विकल्प: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> राग की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> राग की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/41/174/1 </span><span class="SanskritText">अभ्यंतरे सुख्यहं दुःख्यहमिति हर्षविषादकारणं विकल्प इति। अथवा वस्तुवृत्त्या संकल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति तस्यैव पर्यायः। </span>=<span class="HindiText"> अंतरंग में मैं सुखी हूँ मैं दुःखी हूँ इस प्रकार जो हर्ष तथा खेद का करना है, वह विकल्प है। अथवा वास्तव में जो संकल्प (पुत्र आदि मेरे हैं, ऐसा भाव) है, वही विकल्प है, अर्थात् विकल्प संकल्प की पर्याय है। (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/7/19/8 </span>); (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/1/16/24/1 </span>) । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">ज्ञान में आकारावभासन की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">ज्ञान में आकारावभासन की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/124 </span><span class="SanskritText">विकल्पस्तदाकारावभासनम्। यस्तु मुकुरुंदहृदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोऽर्थ विकल्पस्तज्ज्ञानम्।</span> = <span class="HindiText">(स्व पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है)। उसके आकारों का अवभासन विकल्प है। दर्पण के निजविस्तार की भाँति जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प ज्ञान है। (अर्थात् ज्ञानभूमि में प्रतिभासित बाह्य पदार्थों के आकार या प्रतिबिंब ज्ञान के विकल्प कहे जाते हैं।) </span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/181/3 </span><span class="SanskritText">घटोऽयं पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकारं सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्म-कमित्यर्थः। </span>=<span class="HindiText"> ‘यह घट है, यह पट है’ इत्यादि ग्रहण व्यापार रूप से ज्ञान साकार, सविकल्प, व्यवसायात्मक व निश्चयात्मक होता है।–(और भी, देखें [[ आकार#1 | आकार - 1]]) </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी x`/5/608 </span><span class="SanskritText">अर्थालोकविकल्पः। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/391 </span><span class="SanskritGatha">आकारोऽर्थविकल्पः स्यादर्थः स्वपरगोचरः। सोपयोगो विकल्पो वा ज्ञानस्यैत्द्धि लक्षणम्।391। </span><span class="HindiText">अर्थ का प्रतिभास विकल्प कहलाता है ।608। साकार शब्द में आकार शब्द का अर्थ, अर्थ विकल्प होता है और वह अर्थ स्व तथा पर विषय रूप है । विकल्प शब्द का अर्थ उपयोग सहित अवस्था होता है, क्योंकि ज्ञान का यह आकार लक्षण है ।391। (प.<span class="GRef"> धवला/ </span>उ./837) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> ज्ञप्तिपरिवर्तन की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> ज्ञप्तिपरिवर्तन की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/834 </span><span class="SanskritGatha"> विकल्पो योगसंक्रांतिरर्थाज्ज्ञानस्य पर्ययः। ज्ञेयाकारः स ज्ञेयार्थात् ज्ञेयार्थांतरसंगतः।834। </span>= <span class="HindiText">योगों की प्रवृत्ति के परिवर्तन को विकल्प कहते हैं, अर्थात् एक ज्ञान के विषयभूत अर्थ से दूसरे विषयांतरत्व को प्राप्त होने वाली जो ज्ञेयाकाररूप ज्ञान की पर्याय है, वह विकल्प कहलाता है। <br /> | |||
