वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 16
From जैनकोष
आमोसहिए खेलोसहिए जल्लोसहिए तवसिद्धे।।
विप्पोसहीए सव्वोसहीए वंदामि तिविहेण।।16।।
सर्वौषधिरूप योगियों का अभिनंदन- जिनके अंगमल आदिक के छूने मात्र से रोग दूर हो जाता है ऐसे योगीश्वर जिनका ध्यान तप इतना बड़ा है कि वे यदि किसी पर हाथ रख दें, किसी रोगी को छू लें तो उनके छूने मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। यह बात मोहीजनों को, आत्मस्वरूप से अपरिचित जनों को संदेहजनक है लेकिन ऐसी ऋद्धियां हो जाना, ऐसे अतिशय हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। उनके छूने मात्र से अनेक प्रकार के रोग दूर हो जाते है। उनके कफ, थूक, मल का भी स्पर्श हो जाय तो भी रोगियों का रोग दूर हो जाता है। ऐसा पवित्र आत्मा यह योगी होता है। ज्ञानयोग के धारी साधु पुरुषों के जिनके आत्मतत्त्च की विशुद्धि के प्रताप से इस शरीर के ऐसे मल भी औषधिरूप बन जाते हैं। जिन्हें आत्मस्वरूप का कुछ भान है वे अमूर्त चिदानंदस्वरूप आत्मतत्त्व की बार बार सुध लिया करते हैं। उनमें उस आत्मतत्त्व की आराधना के कारण अतिशय उत्पन्न हो जाया करते है। जिनका पसीना भी किसी को छू जाय तो रोगियों का रोग दूर हो जाता है, ऐसे तपश्चरण में कुशल योगीश्वरों का मैं वंदन करता हूं। उनके शरीर की स्पर्श की हुई वायु भी रोगी के लग जाय तो रोगियों का रोग दूर हो जाता है। यद्यपि राग दूर होने में उनके पुण्य का उदय कारण है, पर जैसे औषधि सेवन करने से रोग दूर हो जाते हैं तो अंतरंग कारण तो उनके साता का उदय है लेकिन औषधि का भी निमित्त होता है इसी प्रकार यद्यपि उन रोगियों के रोग दूर होने में उनके साता का उदय ही कारण है लेकिन इन योगीश्वरों का स्पर्श, इनका मल, इनके शरीर का पसीना आदिक निमित्त हो जाते हैं तो ऐसे परमपावन योगीश्वरों को मैं मन, वचन, काय से वंदन करता हूं।