सचित्त: Difference between revisions
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<span class="HindiText">जीव सहित पदार्थों को सचित्त कहते हैं। सूखने से, अग्नि पर पकने से, कटने छटने से अथवा नमक आदि पदार्थों से संसक्त होने पर वनस्पति, जल आदि पदार्थ अचित्त हो जाते हैं। व्रती लोग सचित्त पदार्थों का सेवन नहीं करते।</span> | <span class="HindiText">जीव सहित पदार्थों को सचित्त कहते हैं। सूखने से, अग्नि पर पकने से, कटने छटने से अथवा नमक आदि पदार्थों से संसक्त होने पर वनस्पति, जल आदि पदार्थ अचित्त हो जाते हैं। व्रती लोग सचित्त पदार्थों का सेवन नहीं करते।</span> | ||
<p class="HindiText"><strong>1. सचित्त सामान्य का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>1. सचित्त सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="SanskritText"> | <p class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/2/32/187/10 आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम् । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्त:।</p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/7/35/371/6 सह चित्तेन वर्तते इति सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् ।</span> = <span class="HindiText">1. आत्मा के चैतन्य विशेषरूप परिणाम को चित्त कहते हैं। जो उसके साथ रहता है वह सचित्त कहलाता है। ( राजवार्तिक/2/32/1/141/22 ) 2. जो चित्त सहित है वह सचित्त कहलाता है। ( राजवार्तिक/7/35/1/558 )।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>2. सचित्त त्याग प्रतिमा का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>2. सचित्त त्याग प्रतिमा का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> रत्नकरण्ड श्रावकाचार/141 मूलफलशाकशाखाकरीरकंदप्रसूनबीजानि। नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्ति:।</span> = <span class="HindiText">जो कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, जमीकन्द, पुष्प और बीज नहीं खाता है वह दया की मूर्ति सचित्त त्याग प्रतिमाधारी है।141। ( चारित्रसार/38/1 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/379-380 ); लाटी संहिता/7/16 )।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> | <p><span class="PrakritText"> वसुनन्दी श्रावकाचार/295 जं वज्जिज्जइ हरियं तुय-पत्त-पवाल-कंदफलबीयं। अप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिव्वित्ति तं ठाणं।</span> =<span class="HindiText">जहाँ पर हरित, त्वक् (छाल), पत्र, प्रवाल, कन्द, फल, बीज और अप्रासुक जल त्याग किया जाता है वह सचित्त विनिवृत्तिवाला पाँचवाँ प्रतिमा स्थान है। ( गुणभद्र श्रावकाचार/178 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/8 )।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/7/8-10 हरिताङ्कुरबीजस्य लवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रत्कृपश्चतुर्निष्ठ:, सञ्चित्तविरत: स्मृत:।8। पादेनापि स्मृशन्नर्थ-वशाद्योऽति ऋतीयते। हरितान्याश्रितानन्त-निगोतानि स भोक्ष्यते।9। अहो जिनोक्ति निर्णीतिरहो अक्षजिति: सताम् । नालक्ष्यजन्त्वपि हरित् प्यासन्त्येतेऽसुक्षयेऽपि यत् ।10।</span> =<span class="HindiText">प्रथम चार प्रतिमाओं का पालक तथा प्रासुक नहीं किये गये हरे अंकुर, हरे बीज, जल, नमकादि पदार्थों को नहीं खाने वाला दयामूर्ति श्रावक सचित्त विरत माना गया है।