<span class="GRef"> मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/310/9 </span>रागद्वेष के वशतैं किसी ज्ञेय के जाननेविषै उपयोग लगावना। किसी ज्ञेय के जाननेतै छुड़ावना, ऐसे बराबर उपयोग का भ्रमावना, ताका नाम विकल्प है। बहुरि जहाँ वीतरागरूप होय जाकौं जानैं हैं, ताकौ यथार्थ जानै है। अन्य अन्य ज्ञेय के जानने के अर्थि उपयोगर्कौ नाहीं भ्रमावै है। तहाँ निर्विकल्प दशा जाननी। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/4/13/1 </span><span class="SanskritText">निर्विकल्पकं दर्शनं सविकल्पकं ज्ञानं।</span> = <span class="HindiText">दर्शन तो निर्विकल्पक है और ज्ञान सविकल्पक है। (<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/40/80/15 </span>) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> सम्यग्दर्शन में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> सम्यग्दर्शन में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/838 </span><span class="SanskritGatha">विकल्पः सोऽधिकारेऽस्मिन्नाधिकारो मनागपि। योगसंक्रांतिरूपो यो विकल्पोऽधिकृतोऽधुना।838। </span>= <span class="HindiText">ज्ञान का स्वलक्षणभूत व विकल्प सम्यग्दर्शन के निर्विकल्प व सविकल्प के कथन में कुछ भी अधिकार नहीं है, किंतु योग-संक्रांतिरूप जो विकल्प, वही इस समय सम्यक्त्व के सविकल्प और निविकल्प के विचार करते समय अधिकार रखता है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong id="4" name="4" name="4" id="4"> लब्धिरूप ज्ञान निर्विकल्प होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong id="4" name="4" name="4" id="4"> लब्धिरूप ज्ञान निर्विकल्प होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/858 </span><span class="SanskritGatha">सिद्धमेतावतोक्तेन लब्धिर्या प्रोक्तलक्षणा। निरुपयोगरूपत्वान्निर्विकल्पा स्वतोऽस्ति सा।858। </span>=<span class="HindiText"> इतना कहने से यह सिद्ध होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है, वह स्वतः उपयोगरूप न होने से निर्विकल्प है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">स्वसंवेदन ज्ञान निर्विकल्प होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5">स्वसंवेदन ज्ञान निर्विकल्प होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/5/16/3 </span><span class="SanskritText">यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसंवित्तिस्वरूपं स्वसंवित्त्याकारेण सविकल्पमयींद्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम्। </span>=<span class="HindiText"> जो निश्चय भावश्रुत ज्ञान है, वह शुद्ध आत्मा के अभिमुख होने से सुखसंवित्ति या सुखानुभव स्वरूप है। वह यद्यपि निज आत्मा के आकार से सविकल्प है तो भी इंद्रिय तथा मन से उत्पन्न जो विकल्पसमूह हैं उनसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है। ( <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/184/2 </span>) <br /> | |||
