वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 93
From जैनकोष
अप्पा संजमु सीलु तउ अप्पा दंसणु णाणु ।
अप्पा सासय मोक्ख पउ जाणंतउ अप्पाणु ।।93।।
यह आत्मा संयम रूप है, शीलरूप है, तपश्चरणरूप है, दर्शन और ज्ञानरूप है और यही शाश्वत मोक्ष का साधन स्थान है । हम पर या आप पर जो कुछ भी गुजरता है वह अपने परिणमन द्वारा ही अपनी परिणति गुजरती है । इस मुझ आत्मा में सभी अपनी-अपनी बातें सोचें कि यह जो कुछ भी सुख या दुःखरूप परिणमन होता है वह सब केवल अपनी कल्पना या विचार का फल है । किसी दूसरे पदार्थ के किसी भी परिणमन के कारण मुझमें परिणमन नहीं होती है? । हां, अशुद्ध अवस्था में जब बाह्यदृष्टि की आदत पड़ी हुई है, तो किसी भी बाह्यपदार्थ को किसी भी रूप में देखकर, मानकर मानी बात से कल्पना बनाकर सुख अथवा दुःख हो जाता है । ऐसी स्थिति में भी हमने जो कुछ किया वह अपने को ही किया । मैं अपने से बाहर कुछ भी करने में समर्थ नहीं हूँ ।
यह संसार, जिसका बहुत बड़ा काल है इसमें जितने भी सत् होते हैं वे सदा रहते हैं तथा परिणमते रहते हैं । हम किस-किस रूप और आगे परिणमेंगे? यह सब केवल मेरे परिणामों पर निर्भर है । हमारा परिणमन किसी दूसरे की इच्छा के अधीन नहीं है और जब संसार में रह रहे हैं और जब तक रहना पड़ेगा तब तक संकट ही संकट हैं । आनंद का नाम नहीं है । मोह में किसी बात का आनंद मान लिया, मान लो; पर परमार्थ से किसी भी संयोग में इस जीव को आनंद नहीं है । आनंद की अटक तो तब तक हुआ करती है जब तक यह आत्मा अपने सहजस्वभाव का स्पर्श न करले । यह आत्मा बिल्कुल अकेला है, एकस्वरूप है, इसमें किसी का प्रवेश नहीं है ।
जब अंतर में मिथ्यात्वभाव बना है कि ‘‘यह शरीर मेरा है ।’’ बस, इस मिथ्याभाव से ही सर्वसंकट छा जाते हैं । परमार्थ से तो मेरा कुछ भी नहीं है । ज्ञानी गृहस्थ में और तारीफ ही क्या हुआ करती है कि घर के इतने संकटों के बीच रहकर भी सुख शांति मानता है । तो वह कौनसी कला है? वह कौनसी कुंडी है? वह कला है सहजस्वरूप के परिचय की । इस सहजस्वरूप के परिचय के कारण कैसा भी अनुकूल-प्रतिकूल कुछ होता हो उस ज्ञानी गृहस्थ में इतना साहस है कि हो लें, जो कुछ चाहे । जितना विपरीत, प्रतिकूल परिणमन जो भी होता हो, हो ले, क्या होगा? जो होगा वह सब परपदार्थों का ही परिणमन है । मेरे को वह छूता तक भी नहीं है । कदाचित् सब धनु निकला जाता है तो निकल जाने दो, यह साहस कायर नहीं करता है । पर ज्ञानी यह साहस करता है कि सर्व धन छिना जाता है तो छिन जाने दो । यह आत्मतत्त्व तो अपना स्वरूप है । इसका तो कोई विनाश नहीं है । यह सब संगम बिछुड़ा जाता हो तो बिछुड़ जाने दो । यहां नहीं रहा, दूसरी जगह चला गया । मैं तो जितना हूं? उतना ही रहूंगा । किसी के संग से यह कुछ बढ़ नहीं जाता और किन्हीं के बिछुड़ने से यह कुछ घट नहीं जाता । यह तो जो है सो ही है ।
अज्ञानी अपनी कल्पना से अपने में अंतर डालता है । ज्ञानी पुरुष के रहस्य की क्या बात पूछनी, वह साहस कहां से आया? अपने सहजस्वरूप के परिचय के कारण यह साहस प्रकट हुआ है । क्या होगा अधिक से अधिक ? लोग सब अपवाद करने लगेंगे, अपमान करने लगेंगे? करें, वह सब उनकी परिणति है । मुझसे वह अत्यंत भिन्न हैं । उनकी परिणति से मुझ पर कुछ नहीं गुजरता । आप अपनी कल्पना में कठिन से कठिन परिस्थितियों का रूप रख लें―धन का न रहना, कुटुंब का बिछुड़ जाना, आपत्तियों का सामने आना इस शरीर को ही कोई भेदने लगे, यहां तक की भी हालत हो तो आने दो समय । ऐसे समय में ज्ञानी अपने साहस को संतुलित बना लेता है । जब तक बुखार नहीं आ रहा है तब तक ही डर है और जब बुखार आ जाता है, 103 डिग्री का भी बुखार हो तो देखो कितनी हिम्मत करके वह सह लेता है । क्योंकि आफत सामने आ ही तो गई ।
