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अनिवृत्तिकरण

From जैनकोष

Revision as of 19:44, 28 September 2022 by Sahdev (talk | contribs)
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सिद्धांतकोष से

जीवों की परिणाम विशुद्धि में तरतमता का नाम गुणस्थान है। बहते-बहते जब साधक निर्विकल्प समाधि में प्रवेश करने के अभिमुख होता है तो उसकी संज्ञा अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है। इस अवस्था को प्राप्त सभी जीवों के परिणाम तरतमता रहित सदृश होते हैं। अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों का सामान्य परिचय `करण' में दिया गया है। यहाँ केवल अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का प्रकरण है।


1. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का लक्षण

पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/20-21 एक्कम्मि कालसमये संठाणादीहि जह णिवट्टंति। ण णिवट्टंति तह च्चिय परिणामेहिं मिहो जम्हा ॥20॥ होंति अणियट्टिणो ते पडिसमयं जेसिमेक्कपरिणामा। विमलयरझाणहुयवहसिहाहिं णिद्दड्ढकम्मवणा ॥21॥

= इस गुणस्थान के अंतर्मुहूर्तप्रमित काल में से विवक्षित किसी एक समय में अवस्थित जीव यतः संस्थान (शरीर का आकार) आदि की अपेक्षा जिस प्रकार निवृत्ति या भेद को प्राप्त होते हैं, उस प्रकार परिणामों की अपेक्षा परस्पर निवृत्ति को प्राप्त नहीं होते हैं, अतएव वे अनिवृत्तिकरण कहलाते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के प्रतिसमय एक ही परिणाम होता है। ऐसे ये जीव अपने अतिविमल ध्यानरूप अग्नि को शिखाओं से कर्मरूप वन को सर्वथा जला डालते हैं।

( धवला पुस्तक 1/1,1,17/186/गा.119-120) ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा /56-57/149) (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/38,40)


राजवार्तिक अध्याय 9/1,20/590/14 अनिवृत्तिपरिणामवशात् स्थूलभावेनोपशमकः क्षपकश्चानिवृत्तिबादरसांपरायौ ॥20॥ तत्र उपशमनीयाः क्षपणीयाश्च प्रकृतय उत्तरत्र वक्ष्यंते।

= अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों की विशुद्धि से कर्म प्रकृतियों को स्थूल रूप से उपशम या क्षय करने वाला उपशामक क्षपक अनिवृत्तिकरण होता है।


धवला पुस्तक 1/1,1,17/183/11 समानसमयावस्थितजीवपरिणामानां निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्तिः। अथवा निवृत्तिर्व्यावृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयः। ...सांपरायाः कषायाः, बादराः स्थूलाः, बादराश्च ते सांपरायाश्च बादरसांपरायाः। अनिवृत्तयश्च ते बादरसांपरायाश्च अनिवृत्तिबादरसांपरायाः। तेषु प्रविष्टा शुद्धिर्येषां संयतानां तेऽनिवृत्तिबादरसांपरायप्रविष्टशुद्धिसंयताः। तेषु संति उपशमकाः क्षपकाश्च। ते सर्वे एको गुणोऽनिवृत्तिरिति।

= समान समयवर्ती जीवों के परिणामों की भेदरहित वृत्ति को निवृत्ति कहते हैं। अथवा निवृत्ति शब्द का अर्थ व्यावृत्ति भी है। अतएव जिन परिणामों की निवृत्ति अर्थात् व्यावृत्ति नहीं होती है उन्हें अनिवृत्ति कहते हैं। ...सांपराय शब्द का अर्थ कषाय है और बादर स्थूल को कहते हैं। इसलिए स्थूल कषायों को बादरसांपराय कहते हैं और अनिवृत्तिरूप बादरसांपराय को अनिवृत्तिबादरसांपराय कहते हैं। उन अनिवृत्तिबादरसांपरायरूप परिणामों में जिन संयतों की विशुद्धि प्रविष्ट हो गयी है, उन्हें अनिवृत्तिबादरसांपरायप्रविष्टशुद्धि संयत कहते हैं। ऐसे संयतों में उपशामक व क्षपक दोनों प्रकार के जीव होते हैं और उन सब संयतों का मिलकर एक अनिवृत्तिकरण गुणस्थान होता है।


गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 57/150/3 न विद्यते निवृत्तिः विशुद्धिपरिणामभेदो येषां ते अनिवृत्तयः इति निरुक्त्याश्रयणात्। ते सर्वेऽपि अनिवृत्तिकरणा जीवाःतत्कालप्रथमसमयादिं कृत्वा प्रतिसमयमनंतगुणविशुद्धिवृद्ध्या वर्धमानेनहीनाधिकभावरहितेन विशुद्धिपरिणामेन प्रवर्तमानाः संति यतः ततः प्रथमसमयवर्तिजीवविशुद्धिपरिणामेभ्यो द्वितीयसमयवर्तिजीवविशुद्धिपरिणामा अनंतगुणा भवंति। एवं पूर्वपूर्वसमयवर्तिजीवविशुद्धिपरिणामेभ्यो जीवानामुत्तरोत्तरसमयवर्तिजीवऋद्धिपरिणामा अनंतानंतगुणितक्रमेण वर्धमाना भृत्वा गच्छंति।

= जातैं नाहीं विद्यमान है निवृत्ति कहिये विशुद्धि, परिणामनि विषे भेद जिनके तै अनिवृत्तिकरण हैं ऐसी निरुक्ति जानना। जिन जीवनि को अनिवृत्तिकरण मांडैं पहला दूसरा आदि समान समय भये होंहिं, तिनि त्रिकालवर्ती अनेक जीवनि के परिणाम समान होंहि। जैसे-अधःकरण अपूर्वकरण विषैं समान होते थे तैसैं इहाँ नाहीं। बहुरि अनिवृत्तिकरण काल का प्रथम समय को आदि देकरि समय-समय प्रति वर्तमान जे सर्व जीवतैं हीन अधिकपनातै रहित समान विशुद्ध परिणाम धरैं हैं। तहाँ समय समय प्रति जे विशुद्ध परिणाम अनंतगुणै अनंतगुणै उपजै हैं, तहाँ प्रथम समय विषैं जे विशुद्ध परिणाम हैं तिनितैं द्वितीय समय विषैं विशुद्ध परिणाम अनंतगुणै हौ हैं। ऐसें पूर्व-पूर्व समयवर्ती विशुद्ध परिणामनितैं जीवनि के उत्तरोत्तर समयवर्ती विशुद्ध परिणाम अविभाग प्रतिच्छेदनि की अपेक्षा अनंतगुणा अनंतगुणा अनुक्रमकरिबि ता हुआ प्रवर्ते हैं।


द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 13/35 दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षादिरूपसमस्तसंकल्पविकल्परहितनिजनिश्चलपरमात्मत्वैकाग्रध्यानपरिणामेन कृत्वा येषां जीवानामेकसमये ये परस्परं पृथक्कर्तुनायांति ते वर्णसंस्थानादिभेदेऽप्यनिवृत्तिकरणौपशमिकक्षपकसंज्ञा द्वितीयकषायाद्येकविंशतिभेदभिन्नचारित्रमोहप्रकृतीनामुपशमक्षपणसमर्थानवमगुणस्थानवर्तिनो भवंति।

= देखे, सुने और अनुभव किये हुए भोगों की वांछादि रूप संपूर्ण संकल्प तथा विकल्प रहित अपने निश्चल परमात्मस्वरूप के एकाग्र ध्यान के परिणाम से जिन जीवों के एक समय में परस्पर अंतर नहीं होता वे वर्ण तथा संस्थान के भेद होने पर भी अनिवृत्तिकरण उपशामक व क्षपक संज्ञा के धारक; अप्रत्याख्यानावरण द्वितीय कषाय आदि इक्कीस प्रकार की चारित्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उपशमन और क्षपण में समर्थ नवम गुणस्थानवर्ती जीव हैं।


2. सम्यक्त्व व चारित्र दोनों की अपेक्षा औपशमिक व क्षायिक दोनों भावों की संभावना

धवला पुस्तक 1/1,1,17/185/8 काश्चित्प्रकृतीरुपशमयति, काश्चिदुपरिष्टादुपशमयिष्यतीति औपशमिकोऽयं गुणः। काश्चित् प्रकृतीः क्षपयति काश्चिदुपरिष्टात् क्षपयिष्यतीति क्षायिकश्च। सम्यक्त्वापेक्षया चारित्रमोहक्षपकस्य क्षायिक एव गुणस्तत्रान्यस्यासंभवात्। उपशमकस्यौपशमिकः क्षायिकश्चोभयोरपि तत्राविरोधात्।

