं है।तुम ही मात्र एक शरण हो।इस कारण हे प्रभु जिनेश्वरदेव ! अब कारूण्यभाव से मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो।
निर्मोह होकर ज्ञानरूप की उपासना में ही धर्मलाभ- भाई दो ही तो काम करने हैं- एक तो प्रभुभक्ति और दूसरा- अपने ज्ञानस्वरूप की उपासना।इन दो कार्यों को छोड़कर बाकी जितने भी प्रयास हैं वे सब मोह के, मूढ़ता के प्रयास हैं।मंदिर में प्रभुदर्शन करने जाते हैं तो उसका प्रयोजन यही है कि प्रभुस्वरूप को देखें और अपने आपके सही स्वरूप की पहिचान करें, जिससे मोह छूटे।मोह छूटे यही धर्मपालन है।मोह रहे यही अधर्म करना है।ऐसा हो सकता है कि मोह न रहे पर कुछ काल तक कारणवश राग करना पड़े।राग होने पर भी मोह न रहे तो वह राग टिक न सकेगा।मोह होने से अनंत संसार का भ्रमण होगा।मोह मिट जाने पर यह राग स्वयं ही छूट जायगा।इस जीव को क्लेश का कारण है मोहभाव का करना।जैसे कोई रईस को रोग हो जाय तो उसके लिए कितने अच्छे साधन बनाये जाते हैं। अच्छा पलंग, अच्छा बिस्तर, कई नौकर चाकर, खूब साफ स्वच्छ वस्त्र, डाक्टर भी बार-बार आकर खबर लेता, खूब मित्रजन भी उसके पास मिलने जुलने आते रहते हैं।सभी लोग उसकी दवा का व हर प्रकार का बड़ा ख्याल रखते हैं, इतना सब होते हुए भी क्या वह यह चाहता है कि मुझे इस तरह का आराम जीवन भर मिलता रहे? अरे वह तो चाहता है कि मुझे कब इस बीमारी की झँझट से फुरसत मिले और मैं प्रतिदिन मील दो मील चलूँ फिरूँ? यदि उस रईस को समय पर दवा नहीं मिलती है अथवा सब प्रकार के अच्छे साधन नहीं मिलते हैं तो वह बहुत झुँझलाता है, फिर भी उसका उन सबमें मोह नहीं है? यह दवा न पीनी पड़े इसके लिए दवा पी रहा है।तो मोह न रहने से राग में कुछ बल नहीं रहता।वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो तो वहाँ मोह नहीं रह सकता।प्रत्येक पदार्थ का अपना-अपना जुदा-जुदा परिणमन है।यह बात जैनशासन ने घोषणा के साथ कही है।उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत।प्रत्येक पदार्थ बनता है, बिगड़ता है और बना रहता है।अपने में ही बनता है, अपने में ही बिगड़ता है और अपने में ही बना रहता है।सब पदार्थों का यही स्वरूप है।फिर किसका कौन क्या कर लेगा? किसी का कोई कुछ नहीं है।वस्तु स्वातंत्र्य की परख करके निर्मोहता का भाव अवश्यमेव जगता है।
भ्रम के हटने के साथ ही संकटों का हटना- भैया ! निर्मोह हुए कि समझ लीजिए संकट टले।भ्रम मिटा कि संकट दूर हुए।दीवाली के दिनों में किसी सेठ के घर गेरू के रंग से कुछ पुताई हो रही थी तो सेठ की लड़की ने जब शाम हो गयी तो गेरू के रंग से भरा लोटा सेठ की खाट के नीचे रख दिया।सेठ की आदत थी अंधेरे में प्रतिदिन कुछ शौच जाने की।सो सेठ जब प्रात:काल उठा तो वही गेरू के रंग से भरा लोटा लेकर शौच गया।जब शौच से निपट चुका और कुछ प्रकाश होने से कपड़ों में लाल लाल खून जैसा लगा हुआ देखा तो सोचने लगा- ओह ! आज तो मेरे शरीर से न जाने कितना खून निकल गया।उसे खून का भ्रम हो जाने से बड़े जोर का शिर दर्द हुआ और घर आते ही आते उसके बुखार भी चढ़ गया, खाट पर लेट गया।कुछ देर बाद में जब दिन काफी चढ़ आया, फिर उस सेठ की लड़की को घर पोतने का काम करना था, तो आकर उस सेठ से वह लड़की कहती है पिताजी, हमने जो गेरू के रंग से भरा हुआ लोटा आपकी खाट के नीचे शाम को रख दिया था वह कहाँ गया? तो सेठ ने इतनी बात सुनते ही सच्ची बात समझ ली, लो उसका भ्रम मिट जाने से वह उसी समय चंगा हो गया।तो भाई परवस्तुवों के प्रति भ्रम होने के कारण इस जीव पर ये दु:ख लदे हुए हैं।अगर यह भ्रम मिट जाये तो फिर ये दु:ख कहाँ ठहर सकते हैं? अरे मेरा तो मात्र मेरा ही ज्ञान, मेरा ही दर्शन, मेरी ही शक्ति, मेरा आनंद, ये सब गुण यही मात्र मेरे है, ऐसा एकत्व का निर्णय तो हो फिर वह दु:ख का नाम न रहेगा।बात एक ही है जीवन भर करने की।यही एक मात्र याद रख लीजिए, जीवन सफल हो जायगा।मेरा मात्र मैं ही हूं, और यह मैं भावों के सिवाय और कुछ करता नहीं, जैसे भाव मैं बनाता हूं उसी के अनुसार मेरी सृष्टि बनती है।सिवाय भाव बनाने के अन्य कुछ काम मैं नहीं करता, इतनी दृष्टि यदि रहेगी, ऐसा विश्वास यदि रहेगा तो अवश्य ही हम संसार संकटों से मुक्ति पा लेंगे, जन्म मरण के दु:ख दूर कर लेंगे।हे प्रभो ! यह सामर्थ्य, यह बल आपकी भक्ति से प्राप्त होता है, इसलिए आप ही मेरे को शरण हैं, इस कारण हे प्रभो ! आप मेरी रक्षा करें।तो आपके गुणस्मरण में मेरा उपयोग बना रहे, समाधिभक्त ज्ञानी संत केवल यह अभ्यर्थना प्रभु से करता है।