विदेह: Difference between revisions
From जैनकोष
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| लांगलावर्ता || मंजूषा || | | लांगलावर्ता|| मंजूषा || | ||
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|पुष्कला || | |पुष्कला || औषधी|| | ||
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|पुष्कलावती || | |पुष्कलावती ||पुंडरीकिणी|| | ||
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|सुवप्रा | |सुवप्रा ||वैजयंती|| | ||
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|वप्रकावती|| | |वप्रकावती|| अपराजिता|| | ||
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|गंधा || | |गंधा || चक्रा|| | ||
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|सुगंधा|| | |सुगंधा|| खड्गा|| | ||
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|गंधिका || | |गंधिका ||अयोध्या|| | ||
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|गंधमालिनी | |गंधमालिनी || अवध्या|| | ||
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|वत्सकावती || | |वत्सकावती || प्रभंकरा|| | ||
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|रम्या || अंकावती|| | |रम्या || अंकावती|| | ||
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|रम्यका | |रम्यका || पद्मावती|| | ||
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|रमणीया || शुभा|| | |रमणीया || शुभा|| | ||
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|पद्मा || अश्वपुरी|| | |पद्मा || अश्वपुरी|| |
Revision as of 21:25, 31 January 2023
सिद्धांतकोष से
- राजवार्तिक/3/10/11/172/33 विगतदेहाः विदेहाः। के पुनस्ते। येषां देहो नास्ति, कर्मबंधसंतानोच्छेदात्। ये वा सत्यपि देहे विगतशरीरसंस्कारास्ते विदेहाः। तद्योगाज्जनपदे विदेहव्यपदेशः। तत्र हि मनुष्यो देहोच्छेदार्थं यतमाना विदेहत्वमास्कंदंति। ननु च भरतैरावतयोरपि विदेहाः संति। सत्यं, संति कदाचिन्न तु सर्वकालम्, तत्र तु सततं धर्मोच्छेदाभावाद्विदेहाः संतीति प्रकर्षापेक्षो विदेहव्यपदेशः। क्व पुनरसौ। निषधनीलवतोरंतराले तत्संनिवेशः। = विगतदेह अर्थात् देहरहित सिद्धभगवान् विदेह कहलाते हैं, क्योंकि उनके कर्मबंधन का उच्छेद हो गया है। अथवा देह के होते हुए भी जो शरीर के संस्कारों से रहित हैं ऐसे अर्हंत भगवान् विदेह हैं। उनके योग से उस देश को भी विदेह कहते हैं। वहाँ रहने वाले मनुष्य देह का उच्छेद करने के लिए यत्न करते हुए विदेहत्व को प्राप्त किया करते हैं।
प्रश्न–इस प्रकार तो भरत और ऐरावत क्षेत्रों में भी विदेह होते हैं?
उत्तर–होते अवश्य हैं, परंतु सदा नहीं, कभी-कभी होते हैं और विदेह क्षेत्र में तो सतत धर्मोच्छेद का अभाव ही रहता है, अर्थात् वहाँ धर्म की धारा अविच्छिन्न रूप से बहती है, इसलिए वहाँ सदा विदेही जन (अर्हंत भगवान्) रहते हैं। अतः प्रकर्ष की अपेक्षा उसकी विदेह कहा जाता है। यह क्षेत्र निषध और नील पर्वतों के अंतराल में है। [इसके बहु मध्य भाग में एक सुमेरु व चार गजदंत पर्वत हैं, जिनसे रोका गया भू-खंड उत्तरकुरु व देवकुरु कहलाते हैं। इनके पूर्व व पश्चिम में स्थित क्षेत्रों को पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह कहते हैं। यह दोनों ही विदेह चार-चार वक्षार गिरियों, तीन-तीन विभंगा नदियों और सीता व सीतोदा नाम की महानदियों द्वारा 16-16 देशों में विभाजित कर दिये गये हैं। इन्हें ही 32 विदेह कहते हैं। इस एक-एक सुमेरु संबंधी 32-32 विदेह हैं। पाँच सुमेरुओं के मिलकर कुल 160 विदेह होते हैं ]–(विशेष देखें लोक - 3.3, 12, 14)।