= इस गुणस्थान में जीव मोह को कितनी ही प्रकृतियों का उपशमन करता है और कितनी ही प्रकृतियों का आगे उपशमन करेगा, इस अपेक्षा यह गुणस्थान औपशमिक है। और कितनी ही प्रकृतियों का क्षय करता है तथा कितनी ही प्रकृतियों का आगे क्षय करेगा, इस दृष्टि से क्षायिक भी है। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा चारित्रमोह का क्षय करने वाले के यह गुणस्थान क्षायिक भावरूप ही है, क्योंकि क्षपक श्रेणी में दूसरा भाव संभव ही नहीं है। तथा चारित्रमोहनीय का उपशम करने वाले के यह गुणस्थान औपशमिक और क्षायिक दोनों भावरूप है, क्योंकि उपशम श्रेणी की अपेक्षा वहाँ पर दोनों भाव संभव हैं।


3. इस गुणस्थान में औपशमिक व क्षायिक ही भाव क्यों

धवला पुस्तक 5/1,7,8/204/4 होदु णाम उवसंतकसायस्स ओवसमिओ भावो उवसमिदासेसकसायत्तादो। ण सेसाणं, तत्थ असेसमोहस्सुवसमाभावा। ण अणियट्टिबादरसांपराय-सुहुमसांपराइयाणं उवसमिदथोवकसायजणिदुवसमपरिणामाणं औवसमियभावस्स अत्त्थित्ताविरोहा।

धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/10 बादर-सुहुमसांपराइयाणं पि खवियमोहेयदेसाणं कम्मखयजणिदभावोवलंभा।

= प्रश्न - समस्त कषायों और नोकषायों के उपशमन करने से उपशांतकषाय छद्मस्थ जीव के औपशमिक भाव भले रहा आवे, किंतु अपूर्वकरणादि शेष गुणस्थानवर्ती जीवों के औपशमिक भाव नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में समस्त मोहनीय कर्म के उपशमन का अभाव है।
उत्तर - नहीं, क्योंकि कुछ कषायों के उपशमन करने से उत्पन्न हुआ है उपशम परिणाम जिनके, ऐसे अनिवृत्तिकरण बादरसांपराय और सूक्ष्मसांपराय संयत के उपशम भाव का अस्तित्व मानने में कोई विरोध नहीं है। मोहनीय कर्म के एक देश के क्षपण करने वाले बादरसांपराय और सूक्ष्मसांपराय क्षपकों के भी कर्मक्षय जनित भाव पाया जाता है।

( धवला पुस्तक 7/2,1,49/93/1)।


4. अन्य संबंधित विषय

• इस गुणस्थान के स्वामित्व संबंधी जीवसमास, मार्गणास्थानादि 20 प्ररूपणाएँ – देखें सत् ।

• इस गुणस्थान संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ – देखें वह वह नाम ।

• इस गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों का बंध, उदय व सत्त्व – देखें वह वह नाम ।

• इस गुणस्थान में कषाय, योग व संज्ञा के सद्भाव व तत्संबंधी शंका समाधान – देखें वह वह नाम ।

• अनिवृत्तिकरण के परिणास, आवश्यक व अपूर्वकरण से अंतर, अनिवृत्तिकरण लब्धि – देखें करण - 6।

• अनिवृत्तिकरण में योग व प्रदेश बंध की समानता का नियम नहीं। - देखें करण - 6।

• पुनः पुनः यह गुणस्थान प्राप्त करने की सीमा – देखें संयम - 2।

• उपशम व क्षपक श्रेणी - देखें श्रेणी - 2, 3।

• बादर कृष्टि करण - देखें कृष्टि ।

• सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम - देखें मार्गणा ।



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पुराणकोष से

करणलब्धि । हरिवंशपुराण 3.142 इसमें जीवों की पारिणामिक विभिन्नता नहीं रहती । परिणामों की अपेक्षा से सभी जीव समान होते हैं । इस नवम गुणस्थान में आते ही जोव विशुद्ध परिणामी हो जाता है । उसके अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण संबंधी आठ तथा हास्यादि छ: कथाएं, त्रिवेद और संज्वलन, क्रोध, मान, माया और बादर लोभ नष्ट हो जाते हैं । महापुराण 20.243-246, 253

स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, नरकगति, तिर्यंचगति, एकेंद्रिय जाति, द्वींद्रिय जाति, त्रींद्रिय जाति, चतुरिंद्रिय जाति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह कर्म प्रकृतियों का भी नाश हो जाता है । वीरवर्द्धमान चरित्र 13.114-120

देखें गुणस्थान


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