देखें [[ जीव#1.3.3 | जीव - 1.3.3 ]][समाधिकाल में स्वसंवेदन की निर्विकल्पता के कारण ही जीव को कथंचित् जड़ कहा जाता है।] </span><br /> | देखें [[ जीव#1.3.3 | जीव - 1.3.3 ]][समाधिकाल में स्वसंवेदन की निर्विकल्पता के कारण ही जीव को कथंचित् जड़ कहा जाता है।] </span><br /> | ||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/716 </span><span class="SanskritGatha"> तस्मादिदमनवद्यं स्वात्मग्रहणे किलोपयोगि मनः। किंतु विशिष्टदशायां भवतीह मनः स्वयं ज्ञानम्।716। <span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/859 </span>शुद्धः स्वात्मोपयोगो यः स्वयं स्यात् ज्ञानचेतना। निर्विकल्पः स एवार्थादसंक्रांतात्मसंगतेः।859।</span> = <span class="HindiText">यहाँ पर यह कथन निर्दोष है कि स्वात्मा के ग्रहण में निश्चय से मन ही उपयोगी है, किंतु इतना विशेष है कि विशिष्ट दशा में मन स्वतः ज्ञानरूप हो जाता है।716। वास्तव में स्वयं ज्ञानचेतनारूप जो शुद्ध स्वकीय आत्मा का उपयोग होता है वह संक्रांत्यात्मक न होने से निर्विकल्परूप ही है।859। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong id="6" name="6" name="6" id="6"> स्वसंवेदन में ज्ञान का सविकल्प लक्षण कैसे घटित होगा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong id="6" name="6" name="6" id="6"> स्वसंवेदन में ज्ञान का सविकल्प लक्षण कैसे घटित होगा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/42/184/6 </span><span class="SanskritText">अत्राह शिष्यः इत्युक्तप्रकारेण यन्निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानं भण्यते तन्न घटते। कस्मादिति चेत् उच्यते। सत्तावलोकरूपं चक्षुरादिदर्शन यथा जैनमते निर्विकल्पं कथ्यते, तथा बौद्धमते ज्ञानं निर्विकल्पकं भण्यते। परं किंतु तन्निर्विकल्पमपि विकल्पजनकं भवति। जैनमते तु विकल्पस्योत्पादकं भवत्येव न, किंतु स्वरूपेणैव सविकल्पमिति। तथैव स्वपरप्रकाशकं चेति। तत्र परिहारः कथंचित् सविकल्पकं निर्विकल्पकं च। तथाहि–यथा विषयानंदरूपं स्वसंवेदनं रागसंवित्तिविकल्परूपेण सविकल्पमिति शेषानीहितसूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते। तथा स्वशुद्धात्मसंवित्तिरूपं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमपि स्वसंवित्त्याकारैकविकल्पेन सविकल्पमपि बहिर्विषयानीहितसूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते। यत एवेहापूर्वस्वसंवित्त्याकारांतर्मुखप्रतिभासेऽपि बहिर्विषयानीहितसूक्ष्मा विकल्पा अपि संति तत एव कारणात् स्वपरप्रकाशकं च सिद्धम्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>यहाँ शिष्य कहता है कि इस कहे हुए प्रकार से प्राभृत शास्त्र में जो विकल्परहित स्वसंवेदन ज्ञान कहा है, वह घटित नहीं होता, क्योंकि जैनमत में जैसे सत्तावलोकनरूप चक्षुदर्शन आदि हैं, उसको निर्विकल्प कहते हैं, उसी प्रकार बौद्धमत में ज्ञान निर्विकल्प है, तथापि विकल्प को उत्पन्न करने वाला होता है। और जैनमत में तो ज्ञान विकल्प को उत्पन्न करने वाला है ही नहीं, किंतु स्वरूप से ही विकल्प सहित है। और इसी प्रकार स्वपरप्रकाशक भी है। <strong>उत्तर–</strong>परिहार करते हैं। जैन सिद्धांत में ज्ञान को कथंचित् सविकल्प और कथंचित निर्विकल्प माना गया है। सो ही दिखाते हैं। जैसे विषयों में आनंदरूप जो स्वसंवेदन है वह राग के जानने रूप विकल्पस्वरूप होने से सविकल्प है, तो भी शेष अनिच्छित जो सूक्ष्म विकल्प हैं उनका सद्भाव होने पर भी उन विकल्पों की मुख्यता नहीं; इस कारण से उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं। इसी