8। जो प्रयोजनवश पैर से भी छूता हुआ अपनी निन्दा करता है वह श्रावक मिले हुए हैं अनन्तानन्त निगोदिया जीव जिसमें ऐसी वनस्पतियों को कैसे खायेगा।9। सज्जनों का जिनागम सम्बन्धी निर्णय, इन्द्रिय विषय आश्चर्यजनक है, क्योंकि वैसे सज्जन दिखाई नहीं देते जो, प्राणों का क्षय होने पर भी हरी वनस्पति को नहीं खाते।10।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>3. सचित्तापिधान आदि के लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>3. सचित्तापिधान आदि के लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/7/35-36/371/6 सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् । तदुपश्लिष्ट: संबन्ध:। तद्व्यतिकीर्ण: संमिश्र:।35। सचित्ते पद्मपत्रादौ निक्षेप: सचित्तनिक्षेप:। अपिधानमावरणम् । सचित्तेनैव सबध्यते सचित्तापिधानमिति।36।</span> =<span class="HindiText">सचित्त से चेतना द्रव्य लिया जाता है। इससे सम्बन्ध को प्राप्त हुआ द्रव्य सम्बन्धाहार है। और इससे मिश्रित द्रव्य सम्मिश्र है।35। ( राजवार्तिक/7/35/2-3/558/4 )। सचित्त कमल पत्र आदि में रखना सचित्तनिक्षेप है। अपिधान का अर्थ ढाँकना है। इस शब्द को भी सचित्त शब्द से जोड़ लेना चाहि जिससे सचित्तापिधान का सचित्त कमलपत्र आदि से ढाँकना यह अर्थ फलित होता है। ( राजवार्तिक/7/36/1-2/558/20 )।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>4. भोगोपभोग परिमाण व्रत व सचित्त त्याग प्रतिमा में अन्तर</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>4. भोगोपभोग परिमाण व्रत व सचित्त त्याग प्रतिमा में अन्तर</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> चारित्रसार/38/1 अस्योपभोगपरिभोगपरिमाणशीलव्रतातिचारो व्रतं भवतीति। | ||
</span>=<span class="HindiText">उपभोग परिभोग परिमाण शील के जो अतिचार हैं उनका त्याग ही इस प्रतिमा में किया जाता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">उपभोग परिभोग परिमाण शील के जो अतिचार हैं उनका त्याग ही इस प्रतिमा में किया जाता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> सागार धर्मामृत/7/11 सचित्तभोजनं यत्प्राङ् मलत्वेन जिहासितम् । व्रतयत्यङ्गिपञ्चत्व-चकितस्तच्च पञ्चम:।11।</span> =<span class="HindiText">व्रती श्रावक ने सचित्त भोजन पहले भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार रूप से छोड़ा था उस सचित्त भोजन को प्राणियों के मरण से भयभीत पंचम प्रतिमाधारी व्रत रूप से छोड़ता है।11।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> लाटी संहिता/7/16 इत: पूर्वं कदाचिद्वै सचित्तं वस्तु भक्षयेत। इत: परं स नाश्नुयात्सचित्तं तज्जलाद्यपि।16।</span> =<span class="HindiText">पंचम प्रतिमा से पूर्व कभी-कभी सचित्त पदार्थों का भक्षण कर लेता था। परन्तु अब सचित्त पदार्थों का भक्षण नहीं करता। यहाँ तक कि सचित्त जल का भी प्रयोग नहीं करता।16।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>5. वनस्पति के सर्व भेद अचित्त अवस्था में ग्राह्य हैं</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>5. वनस्पति के सर्व भेद अचित्त अवस्था में ग्राह्य हैं</strong></p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ भक्ष्याभक्ष्य#4.4 | भक्ष्याभक्ष्य - 4.4 ]][जिमिकंद आदि को सचित्त रूप में खाना संसार का कारण है]</p> | <p class="HindiText">देखें [[ भक्ष्याभक्ष्य#4.4 | भक्ष्याभक्ष्य - 4.4 ]][जिमिकंद आदि को सचित्त रूप में खाना संसार का कारण है]</p> | ||