भैया ! कैसी भी परिस्थितियां उस ज्ञानी के सामने आएँ पर इतना साहस वह बना लेता है कि उन परिस्थितियों में भी वह अपने आत्मा की रक्षा कर सकता है । ज्ञानी बनो । धनी होने में आपका अधिकार नहीं है; वह तो भवितव्य है, न योग है, उदय है और धनी होने से कोई बड़ा भी कहा जाये तो उससे कहीं ज्ञान का चमत्कार न बन जायेगा । धन तो बाह्य चीज है । आत्मा की निधि है बुद्धि, ज्ञान? जब भी किसी जीव को साहस होगा तो वह यथार्थज्ञान से ही होगा । दूसरे स्वयं सब मुकर जायेंगे । चाहे जड़ पदार्थ हो, चाहे चेतन पदार्थ हो । जैसे घर में कोई बड़ा होता है और वह अपना सौ साहस स्थिर रखता है तो घर के और लोग भी, साहसी, धीर, सुखी, स्थिर रहते हैं और वह बड़ा ही डावांडोल हो जाय तो छोटे-छोटे बच्चों की फिर क्या बात है? इसी प्रकार प्रत्येक पुरुष का यदि अपना ज्ञान सावधान है तो 10-20 या सैकड़ों लोग भी उसके साधक बनेंगे और यदि खुद ही बिगड़ा है, खुद ही अविवेकी है, खुद ही धैर्य छोड़ बैठा है तो और लोग क्या सहायता कर सकेंगे?
जैसे कहते हैं ना, कि धन से धन आता है । अगर आपकी अच्छी स्थिति है, कारखाना है, दुकान है, ढंग है तो वहाँ धन से धन बढ़ता है । इसी प्रकार स्वयं में यदि कुछ ज्ञान है, शांति है, समृद्धि है, साहस है, धैर्य है, विवेक है तो उसके और लोग भी सहायक बनेंगे । दूसरे कोई उसके बाधक नहीं हो सकते । मान लो कोई पुरुष बड़ा है और वह किसी भी प्रकार के दुराचार पर उतारू हो जाये तो फिर भी क्या और लोग सहायक होते हैं? जो सदाचारी है, परोपकारी है, उसके दसों सहायक होते हैं । जो साधक होते हैं वे कुछ ऐहसान देते हुए सहायक नहीं होते हैं । खुद में कुछ साहस है सौ सहायक होते हैं । इसलिये गृहस्थजनों की सबसे बड़ी कमाई अपने ज्ञान की सावधानी बनाना है । नहीं तो गृहस्थी के प्रसंग में संकट इतने हैं कि जिन संकटों से यह गृहस्थ चूर हो सकता है । उन संकटों के बीच भी अपने को स्वरक्षित रख सके―ऐसी कोई यदि औषधि है तो वह ज्ञानरस ही औषधि है । संसार के संकट बिल्कुल थोथे है; क्योंकि उनका कल्पनासें उद्भव है, वस्तुत: उद्भव नहीं है । किसी विषय से हम पर संकट आता हो, ऐसा नहीं है, किंतु हम ही रागद्वेषमोह कल्पना आदि कुछ भाव बनाते हैं तो वे संकट आ जाते है । ये भाव भी अमूर्त हैं । इन भावों में कोई जानदारी नहीं, सारवान् नहीं, और संकट भी कोई जानदार नहीं, सारवान् नहीं । संकट भी थोथे हैं । पर थोथे संकट, थोथे भावों ने ऐसी बड़ा रूप बना? दिया कि जिसके कारण ये सभी दुर्गतियां हो गईं । तो हमारी रक्षक है ज्ञान की सावधानी और हम ज्ञान की सावधानी का उद्यम करते हैं, रुचि करते हैं सुबह के समय रोज शास्त्र सुनते है, जाप के समय रोज जाप देते हैं―ये हमारे संकटों से बचने के साधन है । कुछ तो उपयोग हो जाय और यदि जैन शासन के तत्त्व का कुछ उतार चित्त में हो गयी तो उससे बढ़कर और निरापद साधन क्या हो सकता है?