प्रकार निज शुद्धात्मा के अनुभवरूप जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान है वह आत्मसंवेदन के आकाररूप एक विकल्प के होने से यद्यपि सविकल्प है, तथापि बाह्य विषयों के अनिच्छित विकल्पों का उस ज्ञान में सद्भाव होने पर भी उनकी उस ज्ञान में मुख्यता नहीं है, इस कारण से उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं। तथा–क्योंकि यहाँ अपूर्व संवित्ति के आकाररूप अंतरंग में मुख्य प्रतिभास के होने पर भी बाह्य विषय वाले अनिच्छित सूक्ष्म विकल्प भी हैं। इस कारण ज्ञान निज तथा पर को प्रकाश करने वाला भी सिद्ध हुआ। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> शुक्लध्यान में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> शुक्लध्यान में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/41/8 </span><span class="SanskritText">न पश्यति तदा किंचिन्न शृणोति न जिघ्रति। स्पृष्टं किंचिन्न जानाति साक्षन्निर्वृत्तिलेपवत्। </span>= <span class="HindiText">उस (शुक्ल) ध्यान के समय चित्राम की मूर्ति की तरह हो जाता है। इस कारण यह योगी न तो कुछ देखता है, न कुछ सुनता है, न कुछ संघता है और न कुछ स्पर्श किये हुए को जानता है।8। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/842-843 </span><span class="SanskritGatha">यत्पुनज्ञनिमेकत्र नैरंतर्येण कुत्रचित्। अस्ति तद्ध्यानमत्रापि क्रमो नाप्यक्रमोऽर्थतः।842। एकरूपमिवाभाति ज्ञानं ध्यानैकतानतः। तत् स्यात् पुनः पुनर्वृत्तिरूपं स्यात्क्रमवर्ति च ।843।</span> = <span class="HindiText">किंतु जो किसी विषय में निरंतर रूप से ज्ञान रहता है, उसे ध्यान कहते हैं और इस ध्यान में भी वास्तव में क्रम ही है, किंतु अक्रम नहीं है।842। ध्यान की एकाग्रता के कारण ध्यानरूप ज्ञान अक्रमवर्ति की तरह प्रतीत होता है, परंतु वह ध्यानरूप ज्ञान पुनः-पुनः उसी-उसी विषय में होता रहता है, इसलिए क्रमवर्ती ही है।843। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> केवलज्ञान में कथंचित् निर्विकल्प व सविकल्पपना</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> केवलज्ञान में कथंचित् निर्विकल्प व सविकल्पपना</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/42 </span><span class="PrakritGatha"> परिणमदि णेयमट्ठं णादा जदि णेव खाइगं तस्स। णाणंत्ति तं जिणिंदा खवयंतं कम्ममेवुत्त।42।</span> = <span class="HindiText">ज्ञाता यदि ज्ञेय पदार्थ रूप परिणमित होता है (अर्थात् ‘यह काला है, यह पीला है’ ऐसा विकल्प करता है तो उसके क्षायिकज्ञान होता ही नहीं। जिनेंद्रदेवों ने ऐसे ज्ञान को कर्म को ही अनुभव करने वाला कहा है।42। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/836, 845 </span><span class="SanskritGatha">अस्ति क्षायिकज्ञानस्य विकल्पत्वं स्वलक्षणात्। नार्थादार्थांतराकारयोगसंक्रांतिलक्षणात्।836। नोह्यं तत्राप्यतिव्याप्तिः क्षायिकात्यक्षसंविदि। स्यात्परिणामवत्त्वेऽपि पुनर्वृत्तेरसंभवात्।845।</span> =<span class="HindiText"> स्वलक्षण की अपेक्षा से क्षायिकज्ञान में जो विकल्पपना है वह अर्थ से अर्थांतराकाररूप योग संक्रांति के विकल्प की अपेक्षा नहीं है।836। क्षायिक अतींद्रिय केवलज्ञान में अतिव्याप्ति का प्रसंग भी नहीं आता, क्योंकि उसमें स्वाभाविक रूप से परिणमन होते हुए भी पुनर्वृत्ति संभव नहीं है।845। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="9" id="9"> निर्विकल्प केवलज्ञान ज्ञेय को कैसे जाने </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="9" id="9"> निर्विकल्प केवलज्ञान ज्ञेय को कैसे जाने </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/170 </span><span class="SanskritText">कथमिति चेत्, पूर्वोक्तस्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा स्वरूपावस्थितः संतिष्ठति। यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति, तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पाभावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति। हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः। किं वहुना। तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अतएव आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्तं भवति। तन्न खलु संयतं स्वभाववादिनामिति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न–</strong>वह (विपरीत वितर्क) किस प्रकार है? पूर्वोक्तस्वरूप आत्मा को आत्मा वास्तव में जानता नहीं है, स्वरूप में अवस्थित रहता है। जिस प्रकार उष्णतास्वरूप अग्नि के स्वरूप को क्या अग्नि जानती है? उसी प्रकार ज्ञानज्ञेय संबंधी विकल्प के अभाव से यह आत्मा आत्मा में स्थित रहता है। <strong>उत्तर–</strong>हे प्राथमिक शिष्य, अग्नि की भाँति क्या आत्मा अचेतन है? अधिक क्या कहा जाय, यदि उस आत्मा को ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ी की भाँति अर्थक्रियाकारी सिद्ध नहीं होगा और इसलिए वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा। और वह वास्तव में स्वभाववादियों को सम्मत नहीं है।–(विशेष देखें [[ केवलज्ञान#6 | केवलज्ञान - 6]])। | |||
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Revision as of 13:02, 14 October 2020
विकल्प दो प्रकार का होता है–रागात्मक व ज्ञानात्मक। राग के सद्भाव में ही ज्ञान में ज्ञप्तिपरिवर्तन होता है। और उसके अभाव के कारण ही केवलज्ञान, स्वसंवेदन ज्ञान व शुक्लध्यान निर्विकल्प होते हैं।
- विकल्प सामान्य का लक्षण
- राग की अपेक्षा
द्रव्यसंग्रह टीका/41/174/1 अभ्यंतरे सुख्यहं दुःख्यहमिति हर्षविषादकारणं विकल्प इति। अथवा वस्तुवृत्त्या संकल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति तस्यैव पर्यायः। = अंतरंग में मैं सुखी हूँ मैं दुःखी हूँ इस प्रकार जो हर्ष तथा खेद का करना है, वह विकल्प है। अथवा वास्तव में जो संकल्प (पुत्र आदि मेरे हैं, ऐसा भाव) है, वही विकल्प है, अर्थात् विकल्प संकल्प की पर्याय है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/7/19/8 ); ( परमात्मप्रकाश टीका/1/16/24/1 ) ।
- ज्ञान में आकारावभासन की अपेक्षा
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/124 विकल्पस्तदाकारावभासनम्। यस्तु मुकुरुंदहृदयाभोग इव युगपदवभासमानस्वपराकारोऽर्थ विकल्पस्तज्ज्ञानम्। = (स्व पर के विभागपूर्वक अवस्थित विश्व अर्थ है)। उसके आकारों का अवभासन विकल्प है। दर्पण के निजविस्तार की भाँति जिसमें एक ही साथ स्व-पराकार अवभासित होते हैं, ऐसा अर्थ विकल्प ज्ञान है। (अर्थात् ज्ञानभूमि में प्रतिभासित बाह्य पदार्थों के आकार या प्रतिबिंब ज्ञान के विकल्प कहे जाते हैं।)