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<p class="HindiText">देखें [[ सचित्त#6 | सचित्त - 6 ]][आग पर पके व विदारे कंदमूल आदि प्रासुक हैं]।</p> | <p class="HindiText">देखें [[ सचित्त#6 | सचित्त - 6 ]][आग पर पके व विदारे कंदमूल आदि प्रासुक हैं]।</p> | ||
<p><span class="PrakritText">मू.आ./825-826 फलकंदमूलवीयं अणग्गिपवकं तु आमयं किंचि। णच्चा अणेसणीयं णवि य पडिच्छंति ते धीरा।825। जं हवदि अणिव्वीयं णिवट्टिमं फासुयं कयं चेव। णाऊण एसणीयं तं भिक्खं मुणिपडिच्छंति।826।</span> =<span class="HindiText">अग्निकर नहीं पके, ऐसे कंद, मूल, बीज, तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर वीर मुनि भक्षण की इच्छा नहीं करते।825। जो निर्बीज हो और प्रासुक किया गया है ऐसे आहार को खाने योग्य समझ मुनिराज उसके लेने की इच्छा करते हैं।826।</span></p> | <p><span class="PrakritText">मू.आ./825-826 फलकंदमूलवीयं अणग्गिपवकं तु आमयं किंचि। णच्चा अणेसणीयं णवि य पडिच्छंति ते धीरा।825। जं हवदि अणिव्वीयं णिवट्टिमं फासुयं कयं चेव। णाऊण एसणीयं तं भिक्खं मुणिपडिच्छंति।826।</span> =<span class="HindiText">अग्निकर नहीं पके, ऐसे कंद, मूल, बीज, तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर वीर मुनि भक्षण की इच्छा नहीं करते।825। जो निर्बीज हो और प्रासुक किया गया है ऐसे आहार को खाने योग्य समझ मुनिराज उसके लेने की इच्छा करते हैं।826।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> लाटी संहिता/2/104 विवेकस्यावकाशोऽस्ति देशतो विरतावपि। आदेयं प्रासुकं योग्यं नादेयं तद्विपर्ययम् ।104।</span> =<span class="HindiText">देश त्याग में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। निर्जीव तथा योग्य पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए। सचित्त तथा अयोग्य ऐसे पदार्थों को ग्रहण नहीं करना चाहिए।104।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>6. पदार्थों को प्रासुक करने की विधि</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>6. पदार्थों को प्रासुक करने की विधि</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मू.आ./824 सुक्कं पक्कं तत्तं अंबिल लवणेण मिस्सयं दव्वं। जं जंतेण य छिन्नं तं सव्वं पासुयं भणियं।824।</span> =<span class="HindiText">सूखी हुई, पकी हुई, तपायी हुई, खटाई या नमक आदि से मिश्रित वस्तु तथा किसी यंत्र अर्थात् चाकू आदि से छिन्न-भिन्न की गयी सर्व ही वस्तुओं को प्रासुक कहा जाता है।</span></p> | <p><span class="PrakritText">मू.आ./824 सुक्कं पक्कं तत्तं अंबिल लवणेण मिस्सयं दव्वं। जं जंतेण य छिन्नं तं सव्वं पासुयं भणियं।824।</span> =<span class="HindiText">सूखी हुई, पकी हुई, तपायी हुई, खटाई या नमक आदि से मिश्रित वस्तु तथा किसी यंत्र अर्थात् चाकू आदि से छिन्न-भिन्न की गयी सर्व ही वस्तुओं को प्रासुक कहा जाता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> | <p><span class="SanskritText"> गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/224/483/14 शुष्कपक्वध्वस्ताम्ललवणसंमिश्रदग्धादि द्रव्यं प्रासुकं...।</span> =<span class="HindiText">सूखे हुए, पके हुए, ध्वस्त, खटाई या नमक आदि से मिश्रित अथवा जले हुए द्रव्य प्रासुक हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>7. अन्य सम्बन्धित विषय</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>7. अन्य सम्बन्धित विषय</strong></p> | ||
