विभाव का कथंचित् सहेतुकपना: Difference between revisions
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<li class="HindiText"> सम्यक्त्व को रोकने वाला मिथ्यात्व (कर्म) है, ऐसा जिनवरों ने कहा है, उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है।१६१। [इसी प्रकार ज्ञान व चारित्र के प्रतिबन्धक अज्ञान व कषाय नामक कर्म हैं।१६२-१६३। (स.सा./मू./१५७-१५९)] </li> | <li class="HindiText"> सम्यक्त्व को रोकने वाला मिथ्यात्व (कर्म) है, ऐसा जिनवरों ने कहा है, उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है।१६१। [इसी प्रकार ज्ञान व चारित्र के प्रतिबन्धक अज्ञान व कषाय नामक कर्म हैं।१६२-१६३। (स.सा./मू./१५७-१५९)] </li> | ||
<li><span class="HindiText"> जैसे स्फटिकमणि शुद्ध होने से ललाई आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता, परन्तु अन्य रक्तादि द्रव्यों से रक्त आदि किया जाता है, इसी प्रकार ज्ञानी अर्थात् आत्मा शुद्ध होने से रागादि रूप स्वयं नहीं परिणमता परन्तु अन्य रागादि दोषों से (रागादि के निमित्तभूत परद्रव्यों से–टीका) रागी आदि किया जाता है।२७८-२७९। (स.सा./आ./८९), (स.सा./ता.वृ./१२५/१७९/११); ( | <li><span class="HindiText"> जैसे स्फटिकमणि शुद्ध होने से ललाई आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता, परन्तु अन्य रक्तादि द्रव्यों से रक्त आदि किया जाता है, इसी प्रकार ज्ञानी अर्थात् आत्मा शुद्ध होने से रागादि रूप स्वयं नहीं परिणमता परन्तु अन्य रागादि दोषों से (रागादि के निमित्तभूत परद्रव्यों से–टीका) रागी आदि किया जाता है।२७८-२७९। (स.सा./आ./८९), (स.सा./ता.वृ./१२५/१७९/११); ( देखें - [[ परिग्रह#4.3 | परिग्रह / ४ / ३ ]])। </span><br /> | ||
पं.का./मू./५८<span class="PrakritGatha"> कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा। खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं।५८।</span> = <span class="HindiText">कर्म बिना जीव को उदय, उपशम, क्षायिक, अथवा क्षायोपशमिक (भाव) नहीं होते हैं, इसलिए (ये चारों) भाव कर्मकृत हैं। </span><br /> | पं.का./मू./५८<span class="PrakritGatha"> कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा। खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं।५८।</span> = <span class="HindiText">कर्म बिना जीव को उदय, उपशम, क्षायिक, अथवा क्षायोपशमिक (भाव) नहीं होते हैं, इसलिए (ये चारों) भाव कर्मकृत हैं। </span><br /> | ||
त.सू./१०/२ <span class="SanskritText">बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कुत्सन्कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः। </span>= <span class="HindiText">बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है। </span><br /> | त.सू./१०/२ <span class="SanskritText">बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कुत्सन्कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः। </span>= <span class="HindiText">बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है। </span><br /> | ||
क.पा./१/१, १३, १४/२८५/३२०/२ <span class="PrakritText">वत्थालंकाराइसु बज्झावलंबणेण विणा तदणुप्पत्तीदो।</span> = <span class="HindiText">वस्त्र और अलंकार आदि बाह्य आलम्बन के बिना कषाय की उत्पत्ति नहीं होती है। <br /> | क.पा./१/१, १३, १४/२८५/३२०/२ <span class="PrakritText">वत्थालंकाराइसु बज्झावलंबणेण विणा तदणुप्पत्तीदो।</span> = <span class="HindiText">वस्त्र और अलंकार आदि बाह्य आलम्बन के बिना कषाय की उत्पत्ति नहीं होती है। <br /> | ||
