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जैन शब्दों का अर्थ जानने के लिए किसी भी शब्द को नीचे दिए गए स्थान पर हिंदी में लिखें एवं सर्च करें

गणित I.1.3

From जैनकोष

Revision as of 23:31, 21 August 2022 by Saumya07 (talk | contribs)
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      1. क्षेत्र के प्रमाणों का निर्देश
        तिलोयपण्णत्ति/1/102‐116 ( राजवार्तिक/3/38/6/207/26 ); ( हरिवंशपुराण/7/36‐46 ); (जं प./13/16‐34); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/118 की उत्थानिका या उपोद्घात/285/7); ( धवला/3/ प्र/36)।

द्रव्य का अविभागी अंश = परमाणु                   

8 जूं=1 यव      

अनंतानंत परमा. = 1 अवसन्नासन्न

8 यव    = 1 उत्सेधांगुल           

8 अवसन्नासन्न = 1 सन्नासन्न

500 उ. अंगुल = 1 प्रमाणांगुल   

8 सन्नासन्न = 1 त्रुटरेण(व्यवहाराणु) 

आत्मांगुल ( तिलोयपण्णत्ति/1/109/13 )    = भरत ऐरावत क्षेत्र के चक्रवर्ती का अंगुल                    

8 त्रुटरेणु = 1 त्रसरेणु (त्रस जीव के पाँव से उड़नेवाला अणु)

6 विवक्षित अंगुल = 1 विवक्षित पाद

8 त्रसरेणु = 1 रथरेणु (रथ से उड़ने वाली धूल का अणु.)  

2 वि. पाद = 1 वि. वितस्ति       

8 रथरेणु = उत्तम भोगभूमिज का बालाग्र.

2 वि. वितस्ति   = 1 वि. हस्त   

8 उ.भो.भू.बा. = मध्यम भो.भू.बा.

2 वि. हस्त = 1 वि. किष्कु       

8 म.भो.भू.बा. = जघन्य भो.भू.बा.

2 किष्कु = 1 दंड, युग, धनुष, मूसल या नाली, नाड़ी

8 ज.भो.भू.बा. = कर्मभूमिज का बालाग्र.

2000 दंड या धनु = 1 कोश     

8 क.भू.बालाग्र. = 1 लिक्षा (लीख)          

4 कोश  = 1 योजन      

8 लीख  = 1 जूं 

नोट—उत्सेधांगुल से मानव या व्यवहार योजन होता है और प्रमाणांगुल से प्रमाण योजन।

( तिलोयपण्णत्ति/1/131‐132 ); ( राजवार्तिक/3/38/7/208/10,23 )


500 मानव योजन = 1 प्रमाण योजन (महायोजन या दिव्य योजन) 80 लाख गज= 4545.45 मील           

1 योजन = 768000 अंगुल        

1 प्रमाण योजन गोल व गहरे कुंड के आश्रय से उत्पन्न = 1 अद्धापल्य (देखें पल्य )       

(1 अद्धापल्य या प्रमाण योजन3)छे जबकि छे = अद्धापल्य की अर्द्धछेद राशि या log2 पल्य = 1 सूच्यंगुल ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/ पृ.288/4)                    

1 सूच्यंगुल2 = 1 प्रतरांगुल        

1 सूच्यंगुल3 = 1 घनांगुल         

(1 घनांगुल)अद्धापल्य÷असं (असं=असंख्यात) = जगत्श्रेणी (प्रथम मत) ( धवला/3/9,2,4/34/1 )     

(1 घनांगुल)छे÷असं. = जगत्श्रेणी (द्वि. मत)        

(छे व असं.=देखें ऊपर ) = ( धवला/3/1,24/34/1 )          

जगत्श्रेणी÷7 = 1 रज्जू (देखें राजू )         

(जगत्श्रेणी)2 = 1 जगत्प्रतर     

(जगत्श्रेणी)3 = जगत्घन या घनलोक   

( धवला/9/4,1,2/39/4 ) = (आवली÷असं)आवली÷असं (आवली = आवली के समयों प्रमाण आकाश प्रदेश)


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