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Revision as of 19:16, 17 July 2020
== सिद्धांतकोष से == जीव सहित पदार्थों को सचित्त कहते हैं। सूखने से, अग्नि पर पकने से, कटने छटने से अथवा नमक आदि पदार्थों से संसक्त होने पर वनस्पति, जल आदि पदार्थ अचित्त हो जाते हैं। व्रती लोग सचित्त पदार्थों का सेवन नहीं करते।
1. सचित्त सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/32/187/10 आत्मनश्चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम् । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्त:।
सर्वार्थसिद्धि/7/35/371/6 सह चित्तेन वर्तते इति सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् । = 1. आत्मा के चैतन्य विशेषरूप परिणाम को चित्त कहते हैं। जो उसके साथ रहता है वह सचित्त कहलाता है। ( राजवार्तिक/2/32/1/141/22 ) 2. जो चित्त सहित है वह सचित्त कहलाता है। ( राजवार्तिक/7/35/1/558 )।
2. सचित्त त्याग प्रतिमा का लक्षण
रत्नकरण्ड श्रावकाचार/141 मूलफलशाकशाखाकरीरकंदप्रसूनबीजानि। नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्ति:। = जो कच्चे मूल, फल, शाक, शाखा, करीर, जमीकन्द, पुष्प और बीज नहीं खाता है वह दया की मूर्ति सचित्त त्याग प्रतिमाधारी है।141। ( चारित्रसार/38/1 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/379-380 ); लाटी संहिता/7/16 )।
वसुनन्दी श्रावकाचार/295 जं वज्जिज्जइ हरियं तुय-पत्त-पवाल-कंदफलबीयं। अप्पासुगं च सलिलं सचित्तणिव्वित्ति तं ठाणं। =जहाँ पर हरित, त्वक् (छाल), पत्र, प्रवाल, कन्द, फल, बीज और अप्रासुक जल त्याग किया जाता है वह सचित्त विनिवृत्तिवाला पाँचवाँ प्रतिमा स्थान है। ( गुणभद्र श्रावकाचार/178 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/45/195/8 )।
सागार धर्मामृत/7/8-10 हरिताङ्कुरबीजस्य लवणाद्यप्रासुकं त्यजन् । जाग्रत्कृपश्चतुर्निष्ठ:, सञ्चित्तविरत: स्मृत:।8। पादेनापि स्मृशन्नर्थ-वशाद्योऽति ऋतीयते। हरितान्याश्रितानन्त-निगोतानि स भोक्ष्यते।9। अहो जिनोक्ति निर्णीतिरहो अक्षजिति: सताम् । नालक्ष्यजन्त्वपि हरित् प्यासन्त्येतेऽसुक्षयेऽपि यत् ।10। =प्रथम चार प्रतिमाओं का पालक तथा प्रासुक नहीं किये गये हरे अंकुर, हरे बीज, जल, नमकादि पदार्थों को नहीं खाने वाला दयामूर्ति श्रावक सचित्त विरत माना गया है।8। जो प्रयोजनवश पैर से भी छूता हुआ अपनी निन्दा करता है वह श्रावक मिले हुए हैं अनन्तानन्त निगोदिया जीव जिसमें ऐसी वनस्पतियों को कैसे खायेगा।9। सज्जनों का जिनागम सम्बन्धी निर्णय, इन्द्रिय विषय आश्चर्यजनक है, क्योंकि वैसे सज्जन दिखाई नहीं देते जो, प्राणों का क्षय होने पर भी हरी वनस्पति को नहीं खाते।10।
3. सचित्तापिधान आदि के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/7/35-36/371/6 सचित्तं चेतनावद् द्रव्यम् । तदुपश्लिष्ट: संबन्ध:। तद्व्यतिकीर्ण: संमिश्र:।35। सचित्ते पद्मपत्रादौ निक्षेप: सचित्तनिक्षेप:। अपिधानमावरणम् । सचित्तेनैव सबध्यते सचित्तापिधानमिति।36। =सचित्त से चेतना द्रव्य लिया जाता है। इससे सम्बन्ध को प्राप्त हुआ द्रव्य सम्बन्धाहार है। और इससे मिश्रित द्रव्य सम्मिश्र है।35। ( राजवार्तिक/7/35/2-3/558/4 )। सचित्त कमल पत्र आदि में रखना सचित्तनिक्षेप है। अपिधान का अर्थ ढाँकना है। इस शब्द को भी सचित्त शब्द से जोड़ लेना चाहि जिससे सचित्तापिधान का सचित्त कमलपत्र आदि से ढाँकना यह अर्थ फलित होता है। ( राजवार्तिक/7/36/1-2/558/20 )।