द्रव्यसंग्रह टीका/42/181/3 घटोऽयं पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकारं सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्म-कमित्यर्थः। = ‘यह घट है, यह पट है’ इत्यादि ग्रहण व्यापार रूप से ज्ञान साकार, सविकल्प, व्यवसायात्मक व निश्चयात्मक होता है।–(और भी, देखें आकार - 1)
पंचाध्यायी x`/5/608 अर्थालोकविकल्पः।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/391 आकारोऽर्थविकल्पः स्यादर्थः स्वपरगोचरः। सोपयोगो विकल्पो वा ज्ञानस्यैत्द्धि लक्षणम्।391। अर्थ का प्रतिभास विकल्प कहलाता है ।608। साकार शब्द में आकार शब्द का अर्थ, अर्थ विकल्प होता है और वह अर्थ स्व तथा पर विषय रूप है । विकल्प शब्द का अर्थ उपयोग सहित अवस्था होता है, क्योंकि ज्ञान का यह आकार लक्षण है ।391। (प. धवला/ उ./837)
- ज्ञप्तिपरिवर्तन की अपेक्षा
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/834 विकल्पो योगसंक्रांतिरर्थाज्ज्ञानस्य पर्ययः। ज्ञेयाकारः स ज्ञेयार्थात् ज्ञेयार्थांतरसंगतः।834। = योगों की प्रवृत्ति के परिवर्तन को विकल्प कहते हैं, अर्थात् एक ज्ञान के विषयभूत अर्थ से दूसरे विषयांतरत्व को प्राप्त होने वाली जो ज्ञेयाकाररूप ज्ञान की पर्याय है, वह विकल्प कहलाता है।
मोक्षमार्ग प्रकाशक/7/310/9 रागद्वेष के वशतैं किसी ज्ञेय के जाननेविषै उपयोग लगावना। किसी ज्ञेय के जाननेतै छुड़ावना, ऐसे बराबर उपयोग का भ्रमावना, ताका नाम विकल्प है। बहुरि जहाँ वीतरागरूप होय जाकौं जानैं हैं, ताकौ यथार्थ जानै है। अन्य अन्य ज्ञेय के जानने के अर्थि उपयोगर्कौ नाहीं भ्रमावै है। तहाँ निर्विकल्प दशा जाननी।
- राग की अपेक्षा
- ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प
द्रव्यसंग्रह टीका/4/13/1 निर्विकल्पकं दर्शनं सविकल्पकं ज्ञानं। = दर्शन तो निर्विकल्पक है और ज्ञान सविकल्पक है। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/40/80/15 )
- ज्ञान के अतिरिक्त सर्वगुण निर्विकल्प हैं–देखें गुण - 2।
- सम्यग्दर्शन में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/838 विकल्पः सोऽधिकारेऽस्मिन्नाधिकारो मनागपि। योगसंक्रांतिरूपो यो विकल्पोऽधिकृतोऽधुना।838। = ज्ञान का स्वलक्षणभूत व विकल्प सम्यग्दर्शन के निर्विकल्प व सविकल्प के कथन में कुछ भी अधिकार नहीं है, किंतु योग-संक्रांतिरूप जो विकल्प, वही इस समय सम्यक्त्व के सविकल्प और निविकल्प के विचार करते समय अधिकार रखता है।
- लब्धिरूप ज्ञान निर्विकल्प होता है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/858 सिद्धमेतावतोक्तेन लब्धिर्या प्रोक्तलक्षणा। निरुपयोगरूपत्वान्निर्विकल्पा स्वतोऽस्ति सा।858। = इतना कहने से यह सिद्ध होता है, कि जिसका लक्षण कहा जा चुका है ऐसी जो लब्धि है, वह स्वतः उपयोगरूप न होने से निर्विकल्प है।
- मति श्रुत ज्ञान की कथंचित् निर्विकल्पता–देखें ऊपर ।
- स्वसंवेदन ज्ञान निर्विकल्प होता है
द्रव्यसंग्रह टीका/5/16/3 यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसंवित्तिस्वरूपं स्वसंवित्त्याकारेण सविकल्पमयींद्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निर्विकल्पम्। = जो निश्चय भावश्रुत ज्ञान है, वह शुद्ध आत्मा के अभिमुख होने से सुखसंवित्ति या सुखानुभव स्वरूप है। वह यद्यपि निज आत्मा के आकार से सविकल्प है तो भी इंद्रिय तथा मन से उत्पन्न जो विकल्पसमूह हैं उनसे रहित होने के कारण निर्विकल्प है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/42/184/2 )
