प्रवचनसार तत्त्वप्रदीपिका
From जैनकोष
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं
पणमामि वड्ढमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥१॥
[एष:] यह मैं [सुरासुरमनुष्येन्द्रवंदितं] जो *सुरेन्द्रों, *असुरेन्द्रों और *नरेन्द्रों से वन्दित हैं तथा जिन्होंने [धौतघातिकर्ममलं] घाति कर्म-मल को धो डाला है ऐसे [तीर्थं] तीर्थ-रूप और [धर्मस्य कर्तारं] धर्म के कर्ता [वर्धमानं] श्री वर्धमानस्वामी को [प्रणमामि] नमस्कार करता हूँ ॥१॥
एष स्वसंवेदनप्रत्यक्षदर्शनज्ञानसामान्यात्माहं सुरासुरमनुष्येन्द्रवन्दितत्वात्त्रिलोकैकगुरुं, धौतघातिकर्ममलत्वाज्जगदनुग्रहसमर्थानन्तशक्तिपारमैश्वर्यं, योगिनां तीर्थत्वात्तरणसमर्थं, धर्मकर्तृत्वाच्छुद्धस्वरूपवृत्तिविधातारं, प्रवर्तमानतीर्थनायकत्वेन प्रथमत एव परमभट्टारकमहा-देवाधिदेवपरमेश्वरपरमपूज्यसुगृहीतनामश्रीवर्धमानदेवं प्रणमामि ॥१ ॥
यह *स्वसंवेदनप्रत्यक्ष *दर्शन-ज्ञान-सामान्यस्वरूप मैं, जो
- सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा वन्दित होने से तीन लोक के एक (अनन्य सर्वोत्कृष्ट) गुरु हैं,
- जिनमें घाति कर्म-मल के धो डालने से जगत पर अनुग्रह करने में समर्थ अनन्त शक्ति-रूप परमेश्वरता है,
- जो तीर्थता के कारण योगियों को तारने में समर्थ हैं,
- धर्म के कर्ता होने से जो शुद्ध स्वरूप परिणति के कर्ता हैं,
- उन परम भट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर, परमपूज्य, जिनका नाम ग्रहण भी अच्छा है
ऐसे श्री वर्धमान देव को प्रवर्तमान तीर्थ की नायकता के कारण प्रथम ही, प्रणाम करता हूँ ॥१॥
सेसे पुण तित्थयरे ससव्वसिद्धे विसुद्धसब्भावे
समणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियायारे ॥२॥
[पुन:] और [विशुद्धसद्भावान्] विशुद्ध *सत्तावाले [शेषान् तीर्थकरान्] शेष तीर्थंकरों को [ससर्वसिद्धान्] सर्व सिद्ध-भगवन्तों के साथ ही, [च] और [ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान्] ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार युक्त [श्रमणान्] *श्रमणों को नमस्कार करता हूँ ॥२॥
तदनु विशुद्धसद्भावत्वादुपात्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तरस्वरस्थानीयशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावान् शेषानतीततीर्थनायकान्, सर्वान् सिद्धांश्च, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारयुक्तत्वात् संभावित-परमशुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्यायसाधुत्वविशिष्टान् श्रमणांश्च प्रणमामि ॥२॥
तत्पश्रात् जो विशुद्ध सत्तावान् होने से ताप से उत्तीर्ण हुए (अन्तिम ताव दिये हुए अग्नि में से बाहर निकले हुए) उत्तम सुवर्ण के समान शुद्ध दर्शन-ज्ञान स्वभाव को प्राप्त हुए हैं, ऐसे शेष *अतीत तीर्थंकरों को और सर्व सिद्धों को तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार युक्त होने से जिन्होंने परम शुद्ध उपयोग भूमिका को प्राप्त किया है, ऐसे श्रमणों को-- जो कि आचार्यत्व, उपाध्यायत्व और साधुत्वरूप विशेषों से विशिष्ट (भेदयुक्त) हैं उन्हें -- नमस्कार करता हूँ ॥२॥
ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगमेव पत्तेगं
वंदामि य वट्टंते अरहंते माणुसे खेत्ते ॥३॥
[तान् तान् सर्वान्] उन उन सबको [च] तथा [मानुषे क्षेत्रे वर्तमानान्] मनुष्य क्षेत्र में विद्यमान [अर्हत:] अरहन्तों को [समकं समकं] साथ ही साथ--समुदायरूप से और [प्रत्येकं एव प्रत्येकं] प्रत्येक प्रत्येक को--व्यक्तिगत [वंदे] वन्दना करता हूँ ॥३॥
तदन्वेतानेव पंचपरमेष्ठिनस्तत्तद्वय्यक्तिव्यापिन: सर्वानेव सांप्रतमेतत्क्षेत्रसंभवतीर्थकरासंभवा- न्महाविदेहभूमिसंभवत्वे सति मनुष्यक्षेत्रप्रवर्तिभिस्तीर्थनायकै: सह वर्तमानकालं गोचरीकृत्य युगपद्युगपत्प्रत्येकं प्रत्येकं च मोक्षलक्ष्मीस्वयंवरायमाणपरमनैर्ग्रन्थ्यदीक्षाक्षणोचितमंगला-चारभूतकृतिकर्मशास्त्रोपदिष्टवंदनाभिधानेन सम्भावयामि ॥३॥
तत्पश्चात् इन्हीं पंचपरमेष्ठियों को, उस-उस व्यक्ति में (पर्याय में) व्याप्त होनेवाले सभी को, वर्तमान में इस क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभाव होने से और महाविदेहक्षेत्र में उनका सद्भाव होने से मनुष्य-क्षेत्र में प्रवर्तमान तीर्थ-नायक युक्त वर्तमान काल गोचर करके, (-महाविदेहक्षेत्र में वर्तमान श्री सीमधरादि तीर्थंकरों की भाँति मानों सभी पंच परमेष्ठी भगवान वर्तमान काल में ही विद्यमान हों, इस प्रकार अत्यन्त भक्ति के कारण भावना भाकर-चिंतवन करके उन्हें) युगपद् युगपद् अर्थात् समुदायरूप से और प्रत्येक प्रत्येक को अर्थात् व्यक्तिगत रूप से *संभावना करता हूँ । किस पकारसे संभावना करता हूँ? मोक्षलक्ष्मीके स्वयंवर समान जो परम निर्ग्रंथता की दीक्षा का उत्सव (आनन्दमय प्रसंग) है उसके उचित मंगलाचरण-भूत जो *कृतिकर्म शास्त्रोपदिष्ट वन्दनोच्चार (कृतिकर्मशास्त्र मे उपदेशे हुए स्तुति-वचन) के द्वारा सम्भावना करता हूँ ॥३॥
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ॥४॥
तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ॥५॥
[अर्हद्भय:] इस प्रकार अरहन्तों को [सिद्धेभ्य:] सिद्धों को [तथा गणधरेभ्य:] आचार्यों को [अध्यापकवर्गेभ्य:] उपाध्याय-वर्ग को [च एवं] और [सर्वेभ्यः साधुभ्य:] सर्व साधुओं को [नम: कृत्वा] नमस्कार करके [तेषां] उनके [विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानाश्रमं] *विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान आश्रम को [समासाद्य] प्राप्त करके [साम्यं उपसंपद्ये] मैं *साम्य को प्राप्त करता हूँ [यत:] जिससे [निर्वाण संप्राप्ति:] निर्वाण की प्राप्ति होती है ॥४-५॥
अथैवमर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां प्रणतिवन्दनाभिधानप्रवृत्तद्वैतद्वारेण भाव्य-भावकभावविजृम्भितातिनिर्भरेतरेतरसंवलनबलविलीननिखिलस्वपरविभागतया प्रवृत्तद्वैतं नमस्कारं कृत्वा ॥४॥