4. भोगोपभोग परिमाण व्रत व सचित्त त्याग प्रतिमा में अन्तर
चारित्रसार/38/1 अस्योपभोगपरिभोगपरिमाणशीलव्रतातिचारो व्रतं भवतीति। =उपभोग परिभोग परिमाण शील के जो अतिचार हैं उनका त्याग ही इस प्रतिमा में किया जाता है।
सागार धर्मामृत/7/11 सचित्तभोजनं यत्प्राङ् मलत्वेन जिहासितम् । व्रतयत्यङ्गिपञ्चत्व-चकितस्तच्च पञ्चम:।11। =व्रती श्रावक ने सचित्त भोजन पहले भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार रूप से छोड़ा था उस सचित्त भोजन को प्राणियों के मरण से भयभीत पंचम प्रतिमाधारी व्रत रूप से छोड़ता है।11।
लाटी संहिता/7/16 इत: पूर्वं कदाचिद्वै सचित्तं वस्तु भक्षयेत। इत: परं स नाश्नुयात्सचित्तं तज्जलाद्यपि।16। =पंचम प्रतिमा से पूर्व कभी-कभी सचित्त पदार्थों का भक्षण कर लेता था। परन्तु अब सचित्त पदार्थों का भक्षण नहीं करता। यहाँ तक कि सचित्त जल का भी प्रयोग नहीं करता।16।
5. वनस्पति के सर्व भेद अचित्त अवस्था में ग्राह्य हैं
देखें भक्ष्याभक्ष्य - 4.4 [जिमिकंद आदि को सचित्त रूप में खाना संसार का कारण है]
देखें सचित्त - 2 [सचित्त विरत श्रावक सचित्त वनस्पति नहीं खाता]
देखें सचित्त - 6 [आग पर पके व विदारे कंदमूल आदि प्रासुक हैं]।
मू.आ./825-826 फलकंदमूलवीयं अणग्गिपवकं तु आमयं किंचि। णच्चा अणेसणीयं णवि य पडिच्छंति ते धीरा।825। जं हवदि अणिव्वीयं णिवट्टिमं फासुयं कयं चेव। णाऊण एसणीयं तं भिक्खं मुणिपडिच्छंति।826। =अग्निकर नहीं पके, ऐसे कंद, मूल, बीज, तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर वीर मुनि भक्षण की इच्छा नहीं करते।825। जो निर्बीज हो और प्रासुक किया गया है ऐसे आहार को खाने योग्य समझ मुनिराज उसके लेने की इच्छा करते हैं।826।
लाटी संहिता/2/104 विवेकस्यावकाशोऽस्ति देशतो विरतावपि। आदेयं प्रासुकं योग्यं नादेयं तद्विपर्ययम् ।104। =देश त्याग में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। निर्जीव तथा योग्य पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए। सचित्त तथा अयोग्य ऐसे पदार्थों को ग्रहण नहीं करना चाहिए।104।
6. पदार्थों को प्रासुक करने की विधि
मू.आ./824 सुक्कं पक्कं तत्तं अंबिल लवणेण मिस्सयं दव्वं। जं जंतेण य छिन्नं तं सव्वं पासुयं भणियं।824। =सूखी हुई, पकी हुई, तपायी हुई, खटाई या नमक आदि से मिश्रित वस्तु तथा किसी यंत्र अर्थात् चाकू आदि से छिन्न-भिन्न की गयी सर्व ही वस्तुओं को प्रासुक कहा जाता है।
गोम्मटसार जीवकाण्ड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/224/483/14 शुष्कपक्वध्वस्ताम्ललवणसंमिश्रदग्धादि द्रव्यं प्रासुकं...। =सूखे हुए, पके हुए, ध्वस्त, खटाई या नमक आदि से मिश्रित अथवा जले हुए द्रव्य प्रासुक हैं।
7. अन्य सम्बन्धित विषय
- सचित्त त्याग प्रतिमा व आरम्भ त्याग प्रतिमा में अन्तर। - देखें आरम्भ ।
- सूखे हुए भी उदम्बर फल निषिद्ध हैं। - देखें भक्ष्याभक्ष्य ।
- साधु के विहार के लिए अचित्त मार्ग। - देखें विहार - 1.7।
- मांस को प्रासुक किया जाना सम्भव नहीं। - देखें मांस - 2।
- अनन्त कायिक को प्रासुक करने में फल कम है और हिंसा अधिक। - देखें भक्ष्याभक्ष्य /4/3।
- वही जीव या अन्य कोई भी जीव उसी बीज के योनि स्थान में जन्म धारण कर सकता है। - देखें जन्म - 2।
पुराणकोष से
(1) हरा (ताजा अथवा सरस) द्रव्य । महापुराण 20.165
(2) मन युक्त-संज्ञी जीव । पद्मपुराण 105.148