योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 156
From जैनकोष
कर्मबन्ध का कारण कषायों से आकुलित चित्त -
सर्वव्यापारहीनोsपि कर्मध्ये व्यवस्थित: ।
रेणुभिर्व्याप्यते चित्रै: स्नेहाभ्यक्ततनुर्यथा ।।१५६।।
समस्तारम्भ-हीनोs पि कर्मध्ये व्यवस्थित: ।
कषायाकुलितस्वान्तो व्याप्यते दुरितैस्तथा ।।१५७।।
अन्वय :- यथा स्नेह-अभ्यक्त-तनु: (पुरुष:) कर्मध्ये व्यवस्थित: सर्वव्यापारहीन: अपि चित्रै: रेणुभि: व्याप्यते । तथा कषाय-आकुलित-स्वान्त: कर्मध्ये व्यवस्थित: समस्त-आरम्भ-हीन: अपि दुरितै: व्याप्यते ।
सरलार्थ : - जिसप्रकार शरीर में तेलादि की मालिश किया हुआ पुरुष धूलि से व्याप्त कर्मक्षेत्र में बैठा हुआ समस्त व्यापार से हीन होता हुआ अर्थात् कर्मक्षेत्र में स्वयं कुछ काम न करता हुआ भी नाना प्रकार की धूलि से व्याप्त होता है । उसीप्रकार जिसका चित्त क्रोधादि कषायों से आकुलित है, वह कर्म के मध्य में स्थित हुआ समस्त आरम्भों से रहित होने पर भी कर्मो से व्याप्त/लिप्त होता है ।