भैया ! ऐसा साहस सम्यग्दृष्टि जीव में होता है कि जो सर्व स्थितियों में अपने को अंतर में फक्कड़ समझता है । कैसी भी स्थितियां हो, जो अपने आपको एकाकी केवल शुद्ध चैतन्यमात्र जाने, उसके लिये फिर कोई संकट नहीं है । सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूप को इस प्रकार जान रहा है कि यह आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप है । इसके ग्रहण करने का साधन आत्मसंयम है । संयम एक बड़ा बल है और वह बल प्राप्त होता है किसी जीव का आघात या बाधा न करने से और अपनी इंद्रियों के बहकावे में न आने से; जिस बल के कारण यह आत्मा आनंदमग्न होता है ।
संयम दो प्रकार के हैं―(1) इंद्रियसंयम और (2) प्राणीसंयम । इंद्रियसंयम के कारण प्राणीसंयम अच्छा पलता है और प्राणीसंयम के कारण इंद्रियसंयम अच्छा पलता है । ये दोनों संयम परस्पर में साधक हैं । प्राणीसंयम क्या है ? किसी जीव को बाधा न देना, अभक्ष्य न खाना, रात्रि को ताकि का दूसरों से प्रेमपूर्वक व्यवहार, करना, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पापों में न बह जाना, किसी का अनिष्ट चिंतन न करना, मन में कुछ और, वचन में कुछ और, शरीर से कुछ और इस प्रकार के मायाचार का परिणमन न करना―ये सारी बातें हों तो आत्मा का बल कैसे न बढ़ेगा? शांति कैसे न आएगी? जब हम मिथ्याभाव करें, दूसरों से मर्यादा से अधिक प्रीति का परिणाम रखें तो उसमें क्लेश होना प्राकृतिक बात है । हम अपने परिणाम मिथ्या बनायें, मोहयुक्त बनायें तो दुःखी करने वाला दूसरा नहीं है, यह अपने परिणामों से ही दुःखी है । अपने आपमें किसी भी क्षण फक्कड़, एकाकी स्वरूप, न्यारा मात्र अपने स्वरूप अनुभव किये बिना संकटों की लड़ी टूट नहीं सकती ।
भैया ! सभी अपने आपमें नंगे हैं । किसी भी द्रव्य को देख लो । अर्थात् सभी अपने ही स्वरूप को लिये हुए हैं । कोई भी द्रव्य । किसी परस्वरूप को लिये हुए नहीं है । ऐसी प्रतीति बिना संकट नहीं टलते । ज्ञान और वैराग्य ही ऐसा बल है कि इसके कारण जीव कर्मों से नहीं बंधते और आकुलताएँ भी नहीं होतीं । जैसे किसी विषैली चीज का ज्ञान है कि इसके प्रयोग से मरण हो जाता है तो ऐसा ज्ञान हो जाने से मरण नहीं हो जाता, पर उस विषैली चीज को खा लेने से मरण हो जाता है । ज्ञान की ओर झुकाव का ऐसा प्रताप है कि यद्यपि ज्ञानी गृहस्थ भी इंद्रिय साधनों में और भोगों में परिणति करते हैं फिर भी वे खेदपूर्वक उन्हें भोगते हैं । वे अपने प्रभु की ओर झुकाव रहने के लिये भोगते हैं । भोगते हैं तो उनकी रक्षा नहीं है और अगर पर में आसक्त होकर भोगते हैं तो उनकी रक्षा नहीं है अपितु बड़ा कर्मबंधन है ।
संयम के ये दो रूप हुए―(1) इंद्रियसंयम और (2) प्राणीसंयम । इंद्रियसंयम बड़े तो प्राणीसंयम सधता है । जैसा चाहे खाया, जैसा चाहे रहन-सहन रखा, इंद्रियभोगों पर उतारू हो गये, इंद्रियों को वंश में न कर सके तो उसको विषाद और आकुलताएँ निश्चित हैं । आज के समय में पुरानी बातों को आदर नहीं दिया जाता तो उसका फल यह है कि आकुलताएँ और विह्वलताएँ ही बढ़ती हैं । पहले समय में लोग सात्विक रूप से रहते थे, सादगी से रहते थे, सादगी की ही सारी बातें थीं और धन जुड़ जाये तो उसका उपयोग धर्म में खर्च करने में रखते थे । व उनकी शांति का क्या कहना था?