देखें - [[ कषाय#2.3 | कषाय / २ / ३ ]](कर्म के बिना कषाय की उत्पत्ति नहीं होती है।) <br /> | |||
देखें - [[ कारण#III.5.6 | कारण / III / ५ / ६ ]](कर्म के उदय से ही जीव उपशान्त-कषाय गुणस्थान से नीचे गिरता है।) </span><br /> | |||
ध.१२/४, २, ८, १/२७५/४ <span class="PrakritText">सव्वं कम्मं कज्जं चेव, अकज्जस्स कम्मस्स सससिंगस्सेव अभावावत्तीदी। ण च एवं, कोहादिकज्जणमत्थित्तण्णहाणुववत्तीदी कम्माणमत्थित्तसिद्धीए। कज्जं पि सव्वं सहे उअं चेव, णिक्कारणस्स कज्जस्स अणुवलंभादो।</span> = <span class="HindiText">सब कर्म कार्य स्वरूप ही हैं, क्योंकि जो कर्म अकार्यस्वरूप होते हैं, उनका खरगोश के सींग के समान अभाव का प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि क्रोधादि रूप कार्यों का अस्तित्व बिना कर्म के बन नहीं सकता, अतएव कर्म का अस्तित्व सिद्ध ही है। कार्य भी जितना है वह सब सकारण ही होता है, क्योंकि कारण रहित कार्य पाया नहीं जाता। (आप्त, प./टी./११५/२९९/२४८/७)। </span><br /> | ध.१२/४, २, ८, १/२७५/४ <span class="PrakritText">सव्वं कम्मं कज्जं चेव, अकज्जस्स कम्मस्स सससिंगस्सेव अभावावत्तीदी। ण च एवं, कोहादिकज्जणमत्थित्तण्णहाणुववत्तीदी कम्माणमत्थित्तसिद्धीए। कज्जं पि सव्वं सहे उअं चेव, णिक्कारणस्स कज्जस्स अणुवलंभादो।</span> = <span class="HindiText">सब कर्म कार्य स्वरूप ही हैं, क्योंकि जो कर्म अकार्यस्वरूप होते हैं, उनका खरगोश के सींग के समान अभाव का प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि क्रोधादि रूप कार्यों का अस्तित्व बिना कर्म के बन नहीं सकता, अतएव कर्म का अस्तित्व सिद्ध ही है। कार्य भी जितना है वह सब सकारण ही होता है, क्योंकि कारण रहित कार्य पाया नहीं जाता। (आप्त, प./टी./११५/२९९/२४८/७)। </span><br /> | ||
न.च.वृ./१९ <span class="PrakritText">जीवे जीवसहाया ते वि विहावा हु कम्मकदा।१।</span> = <span class="HindiText">जीव में जीवस्वभाव होते हैं। तथा कर्मकृत उसके स्वभाव विभाव कहलाते हैं। </span><br /> | न.च.वृ./१९ <span class="PrakritText">जीवे जीवसहाया ते वि विहावा हु कम्मकदा।१।</span> = <span class="HindiText">जीव में जीवस्वभाव होते हैं। तथा कर्मकृत उसके स्वभाव विभाव कहलाते हैं। </span><br /> | ||
पं.ध./उ./१०५४ <span class="SanskritGatha">यत्र कुत्राषि वान्यत्र रागांशी बुद्धिपूर्वकः। स स्याद्द्वैविध्यमोहस्य पाकाद्वान्यतमोदयात्।१०५४।</span> = <span class="HindiText">जहाँ कहीं अन्यत्र भी अर्थात् किसी भी दशा में बुद्धिपूर्वक रागांश पाया जाता है वह केवल दर्शन व चारित्रमोहनीय के उदय से अथवा उनमें से किसी एक के उदय से ही होता है।१०५४। <br /> | पं.ध./उ./१०५४ <span class="SanskritGatha">यत्र कुत्राषि वान्यत्र रागांशी बुद्धिपूर्वकः। स स्याद्द्वैविध्यमोहस्य पाकाद्वान्यतमोदयात्।१०५४।</span> = <span class="HindiText">जहाँ कहीं अन्यत्र भी अर्थात् किसी भी दशा में बुद्धिपूर्वक रागांश पाया जाता है वह केवल दर्शन व चारित्रमोहनीय के उदय से अथवा उनमें से किसी एक के उदय से ही होता है।१०५४। <br /> | ||
देखें - [[ विभाव#1.2 | विभाव / १ / २ ]], ३ (जीव का विभाव वैभाविकी शक्ति के कारण से होता है और वह वैभाविकी शक्ति भी अन्य सम्पूर्ण सामग्री के सद्भाव में ही विभाव रूप परिणमन करती है।) <br /> | |||