देखें जीव - 1.3.3 [समाधिकाल में स्वसंवेदन की निर्विकल्पता के कारण ही जीव को कथंचित् जड़ कहा जाता है।]
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/716 तस्मादिदमनवद्यं स्वात्मग्रहणे किलोपयोगि मनः। किंतु विशिष्टदशायां भवतीह मनः स्वयं ज्ञानम्।716। पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/859 शुद्धः स्वात्मोपयोगो यः स्वयं स्यात् ज्ञानचेतना। निर्विकल्पः स एवार्थादसंक्रांतात्मसंगतेः।859। = यहाँ पर यह कथन निर्दोष है कि स्वात्मा के ग्रहण में निश्चय से मन ही उपयोगी है, किंतु इतना विशेष है कि विशिष्ट दशा में मन स्वतः ज्ञानरूप हो जाता है।716। वास्तव में स्वयं ज्ञानचेतनारूप जो शुद्ध स्वकीय आत्मा का उपयोग होता है वह संक्रांत्यात्मक न होने से निर्विकल्परूप ही है।859।
- स्वसंवेदन में ज्ञान का सविकल्प लक्षण कैसे घटित होगा
द्रव्यसंग्रह टीका/42/184/6 अत्राह शिष्यः इत्युक्तप्रकारेण यन्निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानं भण्यते तन्न घटते। कस्मादिति चेत् उच्यते। सत्तावलोकरूपं चक्षुरादिदर्शन यथा जैनमते निर्विकल्पं कथ्यते, तथा बौद्धमते ज्ञानं निर्विकल्पकं भण्यते। परं किंतु तन्निर्विकल्पमपि विकल्पजनकं भवति। जैनमते तु विकल्पस्योत्पादकं भवत्येव न, किंतु स्वरूपेणैव सविकल्पमिति। तथैव स्वपरप्रकाशकं चेति। तत्र परिहारः कथंचित् सविकल्पकं निर्विकल्पकं च। तथाहि–यथा विषयानंदरूपं स्वसंवेदनं रागसंवित्तिविकल्परूपेण सविकल्पमिति शेषानीहितसूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते। तथा स्वशुद्धात्मसंवित्तिरूपं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमपि स्वसंवित्त्याकारैकविकल्पेन सविकल्पमपि बहिर्विषयानीहितसूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते। यत एवेहापूर्वस्वसंवित्त्याकारांतर्मुखप्रतिभासेऽपि बहिर्विषयानीहितसूक्ष्मा विकल्पा अपि संति तत एव कारणात् स्वपरप्रकाशकं च सिद्धम्। = प्रश्न–यहाँ शिष्य कहता है कि इस कहे हुए प्रकार से प्राभृत शास्त्र में जो विकल्परहित स्वसंवेदन ज्ञान कहा है, वह घटित नहीं होता, क्योंकि जैनमत में जैसे सत्तावलोकनरूप चक्षुदर्शन आदि हैं, उसको निर्विकल्प कहते हैं, उसी प्रकार बौद्धमत में ज्ञान निर्विकल्प है, तथापि विकल्प को उत्पन्न करने वाला होता है। और जैनमत में तो ज्ञान विकल्प को उत्पन्न करने वाला है ही नहीं, किंतु स्वरूप से ही विकल्प सहित है। और इसी प्रकार स्वपरप्रकाशक भी है। उत्तर–परिहार करते हैं। जैन सिद्धांत में ज्ञान को कथंचित् सविकल्प और कथंचित निर्विकल्प माना गया है। सो ही दिखाते हैं। जैसे विषयों में आनंदरूप जो स्वसंवेदन है वह राग के जानने रूप विकल्पस्वरूप होने से सविकल्प है, तो भी शेष अनिच्छित जो सूक्ष्म विकल्प हैं उनका सद्भाव होने पर भी उन विकल्पों की मुख्यता नहीं; इस कारण से उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं। इसी प्रकार निज शुद्धात्मा के अनुभवरूप जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान है वह आत्मसंवेदन के आकाररूप एक विकल्प के होने से यद्यपि सविकल्प है, तथापि बाह्य विषयों के अनिच्छित विकल्पों का उस ज्ञान में सद्भाव होने पर भी उनकी उस ज्ञान में मुख्यता नहीं है, इस कारण से उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं। तथा–क्योंकि यहाँ अपूर्व संवित्ति के आकाररूप अंतरंग में मुख्य प्रतिभास के होने पर भी बाह्य विषय वाले अनिच्छित सूक्ष्म विकल्प भी हैं। इस कारण ज्ञान निज तथा पर को प्रकाश करने वाला भी सिद्ध हुआ।