कुछ लोगों ने तो अपने-अपने बुजुर्गों को देखा ही है कि वे भोजन करते थे । भोजन के बाद वे कह देते थे कि अब भोजन का 6 घंटे तक त्याग है, चार घंटे तक त्याग है । लोग सोचते हैं कि ये दादा, बाबा लोग सब पुराने दिमाग के आदमी थे । अरे भाई ! ये भी पुण्य की बातें हैं । 6 घंटे तक भोजन का त्याग किया तो 6 घंटे भोजन की वासना तो न रही । उतने समय में कुछ न कुछ निर्मलता बढ़ती थी, पुण्य बढ़ता था । देखते भी हैं कि मिल चल रहा है, सेठजी सत्संग के लिये एक-एक महीने के लिये निकल गए । फिर भी काम वैसा का वैसा ही चलता है और उससे भी अधिक अच्छा चलता है । वैभव का कारण तो पुण्य का उदय है । उसकी सुरक्षित प्रवृत्ति भी बनाए हैं तो बातें सब ठीक चलती रहेंगी । अपना तो एक सीधा प्रोग्राम बना लो । आगे-पीछे नहीं सोचना है । जो उदयानुसार आया हो उसमें से हिस्सा करके खर्च करना है । क्योंकि भाग करके ही मिलेगा । उसमें चाहे चने खाकर रहना पड़े, पर बजट बनाकर हिस्से बनाकर ही अपना प्रोग्राम बना लो तो सादगी का अच्छा जीवन व्यतीत होगा और यदि इस संसार में कुछ दिखाना है तो फिर इस संसार का ही बनकर रहना पड़ेगा । अगर संसार में किसी को कुछ दिखाने का भाव नहीं है तो धर्म की नीति से चलकर, अपनी ओर मुड़कर अपना काम किए जाओ । उसका फल संसार के संकटों से हट जाना है ।
किसी भाई ने यह पूछा कि महाराज इस संसार में कुछ दिखाना है―इस प्रकार का भाव रखेगा तो उसे इस संसार का ही बनकर रहना पड़ेगा; इसका क्या अर्थ है? तो उसके उत्तर में कहते हैं कि भाई ! हम यदि संसार में अपनी पोजीशन दिखाना चाहते है कि हम विशेष धनी हैं, हम नेता हैं, इन सबमें मैं अच्छा कहलाऊँ―ऐसे भाव यदि कोई अपने में बनाता है तो उसे इस संसार में ही जन्म-मरण करना पड़ेगा । और यदि दूसरों को दिखाने का अंतरंग में भाव नहीं है, अंतरंग में तरंग नहीं उठती हैं तो कदाचित् कर्मोदय से कभी तरंग उठ जाये तो यह मुकाबला देखें कि हम पर उन तरंगों की अधिकता है या आत्मध्यान की अधिकता है । कोई प्राणी ऐसा नहीं है जो जन्म से ही दूध का धोया हुआ निकले अर्थात् हर दृष्टि से निर्दोष निकले, फिर भी अपने आपमें मुकाबला तो देखना चाहिये कि हम यदि बाह्यपदार्थों की कुछ उपेक्षा रख डालते हैं तो हम उसकी अपेक्षा अपने को गुप्त विविक्त अपने आपमें निरखने का यत्न भी कुछ करते हैं या नहीं? यदि अपने आपको निरखते हैं तो संसार के संकटों से दूर हो जायेंगे ।
भैया ! करना कुछ सी पड़े, गुर लक्ष्य शुद्ध बनाना चाहिये । हालाँकि गृहस्थी में रहकर गृहस्थी को अपने यश को सुरक्षित रखने का कर्तव्य है । यदि गृहस्थ अपना यश सुरक्षित न रख सके तो संक्लेश आयेंगे, धर्म साधना से विचलित हो जायेगा । पर केवल यश सुरक्षित रखने के लिये ही करता है तो वह श्रावक नहीं बना । उसका लक्ष्य होना चाहिये आत्महित का । सबसे विविक्त केवल निजस्वरूप का अनुभव जगे, इसके लिये मेरी जिंदगी है और इस उपाय के लिए ही धन है और इस उपाय के करनेवाले के लिए धन है, तन है, वचन है और सबके प्रति सही सोचूँ इसके लिए मन है? ऐसा शुद्ध लक्ष्य हो और फिर बीते कुछ भी । उस बीते पर आपका कोई अधिकार नहीं है । पर लक्ष्य, तो कभी शुद्ध बने कि मेरा तो अपने आप पर ही अधिकार है ।