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स.सा./मू./२५७-२५८ <span class="PrakritGatha">जो मरइ जो य दुहिदो जायदि कम्मोदयेण सो सव्वी। तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।२५७। जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदयेण चेव खलु। तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।२५८। </span>= <span class="HindiText">जो मरता है और जो दुखी होता है वह सब कर्मोदय से होता है, इसलिए ‘मैंने मारा, मैंने दुःखी किया’ ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है।२५७। और जो न मरता है और न दुःखी होता है वह भी वास्तव में कर्मोदय से ही होता है, इसलिए ‘मैंने नहीं मारा, मैंने दुःखी नहीं किया’, ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है।२५८। <br /> | स.सा./मू./२५७-२५८ <span class="PrakritGatha">जो मरइ जो य दुहिदो जायदि कम्मोदयेण सो सव्वी। तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।२५७। जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदयेण चेव खलु। तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।२५८। </span>= <span class="HindiText">जो मरता है और जो दुखी होता है वह सब कर्मोदय से होता है, इसलिए ‘मैंने मारा, मैंने दुःखी किया’ ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है।२५७। और जो न मरता है और न दुःखी होता है वह भी वास्तव में कर्मोदय से ही होता है, इसलिए ‘मैंने नहीं मारा, मैंने दुःखी नहीं किया’, ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है।२५८। <br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./११७ यथा खलु ज्योतिः स्वभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाणः प्रदीपो ज्योतिः कार्य तथा कर्मस्वभावेन स्वस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्मकार्यम्। = जिस प्रकार ज्योति के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके किया जाने वाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी प्रकार कर्मस्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाने वाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं। <br /> | प्र.सा./त.प्र./११७ यथा खलु ज्योतिः स्वभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाणः प्रदीपो ज्योतिः कार्य तथा कर्मस्वभावेन स्वस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्मकार्यम्। = जिस प्रकार ज्योति के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके किया जाने वाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी प्रकार कर्मस्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाने वाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं। <br /> | ||
देखें - [[ कर्म#3.2 | कर्म / ३ / २ ]](जीवों के ज्ञान में वृद्धि हानि कर्म के बिना नहीं हो सकती।) <br /> | |||
देखें - [[ मोक्ष#5.4 | मोक्ष / ५ / ४ ]](जीव प्रदेशों का संकोच विस्तार भी कर्म सम्बन्ध से ही होता है।) <br /> | |||
देखें - [[ कारणा#III.5.3 | कारणा / III / ५ / ३ ]]- (शेर, भेड़िया आदि में शूरता-क्रूरता आदि कर्मकृत हैं।) <br /> | |||
देखें - [[ आनुपूर्वी | आनुपूर्वी ]]- (विग्रहगति में जीव का आकार आनुपूर्वी कर्म के उदय से होता है।) <br /> | |||
देखें - [[ मरण#5.8 | मरण / ५ / ८ ]]- (मारणान्तिक समुद्धात में जीव के प्रदेशों का विस्तार आयु कर्म का कार्य है।) <br /> | |||
देखें - [[ सुख | सुख ]](अलौकिक)–(सुख तो जीव का स्वभाव है पर दुःख जीव का स्वभाव नहीं है, क्योंकि वह असाता वेदनीय कर्म के उदय से होता है।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> पौद्गलिक विभाव सहेतुक है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> पौद्गलिक विभाव सहेतुक है</strong> </span><br /> | ||
