वर्ण
From जैनकोष
- वर्ण का अनेकों अर्थों में प्रयोग
स.सि./२/२०/१७८/१ वर्ण्यत इति वर्णः ।... वर्णनं वर्णः । = जो देखा जाता है वह वर्ण है, अथवा वर्णन वर्ण है । (रा.वा.२/२०/१/१३२/३२) ।
स.सि./५/२३/२९४/१ वर्ण्यते वर्णनमात्रं वा वर्णः । = जिसका कोई वर्ण है या वर्णन मात्र को वर्ण कहते हैं ।
ध.१/१, १, ३३/५४६/१ अयं वर्णशब्दः कर्मसाधनः । यथा यदा द्रव्यं प्रधान्येन विवक्षितं तदेन्द्रियेण द्रव्यमेव संनिकर्ष्यते, न ततो व्यतिरित्तः स्पर्शादयः सन्तीत्येतस्यां विवक्षायां कर्मसाधनत्वं स्पर्शादीनामवसीयते, वर्ण्यत इति वर्णः । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेरौदासीन्यावस्थितभावकथनाद्भावसाधनत्वं स्पर्शादीनां युज्यते वर्णनं वर्णः । = यह वर्ण शब्द कर्मसाधन है । जैसे जिस समय प्रधानरूप से द्रव्य विवक्षित होता है, उस समय इन्द्रिय से द्रव्य का ही ग्रहण होता है, क्योंकि उससे भिन्न स्पर्श (वर्णादि) पर्यायें नहीं पायी जाती हैं । इसलिए इस विवक्षा में स्पर्शादि के कर्म साधन जाना जाता है । उस समय जो देखा जाये उसे वर्ण कहते हैं, ऐसी निरुक्ति करना चाहिए । तथा जिस समय पर्याय प्रधान रूप से विवक्षित होती है, उस समय द्रव्य से पर्याय का भेद बन जाता है, इसलिए उदासीन रूप से अवस्थित जो भाव है, उसी का कथन किया जाता है । अतएव स्पर्शादि के भाव साधन भी बन जाता है । उस समय देखने रूप धर्म को वर्ण कहते हैं, ऐसी निरुक्ति होती है ।
भ.आ./वि./४७/१६०/१ वर्णशब्दः क्कचिद्रूपवाची शुक्लवर्णमानय शुक्लरूपमिति । अक्षरवाची क्कचिद्यथा सिद्धो वर्णसमाम्नायः इति । क्कचित् ब्राह्मणादौ यथात्रेव वर्णानामधिकार इति । क्कचिद्यशसिवर्णार्थी ददाति । = वर्ण शब्द के अनेक अर्थ हैं । वर्ण-शुक्लादिक वर्ण, जैसे सफेद रंग को लाओ । वर्ण शब्द का अर्थ अक्षर ऐसा भी होता है, जैसे वर्णों का समुदाय अनादि काल से है । वर्ण शब्द का अर्थ ब्राह्मण आदिक ऐसा भी है । यथा-इस कार्य में ही ब्राह्मणादिक वर्णों का अधिकार है । यहाँ पर वर्ण शब्द का अर्थ यश ऐसा माना जाता है । जैसे-यश की कामना से देता है ।
देखें - निक्षेप / ५ / ९ (चित्रित मनुष्य तुरग आदि आकार वर्ण कहे जाते हैं ।)
- वर्ण नामकर्म का लक्षण
स.सि./८/११/३९०/११ यद्धेतुको वर्णविभागस्तद्वर्णनाम । = जिसके निमित्त से वर्ण में विभाग होता है, वह वर्ण नामकर्म है । (रा.वा./८/११/१०/५७७/१७); (गो.क./जी.प्र./३३/२९/१३) ।
ध.६/१, ९-१, २८/५५/१ जस्स कम्मस्स उदएण जीवसरीरे वण्णणिप्फत्ती होदि, तस्स कम्मक्खंधस्स वण्णसण्णा । एदस्स कम्मस्साभावे अणियदवण्णं सरीररं होज्ज । ण च एवं, भमर-कलयंठी-हंस-बलायादिसु सुणियदवण्णुवलंभा । = जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में वर्ण की उत्पत्ति होती है, उस कर्मस्कन्ध की ‘वर्ण’ यह संज्ञा है । इस कर्म के अभाव में अनियत वर्ण वाला शरीर हो जायेगा । किन्तु, ऐसा देखा नहीं जाता । क्योंकि भौंरा, कोयल, हंस और बगुला आदि में सुनिश्चित वर्ण पाये जाते हैं । (ध.१३/५, ५, १०१/३६४/६) । - वर्ण व वर्ण नामकर्म के भेद