- शुक्लध्यान में कथंचित् विकल्प व निर्विकल्पपना
ज्ञानार्णव/41/8 न पश्यति तदा किंचिन्न शृणोति न जिघ्रति। स्पृष्टं किंचिन्न जानाति साक्षन्निर्वृत्तिलेपवत्। = उस (शुक्ल) ध्यान के समय चित्राम की मूर्ति की तरह हो जाता है। इस कारण यह योगी न तो कुछ देखता है, न कुछ सुनता है, न कुछ संघता है और न कुछ स्पर्श किये हुए को जानता है।8।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/842-843 यत्पुनज्ञनिमेकत्र नैरंतर्येण कुत्रचित्। अस्ति तद्ध्यानमत्रापि क्रमो नाप्यक्रमोऽर्थतः।842। एकरूपमिवाभाति ज्ञानं ध्यानैकतानतः। तत् स्यात् पुनः पुनर्वृत्तिरूपं स्यात्क्रमवर्ति च ।843। = किंतु जो किसी विषय में निरंतर रूप से ज्ञान रहता है, उसे ध्यान कहते हैं और इस ध्यान में भी वास्तव में क्रम ही है, किंतु अक्रम नहीं है।842। ध्यान की एकाग्रता के कारण ध्यानरूप ज्ञान अक्रमवर्ति की तरह प्रतीत होता है, परंतु वह ध्यानरूप ज्ञान पुनः-पुनः उसी-उसी विषय में होता रहता है, इसलिए क्रमवर्ती ही है।843।
- केवलज्ञान में कथंचित् निर्विकल्प व सविकल्पपना
प्रवचनसार/42 परिणमदि णेयमट्ठं णादा जदि णेव खाइगं तस्स। णाणंत्ति तं जिणिंदा खवयंतं कम्ममेवुत्त।42। = ज्ञाता यदि ज्ञेय पदार्थ रूप परिणमित होता है (अर्थात् ‘यह काला है, यह पीला है’ ऐसा विकल्प करता है तो उसके क्षायिकज्ञान होता ही नहीं। जिनेंद्रदेवों ने ऐसे ज्ञान को कर्म को ही अनुभव करने वाला कहा है।42।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/836, 845 अस्ति क्षायिकज्ञानस्य विकल्पत्वं स्वलक्षणात्। नार्थादार्थांतराकारयोगसंक्रांतिलक्षणात्।836। नोह्यं तत्राप्यतिव्याप्तिः क्षायिकात्यक्षसंविदि। स्यात्परिणामवत्त्वेऽपि पुनर्वृत्तेरसंभवात्।845। = स्वलक्षण की अपेक्षा से क्षायिकज्ञान में जो विकल्पपना है वह अर्थ से अर्थांतराकाररूप योग संक्रांति के विकल्प की अपेक्षा नहीं है।836। क्षायिक अतींद्रिय केवलज्ञान में अतिव्याप्ति का प्रसंग भी नहीं आता, क्योंकि उसमें स्वाभाविक रूप से परिणमन होते हुए भी पुनर्वृत्ति संभव नहीं है।845।
- निर्विकल्प केवलज्ञान ज्ञेय को कैसे जाने
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/170 कथमिति चेत्, पूर्वोक्तस्वरूपमात्मानं खलु न जानात्यात्मा स्वरूपावस्थितः संतिष्ठति। यथोष्णस्वरूपस्याग्नेः स्वरूपमग्निः किं जानाति, तथैव ज्ञानज्ञेयविकल्पाभावात् सोऽयमात्मात्मनि तिष्ठति। हंहो प्राथमिकशिष्य अग्निवदयमात्मा किमचेतनः। किं वहुना। तमात्मानं ज्ञानं न जानाति चेद् देवदत्तरहितपरशुवत् इदं हि नार्थक्रियाकारि, अतएव आत्मनः सकाशाद् व्यतिरिक्तं भवति। तन्न खलु संयतं स्वभाववादिनामिति। = प्रश्न–वह (विपरीत वितर्क) किस प्रकार है? पूर्वोक्तस्वरूप आत्मा को आत्मा वास्तव में जानता नहीं है, स्वरूप में अवस्थित रहता है। जिस प्रकार उष्णतास्वरूप अग्नि के स्वरूप को क्या अग्नि जानती है? उसी प्रकार ज्ञानज्ञेय संबंधी विकल्प के अभाव से यह आत्मा आत्मा में स्थित रहता है। उत्तर–हे प्राथमिक शिष्य, अग्नि की भाँति क्या आत्मा अचेतन है? अधिक क्या कहा जाय, यदि उस आत्मा को ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ी की भाँति अर्थक्रियाकारी सिद्ध नहीं होगा और इसलिए वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा। और वह वास्तव में स्वभाववादियों को सम्मत नहीं है।–(विशेष देखें केवलज्ञान - 6)।