न.च.वृ./२० <span class="PrakritGatha">पुग्गलदव्वे जो पुण विब्भाओ कालपेरिओ होदि। सो णिद्धरुक्खसहिदो बंधो खलु होई तस्सेव।२०। </span>= <span class="HindiText">काल से प्रेरित हेाकर पुद्गल का जो विभाव होता है उसका ही सिन्ग्ध व रूक्ष सहित बन्ध होता है। </span><br /> | न.च.वृ./२० <span class="PrakritGatha">पुग्गलदव्वे जो पुण विब्भाओ कालपेरिओ होदि। सो णिद्धरुक्खसहिदो बंधो खलु होई तस्सेव।२०। </span>= <span class="HindiText">काल से प्रेरित हेाकर पुद्गल का जो विभाव होता है उसका ही सिन्ग्ध व रूक्ष सहित बन्ध होता है। </span><br /> | ||
पं.वि./२३/७<span class="SanskritText"> यत्तस्मात्पृथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्। </span>= <span class="HindiText">लोक में जो भी विकार होता है वह दो पदार्थों के निमित्त से होता है। <br /> | पं.वि./२३/७<span class="SanskritText"> यत्तस्मात्पृथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्। </span>= <span class="HindiText">लोक में जो भी विकार होता है वह दो पदार्थों के निमित्त से होता है। <br /> | ||
देखें - [[ मोक्ष#6.4 | मोक्ष / ६ / ४ ]](द्रव्यकर्म भी सहेतुक हैं, क्योंकि अन्यथा उनका विनाश बन नहीं सकता)। </span></li> | |||
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Revision as of 16:25, 6 October 2014
- विभाव का कथंचित् सहेतुकपना
- जीव के कषाय आदि विभाव सहेतुक हैं
स.सा./मू./गा.‘‘सम्मत्तपडिणिवद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं। तस्सोदयेण जीवो मिच्छदिट्ठित्ति णायव्वो।५६१। जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमेईहिं। रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तदीहिं दव्वेहिं।२७८। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। राइज्जदि अण्णेहिं दु सो रागादीहिं दोसेहिं।२७९। =- सम्यक्त्व को रोकने वाला मिथ्यात्व (कर्म) है, ऐसा जिनवरों ने कहा है, उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है।१६१। [इसी प्रकार ज्ञान व चारित्र के प्रतिबन्धक अज्ञान व कषाय नामक कर्म हैं।१६२-१६३। (स.सा./मू./१५७-१५९)]
- जैसे स्फटिकमणि शुद्ध होने से ललाई आदि रूप स्वयं नहीं परिणमता, परन्तु अन्य रक्तादि द्रव्यों से रक्त आदि किया जाता है, इसी प्रकार ज्ञानी अर्थात् आत्मा शुद्ध होने से रागादि रूप स्वयं नहीं परिणमता परन्तु अन्य रागादि दोषों से (रागादि के निमित्तभूत परद्रव्यों से–टीका) रागी आदि किया जाता है।२७८-२७९। (स.सा./आ./८९), (स.सा./ता.वृ./१२५/१७९/११); ( देखें - परिग्रह / ४ / ३ )।
पं.का./मू./५८ कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा। खइयं खओवसमियं तम्हा भावं तु कम्मकदं।५८। = कर्म बिना जीव को उदय, उपशम, क्षायिक, अथवा क्षायोपशमिक (भाव) नहीं होते हैं, इसलिए (ये चारों) भाव कर्मकृत हैं।
त.सू./१०/२ बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कुत्सन्कर्मविप्रमोक्षो मोक्षः। = बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है।
क.पा./१/१, १३, १४/२८५/३२०/२ वत्थालंकाराइसु बज्झावलंबणेण विणा तदणुप्पत्तीदो। = वस्त्र और अलंकार आदि बाह्य आलम्बन के बिना कषाय की उत्पत्ति नहीं होती है।
देखें - कषाय / २ / ३ (कर्म के बिना कषाय की उत्पत्ति नहीं होती है।)
देखें - कारण / III / ५ / ६ (कर्म के उदय से ही जीव उपशान्त-कषाय गुणस्थान से नीचे गिरता है।)