तेषामेवार्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधानत्वेन सहजशुद्धदर्शन-ज्ञानस्वभावात्मतत्त्वश्रद्धानावबोधलक्षणसम्यग्दर्शनज्ञानसंपादकमाश्रमं समासाद्य सम्यग्दर्शन-ज्ञानसंपन्नो भूत्वा, जीवत्कषायकणतया पुण्यबंधसंप्राप्तिहेतुभूतं सरागचारित्रं क्रमापतितमपि दूरमुत्क्रम्य सकलकषायकलिकलङ्कविविक्ततया निर्वाणसंप्राप्तिहेतुभूतं वीतरागचारित्राख्यं साम्यमुपसंपद्ये । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैक्यात्मकैकाग्रयं गतोऽस्मीति प्रतिज्ञार्थ ।
एवं तावदयं साक्षान्मोक्षमार्गं संप्रतिपन्न: ॥५॥
अब इस प्रकार अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुओं को प्रणाम और वन्दनोच्चार से प्रवर्तमान द्वैत के द्वारा, भाव्यभावक भाव से उत्पन्न अत्यन्त गाढ इतरेतर मिलन के कारण समस्त स्वपर का विभाग विलीन हो जाने से जिसमें अद्वैत प्रवर्तमान है, ऐसा नमस्कार करके, उन्हीं अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व-साधुओं के आश्रम को , --जो कि (आश्रम) विशुद्ध-ज्ञान-दर्शन-प्रधान होने से सहजशुद्ध-दर्शन-ज्ञान स्वभाव वाले आत्म तत्त्व का श्रद्धान और ज्ञान जिसका लक्षण है ऐसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का सम्पादक है उसे-- प्राप्त करके, सम्यग्दर्शन-ज्ञान सम्पन्न होकर, जिसमें कषाय-कण विद्यमान होने से जीव को जो पुण्य बंध की प्राप्ति का कारण है ऐसे सराग चारित्र को -- वह (सराग चारित्र) क्रम से आ पड़ने पर भी (गुणस्थान-आरोहण के क्रम में बलात् अर्थात् चारित्रमोह के मन्द उदय से आ पड़ने पर भी) -- दूर उल्लंघन करके, जो समस्त कषाय-क्लेश-रूपी कलंक से भिन्न होने से निर्वाण प्राप्ति का कारण है ऐसे वीतराग-चारित्र नामक साम्य को प्राप्त करता हूँ । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की ऐक्य स्वरूप एकाग्रता को मैं प्राप्त हुआ हूँ यह (इस) प्रतिज्ञा का अर्थ है । इस प्रकार तब इन्होंने (श्रीमद्भगवत्कृन्दकुन्दाचार्य देव ने) साक्षात् मोक्षमार्ग को अंगीकार किया ॥४-५॥
संपज्जदि णिव्वाणं देवासुरमणुयरायविहवेहिं
जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो ॥६॥
[जीवस्य] जीवको [दर्शनज्ञानप्रधानात्] दर्शनज्ञानप्रधान [चारित्रात्] चारित्र से [देवासुरमनुजराजविभवै:] देवेन्द्र, असुरेन्द्र और नरेन्द्र के वैभवों के साथ [निर्वाणं] निर्वाण [संपद्यते] प्राप्त होता है ॥६॥
अथायमेव वीतरागसरागचारित्रयोरिष्टानिष्टफलत्वेनोपादेयहेयत्वं विवेचयति -
संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्ष: । तत एव च सरागाद्देवासुरमनुजराज-विभवक्लेशरूपो बन्ध: । अतो मुमुक्षुणेष्टफलत्वाद्वीतरागचारित्रमुपादेयमनिष्टफलत्वात्सराग-चारित्रं हेयम् ॥६॥
दर्शन-ज्ञान प्रधान चारित्र से, यदि वह (चारित्र) वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है; और उससे ही, यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र-असुरेन्द्र-नरेन्द्र के वैभव--क्लेश रूप बन्ध की प्राप्ति होती है । इसलिये मुमुक्षुओं को इष्ट फल-वाला होने से वीतराग चारित्र ग्रहण करने योग्य (उपादेय) है, और अनिष्ट फलवाला होने से सराग-चारित्र त्यागने योग्य (हेय) है ॥६॥