संख्या सामान्य निर्देश: Difference between revisions
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<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.1/1,1,7/गा.102/158 अत्थित्तस्स य तहेव परिमाणं।102। (टीका) संताणियोगम्हि जमत्थित्तं उत्तं तस्स पमाणं परूवेदि दव्वाणियोयो।</span> = <span class="HindiText">सत् प्ररूपणा में जो पदार्थों का अस्तित्व कहा गया है उनके प्रमाण का वर्णन करने वाली संख्या (द्रव्यानुयोग) प्ररूपणा करती है।</span></p> | ||
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<p><span class="SanskritText">रा.वा./ | <p><span class="SanskritText">रा.वा./18/15/43/4 विधानग्रहणादेव संख्यासिद्धिरिति; तन्न; किं कारणम् । भेदगणनार्थत्वात् । प्रकारगणनं हि तत्, भेदगणनार्थमिदमुच्यते-उपशमसम्यग्दृष्टय इयन्त:, क्षायिकसम्यग्दृष्टय पतावन्त: इति।</span> = <span class="HindiText">प्रश्न - विधान के ग्रहण से ही संख्या की सिद्धि हो जाती है। उत्तर - ऐसा नहीं है क्योंकि विधान के द्वारा सम्यग्दर्शनादिक के प्रकारों की गिनती की जाती है - इतने उपशम सम्यग्दृष्टि हैं, इतने क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं आदि।</span></p> | ||
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<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.7/2,5,29/258/3 एसो उवदेसो कोडाकोडाकोडाकोडिए हेट्ठदो त्ति सुत्तेण कधं विरुज्झदे। ण, एगकोडाकोडाकोडाकोडिमादि कादूण जाव रूवूणदसकोडाकोडाकोडाकोडि त्ति एदं सव्वं पि कोडाकोडाकोडाकोडि त्ति गहणादो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - यह उपदेश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी नीचे इस सूत्र में कैसे विरोध को प्राप्त न होगा। <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, एक कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी को आदि करके एक कम दश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी तक इस सबको भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी रूप से ग्रहण किया गया है।</span></p> | ||
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Revision as of 21:49, 5 July 2020
संख्या सामान्य निर्देश
1. संख्या व संख्या प्रमाण सामान्य का लक्षण
स.सि./1/8/29/6 संख्या भेदगणना। = संख्या से भेदों की गणना ली जाती है। (रा.वा./1/8/3/41,26)।
ध.1/1,1,7/गा.102/158 अत्थित्तस्स य तहेव परिमाणं।102। (टीका) संताणियोगम्हि जमत्थित्तं उत्तं तस्स पमाणं परूवेदि दव्वाणियोयो। = सत् प्ररूपणा में जो पदार्थों का अस्तित्व कहा गया है उनके प्रमाण का वर्णन करने वाली संख्या (द्रव्यानुयोग) प्ररूपणा करती है।
2. संख्या प्रमाण के भेद
ति.प./4/309/179/1 एत्थ उक्कस्ससंखेज्जयजाणणिमित्त जंबूदीववित्थारं सहस्सजोयण उव्बेधपमाणचत्तारिसरावया कादव्वा। सलागा पडिसलागा महासलागा ऐदे तिण्णि वि अवट्ठिदा चउत्थो अणवट्ठिदो। एदे सव्वे पण्णाए ठविदा। एत्थ चउत्थसरावयअब्भंतरे दुवे सरिसवेत्थुदे तं जहण्णं संखेज्जयं जादं। एदं पढमवियप्पं तिण्णि सरिसवेच्छुद्धे अजहण्णमणुक्कस्ससंखेज्जयं। एवं सरावए पुण्णे एदमुव्वरिमज्झिमवियप्पं। ...तदो एगरूवमवणीदे जादमुक्कस्संखज्जाओ। जम्हि-जम्हि संखेज्जयं मग्गिज्जदि तम्हि-तम्हि य जहण्ण मणुक्कस्ससंखेज्जयं गंतूण घेत्तव्वं। तं कस्स विसओ। चोद्दसपुव्विस्स। = यहाँ उत्कृष्ट संख्यात के जानने के निमित्त जम्बूद्वीप के समान विस्तार वाले (एक लाख योजन) और हजार योजन प्रमाण गहरे चार गड्ढे करना चाहिए। इनमें शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका ये तीन गड्ढे अवस्थित और चौथा अनवस्थित है। ये सब गड्ढे बुद्धि से स्थापित किये गये हैं। इनमें से चौथे कुण्ड के भीतर दो सरसों के डालने पर वह जघन्य संख्यात होता है। यह संख्यात का प्रथम विकल्प है। तीन सरसों के डालने पर अजघन्यानुत्कृष्ट (मध्यम) संख्यात होता है। इसी प्रकार एक-एक सरसों के डालने पर उस कुण्ड के पूर्ण होने तक यह तीन से ऊपर सब मध्यम संख्यात के विकल्प होते हैं। (रा.वा./3/38/5/206/18)। देखें गणित - I.1.6।
3. संख्या व विधान में अन्तर
रा.वा./18/15/43/4 विधानग्रहणादेव संख्यासिद्धिरिति; तन्न; किं कारणम् । भेदगणनार्थत्वात् । प्रकारगणनं हि तत्, भेदगणनार्थमिदमुच्यते-उपशमसम्यग्दृष्टय इयन्त:, क्षायिकसम्यग्दृष्टय पतावन्त: इति। = प्रश्न - विधान के ग्रहण से ही संख्या की सिद्धि हो जाती है। उत्तर - ऐसा नहीं है क्योंकि विधान के द्वारा सम्यग्दर्शनादिक के प्रकारों की गिनती की जाती है - इतने उपशम सम्यग्दृष्टि हैं, इतने क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं आदि।
4. कोडाकोडी रूप संख्याओं का समन्वय
ध.7/2,5,29/258/3 एसो उवदेसो कोडाकोडाकोडाकोडिए हेट्ठदो त्ति सुत्तेण कधं विरुज्झदे। ण, एगकोडाकोडाकोडाकोडिमादि कादूण जाव रूवूणदसकोडाकोडाकोडाकोडि त्ति एदं सव्वं पि कोडाकोडाकोडाकोडि त्ति गहणादो। = प्रश्न - यह उपदेश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी नीचे इस सूत्र में कैसे विरोध को प्राप्त न होगा। उत्तर - नहीं, क्योंकि, एक कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी को आदि करके एक कम दश कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी तक इस सबको भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी रूप से ग्रहण किया गया है।