ध.१२/४, २, ८, १/२७५/४ सव्वं कम्मं कज्जं चेव, अकज्जस्स कम्मस्स सससिंगस्सेव अभावावत्तीदी। ण च एवं, कोहादिकज्जणमत्थित्तण्णहाणुववत्तीदी कम्माणमत्थित्तसिद्धीए। कज्जं पि सव्वं सहे उअं चेव, णिक्कारणस्स कज्जस्स अणुवलंभादो। = सब कर्म कार्य स्वरूप ही हैं, क्योंकि जो कर्म अकार्यस्वरूप होते हैं, उनका खरगोश के सींग के समान अभाव का प्रसंग आता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि क्रोधादि रूप कार्यों का अस्तित्व बिना कर्म के बन नहीं सकता, अतएव कर्म का अस्तित्व सिद्ध ही है। कार्य भी जितना है वह सब सकारण ही होता है, क्योंकि कारण रहित कार्य पाया नहीं जाता। (आप्त, प./टी./११५/२९९/२४८/७)।
न.च.वृ./१९ जीवे जीवसहाया ते वि विहावा हु कम्मकदा।१। = जीव में जीवस्वभाव होते हैं। तथा कर्मकृत उसके स्वभाव विभाव कहलाते हैं।
पं.ध./उ./१०५४ यत्र कुत्राषि वान्यत्र रागांशी बुद्धिपूर्वकः। स स्याद्द्वैविध्यमोहस्य पाकाद्वान्यतमोदयात्।१०५४। = जहाँ कहीं अन्यत्र भी अर्थात् किसी भी दशा में बुद्धिपूर्वक रागांश पाया जाता है वह केवल दर्शन व चारित्रमोहनीय के उदय से अथवा उनमें से किसी एक के उदय से ही होता है।१०५४।
देखें - विभाव / १ / २ , ३ (जीव का विभाव वैभाविकी शक्ति के कारण से होता है और वह वैभाविकी शक्ति भी अन्य सम्पूर्ण सामग्री के सद्भाव में ही विभाव रूप परिणमन करती है।)
- जीव की अन्य पर्यायें भी कर्मकृत हैं
स.सा./मू./२५७-२५८ जो मरइ जो य दुहिदो जायदि कम्मोदयेण सो सव्वी। तम्हा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।२५७। जो ण मरदि ण य दुहिदो सो वि य कम्मोदयेण चेव खलु। तम्हा ण मारिदो णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा।२५८। = जो मरता है और जो दुखी होता है वह सब कर्मोदय से होता है, इसलिए ‘मैंने मारा, मैंने दुःखी किया’ ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है।२५७। और जो न मरता है और न दुःखी होता है वह भी वास्तव में कर्मोदय से ही होता है, इसलिए ‘मैंने नहीं मारा, मैंने दुःखी नहीं किया’, ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है।२५८।
प्र.सा./त.प्र./११७ यथा खलु ज्योतिः स्वभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाणः प्रदीपो ज्योतिः कार्य तथा कर्मस्वभावेन स्वस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्मकार्यम्। = जिस प्रकार ज्योति के स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके किया जाने वाला दीपक ज्योति का कार्य है, उसी प्रकार कर्मस्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाने वाली मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य हैं।
देखें - कर्म / ३ / २ (जीवों के ज्ञान में वृद्धि हानि कर्म के बिना नहीं हो सकती।)
देखें - मोक्ष / ५ / ४ (जीव प्रदेशों का संकोच विस्तार भी कर्म सम्बन्ध से ही होता है।)
देखें - कारणा / III / ५ / ३ - (शेर, भेड़िया आदि में शूरता-क्रूरता आदि कर्मकृत हैं।)
देखें - आनुपूर्वी - (विग्रहगति में जीव का आकार आनुपूर्वी कर्म के उदय से होता है।)
देखें - मरण / ५ / ८ - (मारणान्तिक समुद्धात में जीव के प्रदेशों का विस्तार आयु कर्म का कार्य है।)
देखें - सुख (अलौकिक)–(सुख तो जीव का स्वभाव है पर दुःख जीव का स्वभाव नहीं है, क्योंकि वह असाता वेदनीय कर्म के उदय से होता है।)
- पौद्गलिक विभाव सहेतुक है
न.च.वृ./२० पुग्गलदव्वे जो पुण विब्भाओ कालपेरिओ होदि। सो णिद्धरुक्खसहिदो बंधो खलु होई तस्सेव।२०। = काल से प्रेरित हेाकर पुद्गल का जो विभाव होता है उसका ही सिन्ग्ध व रूक्ष सहित बन्ध होता है।
पं.वि./२३/७ यत्तस्मात्पृथगेव स द्वयकृतो लोके विकारो भवेत्। = लोक में जो भी विकार होता है वह दो पदार्थों के निमित्त से होता है।
देखें - मोक्ष / ६ / ४ (द्रव्यकर्म भी सहेतुक हैं, क्योंकि अन्यथा उनका विनाश बन नहीं सकता)।
- जीव के कषाय आदि विभाव सहेतुक हैं