त्रिलोकसार/ मू./680-681 देसा दुब्भिक्खीदीमारिकुदेववण्णलिंगमदहीणा। भरिदा सदावि केवलिसलागपुरिसिड्ढि-साहूहिं।680। तित्थद्धसयलचक्की सट्ठिसयं पुह वरेण अवरेण। वीसं वीसं सयले खेत्तेसत्तरिसयं वरदो।681। = विदेह क्षेत्र के उपरोक्त सर्व देश अतिवृष्टि, अनावृष्टि, मूसा, टीडी, सूवा, अपनी सेना और पर की सेना इन सात प्रकार की ईतियों से रहित हैं। रोग मरी आदि से रहित हैं। कुदेव, कुलिंगी और कुमत से रहित हैं। केवलज्ञानी, तीर्थंकरादि शलाकापुरुष और ऋद्धिधारी साधुओं से सदा पूर्ण रहते हैं। 680। तीर्थंकर, चक्रवर्ती व अर्धचक्री नारायण व प्रतिनारायण, ये यदि अधिक से अधिक होवें तो प्रत्येक देश में एक-एक होते हैं और इस प्रकार कुल 160 होते हैं। यदि कम से कम होवें तो सीता और सीतोदा के दक्षिण और उत्तर तटों पर एक-एक होते हैं ,इस प्रकार एक विदेह में चार और पाँचों विदेहों में 20 होते हैं । पाँचों भरत व पाँचों ऐरावत के मिलाने पर उत्कृष्ट रूप से 170 होते हैं। ( महापुराण/76/496-497 )। - द्वारवंग (दरभंगा) के समीप का प्रदेश है। मिथिला या जनकपुरी इसी देश में है। ( महापुराण प्र.50/पं. पन्नालाल)।
पुराणकोष से
जंबूद्वीप का चौथा क्षेत्र । यहाँ विद्याधरों का गमनागमन होता है । भव्य जिन-मंदिरों के आधारभूत सुमेरु, गजयंत, विजयार्ध आदि पर्वतों से यह युक्त है । इसका विस्तार तैंतीस हजार छ: सौ चौरासी योजन तथा एक योजन के उन्नीस भागों में चार भाग प्रमाण है । यहाँ वक्षारगिरि और विभंगानदियों के मध्य में सीता-सीतोदा नदियों के तटों पर मेरु की पूर्व और पश्चिम दिशाओं में बत्तीस विदेह हैं । पश्चिम विदेहक्षेत्र के देश और उनकी राज्यधानियाँ निम्न प्रकार हैं―
देश | राजधानी | |
---|---|---|
कच्छा | क्षेमा | |
सुकच्छा | क्षेमपुरी | |
महाकच्छा | रिष्टा | |
कच्छकावती | रिष्टपुरी | |
आवर्ता | खड्गा | |
लांगलावर्ता | मंजूषा | |
पुष्कला | औषधी | |
पुष्कलावती | पुंडरीकिणी | |
वप्रा | विजया | |
सुवप्रा | वैजयंती | |
महावप्रा | जयंती | |
वप्रकावती | अपराजिता | |
गंधा | चक्रा | |
सुगंधा | खड्गा | |
गंधिका | अयोध्या | |
गंधमालिनी | अवध्या |
देश | नाम राजधानी | |
---|---|---|
वत्सा | सुसीमा | |
सुवत्सा | कुंडला | |
महावत्सा | अपराजिता | |
वत्सकावती | प्रभंकरा | |
रम्या | अंकावती | |
रम्यका | पद्मावती | |
रमणीया | शुभा | |
मंगलावती | रत्नसंचय | |
पद्मा | अश्वपुरी | |
सुपद्मा | सिंहपुरी | |
महापद्मा | महापुरी | |
पद्मकावती | विजयापुरी | |
शंखा | अरजा | |
नलिनी | विरजा | |
कुमुदा | अशोका | |
सरिता | वीतशोका |
इनमें पश्चिम विदेहक्षेत्र के कच्छा आदि आठ देश ,सीता नदी और नील कुलाचल के मध्य में प्रद्रक्षिणा रूप से तथा वप्रा आदि आठ देश, नील कुलाचल और सीतोदा नदी के मध्य में दक्षिणोत्तर लंबे स्थित हैं । पूर्व विदेहक्षेत्र के देशों में वत्सा आदि आठ देश, सीता नदी और निषिध पर्वत के मध्य में तथा पद्मा आठ देश, सीतोदा नदी और निषध पर्वत के मध्य में दक्षिणोत्तर लंबे स्थित है । यहाँ चक्रवर्तियों का निवास रहता है । राजधानियाँ दक्षिणोत्तर-दिशा में बारह योजन लंबी और पूर्व-पश्चिम में नौ योजन चौड़ी, स्वर्णमय कोट और तोरणों से मुक्त है । अढ़ाई द्वीप में जंबूद्वीप के दो, घातकीखंड के दो और पुष्करार्ध का एक ,इस प्रकार पाँच विदेहक्षेत्र होते हैं । इनमें प्रत्येक के बत्तीस-बत्तीस भेद बताये हैं । अत: ढाई द्वीप में कुल एक सौ आठ विदेहक्षेत्र हैं । सभी विदेहक्षेत्रों में मनुष्यों की ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण तथा आयु एक कोटि पूर्व वर्ष प्रमाण रहती है । प्रत्येक विदेहक्षेत्र में तीर्थंकर, चकवर्ती, बलभद्र और नारायण अधिक से अघिक एक सौ आठ और कम से कम बीस होते हैं । चौदहों कुलकर पूर्वभव में इन्हीं क्षेत्रों में उच्चकुलीन महापुरुष होते थे । इन क्षेत्रों से मुनि अपने कर्मों को नष्ट करके विदेह- देह रहित होकर निर्वाण प्राप्त करते हैं । परिणामस्वरूप क्षेत्र का विदेह नाम सार्थक है । महापुराण 3. 207, 4.53, 63. 191, 76. 494-496, पद्मपुराण 5.25-26, 91, 171, 244-265, 23. 7, 105, 159-160, हरिवंशपुराण 5.13
(2) मध्यदेश का एक देश । वृषभदेव के समय में स्वयं इंद्र ने इसका निर्माण किया था । यह जंबूद्वीप में स्थित भरतक्षेत्र के आर्यखंड में है । राजा सिद्धार्थ का कुंड नगर इसी देश में था । महापुराण 16.155, 74.251-252, हरिवंशपुराण 11. 75, पांडवपुराण 1. 71-77, वीरवर्द्धमान चरित्र 7.2-3, 8-10
(3) विदेह देश का एक नगर । गोपेंद्र यहाँ का राजा था । महापुराण 75.643