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जैन शब्दों का अर्थ जानने के लिए किसी भी शब्द को नीचे दिए गए स्थान पर हिंदी में लिखें एवं सर्च करें

उपगूहन

From जैनकोष

Revision as of 16:48, 12 October 2022 by Prajatka Singatkar (talk | contribs)
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सिद्धांतकोष से

1. व्यवहार लक्षण

मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 261 दंसणचरणविवण्णे जीवे दट्ठूण धम्मभत्तीए। उपगूहणं करंतो दंसणसुद्धो हवदि एसो ।261।

= सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमें ग्लानि सहित जीवोंको देखकर धर्मकी भक्ति कर उनके दोषोंको दूर करता है, वह शुद्ध-सम्यग्दर्शनवाला होता है।

रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 15 "स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम्। वाच्यतां यत्प्रमार्जंति तद्वदंत्युपगूहनम् ।15।

= जो अपने आप ही पवित्र ऐसे जैनधर्मकी, अज्ञानी तथा असमर्थ जनोंके आश्रयसे उत्पन्न हुई निंदाको दूर करते हैं, उसको उपगूहन अंग कहते हैं।

( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 41/174।)

पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 27 परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम्।

= उपबृंहण गुणके अर्थ अन्य पुरुषोंके दोषोंको भी गुप्त रखना कर्त्तव्य है।

कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 419 जो परदोसं गोवदि णियसुकयं जो ण पवडदे लोए। भवियव्व भावणरओ उवगूहणकारओ सो हु।

= जो सम्यग्दृष्टि दूसरोंके दोषोंको ढांकता है, और अपने सुकृतको लोकमें प्रकाशित नहीं करता, तथा भवितव्यकी भावनामें रत रहता है। उसे उपगूहणगुणका धारी कहते हैं।

2. निश्चय लक्षण

समयसार / मूल या टीका गाथा 233 जो सिद्धभत्तिजुत्तो उपगूहणगोदु सव्वधम्माणं। सो उवगूहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ।233।

= जो चेतयिता सिद्धोंकी शुद्धात्माकी भक्तिसे युक्त है और पर-वस्तुओंके सर्वधर्मोंको गोपन करनेवाला है (अर्थात् रागादि भावोंमें युक्त नहीं होता है) उसको उपगूहन करनेवाला सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये।

समयसार / तात्पर्यवृत्ति गाथा 233 शुद्धात्मभावनारूपपारमार्थिकसिद्धभक्तियुक्तः मिथ्यात्वरागादिविभावधर्माणामुपगूहकः प्रच्छादको विनाशकः। स सम्यग्दृष्टिः उपगूहनकारो मंतव्यः।

= उपगूहनका अर्थ छिपानेका है। निश्चयको प्रधानकरि ऐसा कहा है कि जो सिद्धभक्तिमें अपना उपयोग लगाया तब अन्य धर्म पर दृष्टि ही न रही, तब सभी धर्म छिप गये। इस प्रकार शुद्धात्माकी भावनारूप पारमार्थिक-सिद्धभक्तिसे युक्त होकर मिथ्यात्व रागादि विभावधर्मोंका उपगूहन करता है, प्रच्छादन करता है, विनाश करता है उस सम्यग्दृष्टिको उपगूहनकारी जानना चाहिए।

द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 41/174/10 निश्चयनयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारोपगूहणगुणस्य सहकारित्वेन निजनिरंजननिर्दोषपरमात्मनः प्रच्छादका ये मिथ्यात्वरागादिदोषास्तेषां तस्मिन्नेव परमात्मनि सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपं यद्धयानं तेन प्रच्छादनं विनाशनं गोपनं झंपनं तदेवोपगूहनमिति।

= निश्चयनयसे व्यवहार उपगूहण-गुणकी सहायतासे, अपने निरंजन निर्दोष परमात्माको ढकनेवाले रागादि दोषोंको, उसी परमात्मामें सम्यक् श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप ध्यानके द्वारा ढकना, नाश करना, छिपाना, झंपन करना, सो उपगूहन-गुण है।

2. उपबृंहण का लक्षण

राजवार्तिक अध्याय 6/24/1/529/13 उत्तमक्षमादिभावनया आत्मनो धर्मपरिवृद्धिकरणमुपबृंहणम्।

= उत्तमक्षमादि भावनाओंके द्वारा आत्माके धर्मकी वृद्धि करना उपबृंहण-गुण है।

( पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 27)

भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 45/149/10 उपबृंहणं णाम वर्द्धनं। बृह बृहि वृद्वाविति वचनात्। धात्वर्थानुवादी चोपसर्गः उप इति। स्पष्टेनाग्राम्येण श्रोत्रमनःप्रीतिदायिना वस्तुयाथात्म्यप्रकाशनप्रवणेन धर्मोपदेशेन परस्य तत्त्वश्रद्धानवर्द्धनं उपबृंहणं। सर्वजनविस्मयकारिणीं शतमुखप्रमुखगीर्वाणसमितिविरचितोपचितसदृशीं पूजां संपाद्य दुर्धरतपोयोगानुष्ठानेन वा आत्मनि श्रद्धास्थिरीकरणम्।

= `उपबृंहण', इसका अर्थ बढ़ाना ऐसा होता है। `बृह बृहि वृद्धौ' इस धातुसे बृंहण शब्दकी उत्पत्ति होती है। `उप' इस उपसर्गके योगसे `बृह' धातुका अर्थ बदला नहीं है। स्पष्ट, अग्राम्य, कान और मनको प्रसन्न करनेवाले, वस्तुकी यथार्थताको भव्योंके आगे दर्पणके समान दिखानेवाले, ऐसे धर्मोपदेशके द्वारा तत्त्व-श्रद्धान बढ़ाना वह उपबृंहण-गुण है। इंद्र प्रमुख देवोंके द्वारा जैसी महत्त्वयुक्त पूजा की जाती है, वैसी जिनपूजा करके अपनेको जिनधर्ममें, जिनभक्तिमें स्थिर करना; अथवा दुर्धर-तपश्चरण वा आतापनादि योग धारण करके अपने आत्मामें श्रद्धा गुण उत्पन्न करना इसको भी उपबृंहण कहते हैं।

समयसार / आत्मख्याति गाथा 233 यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन समस्तात्मशक्तीनामुपबृंहणादबृंहकः ततोऽस्य जीवशक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बंधः किंतु निर्जरैव।

= क्योंकि, सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयताके कारण समस्त आत्मशक्तियोंकी वृद्धि करता है, इसलिए उपबृंहक है। इसलिए उस जीवकी शक्तिकी दुर्बलतासे होनेवाला बंध नहीं, किंतु निर्जरा ही है।

पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 778 आत्मशुद्धेरदौर्बल्यकरणं चोपबृंहणम्। अर्थाद्ग्दृज्ञप्तिचारित्रभावादस्खलितं हि तत् ।778।

= आत्माकी शुद्धिमें कभी दुर्बलता न आने देना ही उपबृंहण अंग कहलाता है। अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप अपने भावोंसे जो च्युत नहीं होता है वही उपबृंहण-गुण कहलाता है।



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पुराणकोष से

सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में पांचवां अंग । इससे अज्ञानी और असमर्थ साधर्मी जनों के द्वारा की गयी जैनशासन की निंदा का आच्छादन होता है । वीरवर्द्धमान चरित्र 6.67


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