सुकौशल स्वामी को अनेक स्थानों पर अनेक उपद्रव आए, पर उसका उन उपद्रवों पर क्या अधिकार था? कोई भी तो अधिकार नहीं था, पर अपने लक्ष्य को शुद्ध रख सके, इस पर ही उनका हक था । उनके इस हक को कोई नहीं छीन सकता था । इसी अपने लक्ष्य को, शुद्ध बना लें और इसी लक्ष्य की पूर्ति का यत्न करें तो संकट दूर हो सकते हैं । दूसरे किसी भी पुरुष में यह शक्ति नहीं है कि वह मेरे संकटों को दूर कर दे । चाहे कितना ही अच्छा मित्र हो, हित हो; किसी में भी संकट दूर करने की सामर्थ्य नहीं है । हम ही अपने ज्ञान की करवट बदले तो आनंद पा सकते हैं । यदि हम ज्ञान को औंधा बनाएँ रहें तो हम संकटों में ही फंसे रहेंगे । विश्वास अपनी निधि पर होना चाहिए । हमारा आपका स्वरूप इतना महान् और उत्कृष्ट है कि इसके निरखने से ही सर्व कुछ प्राप्त हो सकता है ।
यह प्रभु कहा से आया है? यह बादलों से टपका है क्या? आसमान से निकला है क्या? या जमीन से सुर्र जैसा छूटकर पहुंच गया? अरे ! गृहस्थ के यहाँ ही जन्म हुआ, किसी महापुरुष ने अपने ज्ञान की खबर की, अपने आपको संभाला, ज्ञानवैराग्य की बुद्धि हुई, लो कर्मों से मुक्त हुए, भगवान् बन गए । वही तो यह स्वरूप है जो प्रभु का स्वरूप है । जैसे कोई चीज कोई मुट्ठी में ले ले और आपको न बताएं । पीछे बताएं, वह आपसे पूछे कि बतलाओ मेरी मुट्ठी में क्या है ? आप कुछ तो जवाब देंगे ही । फूल है, रत्न है, अंगूठी है । कुछ, न कुछ तो आप कहेंगे ही । वह कहेगा कि नहीं है । फिर वही पूछे कि अच्छा तुम्हीं बता दो कि क्या है मुट्ठी में ? तो कहे कि मेरी मुट्ठी में सारी दुनियां है । अच्छा खोलकर दिखाओ । खोलकर दिखाया तो निकली एक स्याही की टिकिया । अरे ! यह तो 2 नये पैसे की टिकिया है और कहते हैं सारी दुनियां । कहा―‘‘अच्छा बैठो, बतलाता हूं ।’’ वह कारीगर तो था ही । उस टिकिया को पानी में मिलाकर स्याही ना दी और कलम उठा ली । बोला―क्या चाहिये तुम्हें ? कहा स्वर्ग का विमान चाहिये । कलाकार ने खींच दिया, चित्र विमान का और कहा―अच्छा लो, बना दिया । यह तो एक उदाहरण है ।
इसी तरह आत्मा क्या है ? इसमें सर्वसिद्धियां हैं, सर्वचमत्कार हैं, सर्वस्व हैं । अच्छा, दिखाओ तो देखने की तरकीब है उससे चलोगे तो दिखा देंगे । आप हों, हम हों, कोई हों, तरकीब क्या है कि आत्मा के सहजस्वरूप में श्रद्धान, ज्ञान और आचरण हो, उसमें ही संयत हो जाओ तो चर्या का वह प्रताप हे कि सर्वसिद्धियां विकसित हो जाती है । एक अपने को सँभाला तो उससे क्या पूरा पड़ेगा ? जिंदे मेंढकों को कोई तौल सकता है? जरा किसी तराजू में 2 सेर मेंढक तोलो । एक पलड़े पर रखा और दूसरा मेढक उठाने को हुए कि वह उछल जायेगा । इस तरह से मेंढकों को कोई तौल न सकेगा । इसी तरह हम पर की व्यवस्था में ही अपनी व्यवस्था बनाना चाहे तो नहीं बना सकते हैं । दो की व्यवस्था बनाई, दो चीजें टूट गई और अपने को व्यवस्थित बना लिया तो उस डोरी से सब व्यवस्था बन गई । इस कारण अपने आपको व्यवस्थित बनाने के लिये ज्ञानस्वरूप की दृष्टि करना यह पहली आवश्यक बात है । इसके बिना जीवन सूना है, संकटों से भरपूर है । कुछ समय तो अपने शुद्धस्वरूप की आराधना में लगाओ और जो होना हो, हो; उससे मतलब मत रखो ।
