पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 164 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>अरहन्त, सिद्ध, चैत्य (अरहन्तादि की प्रतिमा), प्रवचन (जिनवाणी), गण / मुनिगण, ज्ञान में भक्ति से सम्पन्न जीव बहुश: प्रचुर मात्रा में <span class="AnvayArth">हु</span> स्पष्ट-रूप से पुण्य बाँधता है; सो वह <span class="AnvayArth">ण कम्मक्खयं कुणदि</span> कर्म का क्षय नहीं करता है ।</p> | <p>अरहन्त, सिद्ध, चैत्य (अरहन्तादि की प्रतिमा), प्रवचन (जिनवाणी), गण / मुनिगण, ज्ञान में भक्ति से सम्पन्न जीव बहुश: प्रचुर मात्रा में <span class="AnvayArth">[हु]</span> स्पष्ट-रूप से पुण्य बाँधता है; सो वह <span class="AnvayArth">[ण कम्मक्खयं कुणदि]</span> कर्म का क्षय नहीं करता है ।</p> | ||
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<p>यहाँ निरास्रवमय शुद्ध निजात्मा की संवित्ति से मोक्ष होता है, इस कारण पराश्रित परिणाम से मोक्ष होने का निषेध किया गया है; -- ऐसा सूत्रार्थ है ॥१७४॥</p> | <p>यहाँ निरास्रवमय शुद्ध निजात्मा की संवित्ति से मोक्ष होता है, इस कारण पराश्रित परिणाम से मोक्ष होने का निषेध किया गया है; -- ऐसा सूत्रार्थ है ॥१७४॥</p> | ||
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Revision as of 17:06, 24 August 2021
अरहन्त, सिद्ध, चैत्य (अरहन्तादि की प्रतिमा), प्रवचन (जिनवाणी), गण / मुनिगण, ज्ञान में भक्ति से सम्पन्न जीव बहुश: प्रचुर मात्रा में [हु] स्पष्ट-रूप से पुण्य बाँधता है; सो वह [ण कम्मक्खयं कुणदि] कर्म का क्षय नहीं करता है ।
यहाँ निरास्रवमय शुद्ध निजात्मा की संवित्ति से मोक्ष होता है, इस कारण पराश्रित परिणाम से मोक्ष होने का निषेध किया गया है; -- ऐसा सूत्रार्थ है ॥१७४॥