|
|
Line 1: |
Line 1: |
| <div class="G_Teeka_Hindi"> | | <div class="G_Start_Hindi"> |
| <p>यहाँ वर्धमान शब्द के दो अर्थ किये हैं -- एक तो अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान स्वामी और दूसरा वृषभादि चौबीस तीर्थंकरों का समुदाय । प्रथम अर्थ तो वर्धमान अन्तिम तीर्थंकर प्रसिद्ध ही है और दि्वतीय अर्थ में वर्धमान शब्द की व्याख्या इस प्रकार है- 'अव समन्ताद् ऋद्धं परमातिशयप्राप्तमानं केवलज्ञानं यस्यासौ' जिनका केवलज्ञान सब ओर से परम अतिशय को प्राप्त है । इस प्रकार इस अर्थ में वर्धमान शब्द सिद्ध होता है । किन्तु 'अवाप्योरल्लोपः' इस सूत्र से अव और अपि उपसर्ग के अकार का विकल्प से लोप होता है- व्याकरण के इस नियमानुसार 'अव' उपसर्ग के अकार का लोप हो जाने से वर्धमान शब्द सिद्ध हो जाता है । श्रिया- श्री का अर्थ लक्ष्मी होता है । लक्ष्मी भी अन्तरंग लक्ष्मी और बहिरंग लक्ष्मी, इस प्रकार दो भेद रूप है । समवसरणरूप लक्ष्मी बहिरंग लक्ष्मी है और अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरंग लक्ष्मी कहलाती है । इस प्रकार श्री वर्धमान शब्द का अर्थ वृषभादि चौबीस तीर्थंकर होता है, उनके लिये मैं नमस्कार करता हूँ ।</p><br> | | <p>जिस प्रकार रत्नों की रक्षा का उपायभूत करण्डक-पिटारा होता है और वह रत्नकरण्डक कहलाता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्नों की रक्षा का उपायभूत यह रत्नकरण्डक नाम का शास्त्र है । इस शास्त्र की रचना करने के इच्छुक श्री समन्तभद्रस्वामी निर्विघ्नरूप से शास्त्र की परिसमाप्ति आदि फल की अभिलाषा रखकर इष्ट देवताविशेष- श्रीवर्धमान स्वामी को नमस्कार करते हुए कहते हैं --</p> |
| <p>जिन अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान स्वामी अथवा वृषभतीर्थंकरादि चौबीस तीर्थंकरों को नमस्कार किया है, उनमें क्या विशेषता है इस बात को बतलाते हुए कहा है -- [[निर्धूतकलिलात्मने]] अर्थात् जिनकी आत्मा से ज्ञानावरणादि कर्मरूप कलिलपापों का समूह नष्ट हो गया है, अथवा जिन्होंने अन्य भव्यात्माओं के कर्म-कलंक को नष्ट कर दिया है । जब यह जीव अपने दोषों का नाश कर देता है, तभी उसमें सर्वज्ञता प्रकट होती है और तभी वह हितोपदेश देने का अधिकारी होता है । इसलिये दूसरी विशेषता बतलाते हुए कहा है कि -- [[यद्विद्या सालोकानां त्रिलोकानां दर्पणायते]] अर्थात् जिनकी केवलज्ञानरूप विद्या अलोकाकाश सहित तीनों लोकों को प्रकाशित करने के लिये दर्पण के समान है । यथा -- मनुष्य को अपना मुख अपनी चक्षु इन्द्रिय से नहीं दिखता उसी प्रकार जो पदार्थ इन्द्रिय गोचर नहीं हैं उन्हें केवलज्ञान दिखा देता है अर्थात् केवलज्ञान में त्रिकालवर्ती सभी पदार्थ झलकते हैं ।</p><br>
| |
| <p>यहां श्लोक के पूर्वार्ध में भगवान् की सर्वज्ञता का उपाय बतलाया है और उत्तरार्ध में सर्वज्ञता का निरूपण किया गया है ।</p><br>
| |
| </div> | | </div> |