भैया ! पहले बुजुर्ग लोग जो होते थे उनका नियम था कि 11 बजे तक मंदिर में रहते थे । इसके पहले कोई काम न करते थे । ऐसी उनकी व्यवस्था थी । लोगों को आश्चर्य होगा कि कैसे बेवकूफ थे । किसी जगह 5 हजार के फायदे का सौदा आए तो भी वे जल्दी मंदिर से निकलकर नहीं आते थे । उनका जीवन बिल्कुल सीधा-सादा था, सो सुखी थे । अपने सब पुराने रिवाज, प्राचीन पद्धति, संयम-नियम में लगना, विनय करना―ये सब बातें बनी रहना सुख का कारण है और जहां दन सीमाओं का भंग किया वहाँ सब आकुलताएं हैं । यहाँ यह बतला रहे हैं कि यह आत्मा स्वयं ही संयमस्वरूप है ।
लोक में जो सर्वोत्कृष्ट अप्राप्य तत्त्व है, वह यह आत्मा ही है । संयम यह आत्मा ही है । हाथ और पैर चलाने के ढंग का नाम संयम नहीं है । विषयकषायों से अपने उपयोग को मोड़कर ज्ञानदर्शनमय शुद्धचित्प्रकाश में रत कर दें, इसका नाम संयम है । आनंद संयम में ही है, इसमें कोई शक नहीं है । संयम दो प्रकार है―एक अंतरंगसंयम और एक बहिरंग संयम । अंतरंगसंयम तो यह है कि संकल्प विकल्प और विषयकषाय के परिणाम से हटना, शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र निज आत्मतत्त्व में अपना उपयोग लगाना सो अंतरंग संयम है । पर ऐसा अंतरंगसंयम ऐसी स्थिति में बन नहीं पाता कि जिस क्षोभ के कारण इसके बीसों शल्य लगे हों, दसों रोजगार रखे हों और अंट्ट-संट्ट अन्याय, मायाचार, धोखे के व्यवहार बना रखे हों और खाने का स्वाद लेने की इतनी आसक्ति हो कि जब चाहे, किसी भी समय कुछ भी वस्तु खा लेने का संस्कार बना हो । सोच लीजिये कि क्या इन बाह्यवृत्तियों के वातावरण में रहकर हम वास्तविक संयम को पा सकेंगे ? यह कठिन है और असंभव भी है । इसी कारण बहिरंग संयम लेना पड़ता है और लेना चाहिये । जैसी जिसकी शक्ति हो, निभ सके, निभने को तो सब निभता है, किंतु आधुनिक जिसे कहते हैं जेंटलमैनी, वह भी अनुभव की बाधिका है । जैसे छोटे-छोटे आदमी, जिनको 60 रुपया महीना नहीं प्राप्त होता है, मगर पैन्ट-सूट से होते हैं और कितने ही नेकटाई लगाते हैं । तो यह प्रवृत्ति जो आधुनिक है वह हमें संयम से बहुत दूर रख देती है । हम कितनी ही बड़ी पदवी के अधिकारी हों राज्यसेवा का कैसा ही काम हो, पर अंत:प्रवृत्ति विनयपूर्वक सात्त्विक सत्यतापूर्ण हो, तो हमारे जीवन को संयम के पालन का वातावरण मिलता है ।
भैया ! हम अपने ही हृदय को कलुषित बना लें तो वहाँ धर्मभावों का प्रवेश ही न हो सकेगा । फिर बतलाओ हमने नरजन्म किसलिए पाया? जो कुछ नजर आते, हैं, ये तो हमारे साथी नहीं हैं । कितने दिनों का यह सुख है? और जब तक ये सुख साधन हैं तब तक भी भरोसा नहीं है कि हमें सुख मिल जाय । सारा लाखों का धन पड़ा है, कारखाने चलते है सब कुछ बातें हैं और सभा सोसाइटी में किसी जगह कोई हल्की बात कह दे तो नवाब साहब दु:खी हो रहे हैं । क्योंकि अपमान की बात सुन ली है ना? यदि सम्यक्त्व का व ज्ञान का बल हो तो उसमें ऐसा साहस हो सकता है कि किसमें दृष्टि दें? सब मायामय चीजें हैं । तो अंत-संयम आनंदजनक है ।