ष.ख.६/१, ९-१/सूत्र ३७/७४ जं तं वण्णणामकम्मं तं पञ्चविहं, किण्हवण्णणामं णीलवण्णणामं रुहिरवण्णणामं हालिद्दवण्णणामं सुक्किलवण्णणामं चेदि ।३७। = जो वर्ण नामकर्म है, वह पाँच प्रकार का है-कृष्णवर्ण नामकर्म, नीलवर्ण नामकर्म, रुधिरवर्ण नामकर्म, हारिद्रवर्ण नामकर्म और शुक्लवर्ण नामकर्म । (ष.ख./१३/५/सूत्र ११०/३७०); (पं.सं./प्रा./४/४७/३०); (स.सि./८/११/३९०/१२); (रा.वा./८/११/१०/५७७/१८); (गो.क./जी.प्र./३२ /२६/१; ३३/२९/१३) ।
स.सि./५/३३/२९४/२ स पञ्चविधः; कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात् । = काला, नीला, पीला, सफेद और लाल के भेद सेवर्ण पाँच प्रकार का है । (रा.वा./५/२३/१०/४८५/३); (प.प्रा.टी./१/२१/२६/१); द्र.सं./टी.७/ १९/९); (गो.जी./जी.प्र./४७९/८८५/१५) ।
- नामकर्मों के वर्णादि सकारण हैं या निष्कारण
ध.६/१, ९-१, २८/५७/४ वण्ण-गंध-रस-फासकम्माणं वण्ण गंध-रस-पासा सकारणा णिक्कारणा वा । पढमपक्खे अणवत्था । विदियपक्खे सेसणोकम्म-गंध-रस-फासा वि णिक्कारणा होंतु, विसेसाभावा । एत्थ परिहारो उच्चदे-ण पढमे पक्खे उत्तदोसो, अणब्भुवगमादो । ण विदियपक्खदोसो वि, कालदव्वं व दुस्सहावत्तदो एदेसिमुभयत्थ वावारवि-रोहाभावा । = प्रश्न - वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्मों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श सकारण होते हैं, या निष्कारण । प्रथम पक्ष में अनवस्था दोष आता है । (क्योंकि जिस अन्य कर्म के कारण ये कर्म वर्णादिमान होंगे, वह स्वयं किसी अन्य ही कर्म के निमित्त से वर्णादिमान होगा) । द्वितीय पक्ष के मानने पर शेष नोकर्मों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी निष्कारण होने चाहिए (अर्थात् उन्हें वर्णादिमान करने के लिए वर्णादि नामकर्मों का निमित्त मानना व्यर्थ है), क्योंकि दोनों में कोई भेद नहीं हैं? उत्तर - यहाँ पर उक्त शंका का परिहार कहते हैं - प्रथम पक्ष में कहा गया अनवस्थादोष तो प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि वैसा माना नहीं गया है । (अर्थात् वर्णादि नाम कर्मों को वर्णादिमान करने के लिए अन्य वर्णादि कर्म माने नहीं गये हैं ।) न द्वितीय पक्ष में दिया गया दोष भी प्राप्त होता है, क्योंकि कालद्रव्य के समान द्विस्वभावी होने से इन वर्णादिक के उभयत्र व्यापार करने में कोई विरोध नहीं है । (अर्थात् जिस प्रकार काल द्रव्य स्वयं परिणमन स्वभावी होता हुआ अन्य द्रव्यों के भी परिणमन में कारण होता है उसी प्रकार वर्णादि नाम कर्म स्वयं वर्णादिमान होते हुए ही नोकर्मभूत शरीरों के वर्णादि में कारण होते हैं ।) ।
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