शील-स्वभाव, यह भी सुख का स्वरूप है । कोई पदार्थ हो, वह अपने आपमें ही रहता है । तो इसका अर्थ यह है कि वह अपने शील में रहता है, अपने स्वभाव में रहता है । शील भी एक आत्मा ही है । जो कुछ भी उत्कर्ष का तत्त्व है वह सबमें होता है । आप है, आत्मा है, शाश्वत् मोक्ष का मार्ग भी यही आत्मा है । यह आत्मा अपने उपयोग को चला रहा है । उपयोग का ड्राइवर है । हम किस ओर किसको घुमा दें तो दुःख हो और किस ओर किसको घुमा दें तो आनंद हो । इतना हौं अंतर है । यदि इसे बाह्य दिशा में लगा दिया तो दुःख होगा और यदि अंदर की दिशा में लगा दिया तो आनंद होगा । यही आत्मा अपने आपको जानता हुआ शाश्वत मोक्ष पद को पा लेता है । संयम दो तरह के हैं―एक अपनी इंद्रियों को वश में रखना और दूसरे प्राणियों के प्राणों की हिंसा न करना । जो मनुष्य इंद्रियों को वश में रख सकता है वह प्राणियों की हिंसा को भी छोड़ सकता है । अपने शुद्धआत्मा में ही अपने की स्थिर करना, इसका नाम संयम है । यह आत्मा संयमस्वरूप है । यह आत्मा स्वयं शील है । प्रत्येक मनुष्य अपने को कुछ न कुछ रूप मान रहा है । सभी जो हम-आप बैठे हैं, कोई जैसा परिणमन पाता है उस रूप मान लेता है । मैं सेठ हूँ, मैं मुनीम हूँ, मैं पंडित हूँ, मैं बाबू हूँ, ऐसी पोजीशन का हूँ, इतने परिवार वाला हूं―से सब अभिप्राय बहिरात्मत्व के हैं । अपने आत्मस्वरूप से बाहर के पदार्थों में यदि दृष्टि दी है कि मैं मनुष्य हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ, तो यह बहिरात्मत्व है । मैं एक शुद्ध ज्ञानस्वभावी हूं―इस प्रकार ज्ञानस्वभावमात्र जो अपने आपका अनुभव करता है वह पुरुष अंतरात्मा है । सम्यग्दृष्टि है । तथा वही शील है, जो अपने आत्मतत्त्व का अनुभवन कर रहा है ।
देखिये लौकिक कलाएँ, देश को संभालने की कलाएं, हुकूमत करने की कलाएँ, ये सब कलाएँ होती हैं । पर इन सबसे उत्कृष्ट कला एक ज्ञान की है । इसमें तीन लोक-तीनकाल के समस्त पदार्थ एक साथ प्रतिबिंबित हो जाते हैं । उस कला के सामने ये सारी लौकिक कलाएँ कुछ भी सामर्थ्य नहीं रखती है और इन कलाओं में फंसे रहे, उनमें ही बुद्धि बनाए रहे तो उस ज्ञान की कला से हाथ धोना पड़ता है । इन कलाओं में अपना स्वरूप न जानकर, इनसे भी धीरे से खिसककर अंतरंग में अपने आपमें रम सकता है । वह केवलज्ञान की कला को प्राप्त कर लेता है । मैं स्वयं ही शील हूँ । काम, क्रोध, मान, माया, लोभ व मोह; ये 6 मेरे बैरी हैं । मेरा बैरी इस जगत् में अन्यत्र कहीं नहीं है । मेरा बैरी न कोई पुरुष है और न कोई पदार्थ है । मेरे ये विकार, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह; ये ही मेरे 6 बैरी हैं, ये ही अंत: पीड़ा पहुंचाते हैं, ये ही भव-वन में भटकाते हैं । आज मनुष्य हैं, कहीं कल कीड़े बन गये तो वहीं दुःख भोग रहे हैं । कौनसी स्थिति हो गई कि ये सब दुर्गतियां हो गईं । इन काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, मोहरूप बैरियों ने ऊधम मचाया तो इनसे रक्षा करने वाला मैं ही तो हूँ । ऐसा शीलस्वरूप यह मैं आत्मा ही हूँ ।
तपश्चरण भी मैं ही हूँ । अपने आपको निर्विकल्प स्वभाव में बनाए रखना, इसमें कितना बल लगाना पड़ता है? अभी-अभी आप अपना बल देख लो । शरीर में मल भरा है ना? नाक है, थूक है । अच्छा, आप सब लोग साफ-सुथरे बैठे है । यह नाक बाहर नहीं निकल जाती है, अंदर भरी है । थूक नहीं निकल पाता है अंदर भरा है । लार नहीं निकल पाती । तो यह भी एक देहबल का स्वरूप है । जिसके बल नहीं है, बूढ़ा है तो जब चाहे, लार ही टपक जाती है; नाक पोंछते-पोंछते हैरान हो जाता है । क्या फर्क आया कि शरीर में बल नहीं रहा । शरीर का बल घट गया । यह भी सबको ज्ञान है कि यह शरीर मलरूप ही है । जिसको डांटे रहते हैं । कही लार न टपक पड़े, इसलिये भी बल चाहिए ना ? यह तो एक मोटी बात कही है, पर अंदर का उपाय अपने अंदर में संयत रहे, नीयत रहे । इसके लिए कितने बल की आवश्यकता है? यहीं एक तपश्चरण है कि अपना जो शुद्ध परमात्मस्वभाव है उसमें ही प्रतपन बना रहे, तपना बना रहे, उपयोग इस चैतन्यस्वभाव में ही लगा रहे, यही है वास्तविक तपश्चरण ।
भैया । शांति पाने के लिए, कर्मों से मुक्ति पाने के लिए बाहरी चेष्टाओं का मूल्य नहीं है । अपने अंतरंग परिणाम का मूल्य है । आत्मस्पर्श हो, समस्त विकल्प-ताल को भूला दें तो इससे असीम आनंद प्रकट होता है । हम आप सब आत्माएं प्रभुस्वरूप है । जिस प्रकार का स्वरूप है उसी प्रकार का निर्माण है । अरे गेहूं पड़े हैं, कोई गिरुवा लगा हो, किसी में गोबर लगा हो, किसी में मिट्टी लगी हो, कोई साफ हो, पर उन सबका मूलभूत गेहूं तो सब एक जाति का है । केवल ऊपर लगे हुए मैल का अंतर है । इसी प्रकार जितने भी जीव हैं, प्रभु से लेकर निगोद तक, सब एक समान हैं । उनमें अंतर नहीं है । ऐसे अपने ज्ञानानंदनिधान आत्मस्वरूप को निरखो और उसमें ही रत रहो, यही परमार्थ तपश्चरण है ।
अनशन, ऊनोदरवत्ति, परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान व व्युत्सर्ग; ये 12 प्रकार के ध्यान सहकारी कारणभूत हैं । जिसको ज्ञान की साधना होती है उसके लिये तप सहायक हैं । पर जिसके ज्ञान नहीं है उसके लिये तो यह कल्पनामात्र है । कोई किसी का बुरा करने के लिये अमुक से मेरा बड़ा विरोध है, उसका नाश हो जाय―इस बात की सिद्धि के लिये भगवान् की भक्ति करने लगे तो भाई ! यह भगवान के आगे बैठा है, भक्ति कर रहा है तो कर्म डर जायेंगे क्या ? वे कर्म तो अंतरंग के परिणामों से संबंध रखते हैं । वे डरेंगे नहीं । इसी प्रकार मोक्षमार्ग के योग्य ज्ञान जिसके प्रकट नहीं होता है, ऐसे पुरुष के ये तप, कायक्लेश, साधनाएं क्या इस जीव को मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं ? नहीं । ये तो मोक्षमार्ग की बातें नहीं हैं । मुक्ति का मार्ग तो एक शुद्ध ज्ञायकस्वभाव की रुचि में मिलता है । निश्चय से देखो तो अपने ही अंतरंग में समस्त परद्रव्यों की इच्छा के निरोध के द्वारा अपना परमात्मस्वभाव मिलता है ।
लोग प्रभु को प्रीतम कह कर पुकारते हैं । सुना होगा भजनों में, प्रीतम ही नहीं; सैया, बलमा आदि भी कहते हैं । प्रिय में भी जो प्रिय हो उसे बोलते हैं प्रियतम । प्रियतम का रूप बिगड़ गया सो हो गया प्रीतम । सोचो तो सही कि इस जगत् में प्रियतम कौन है? धन पर आपत्ति आए, स्त्री-पुत्रों पर आपत्ति आए, मुकाबले में दोनों सामने हैं तो आप किसको बरदास्त कर लेंगे और किसको बचायेंगे ? आप धन की आपत्ति तो बरदाश्त कर लेंगे । और स्त्री-पुत्रों को बचायेंगे । तो धन के मुकाबले में स्त्री-पुत्र प्रियतर हुए । परिवार पर भी आपत्ति हो और अपने जान पर भी आपत्ति हो तो आप यही वृत्ति कर डालेंगे कि अपने की ही बचावेंगे । बताओ कौन प्रियतम हुआ ।
अपने आप पर कितने उपद्रव उठ रहे हैं ? कितने रागादिक विकार उठ रहे हैं ? एक तो प्राणों का घात और एक ज्ञानगुण का घात । जो ज्ञानी पुरुष होगा उसके मुकाबलेतन देखो, एक और जान जाने का प्रसंग है और उसी काल में विकल्प करके ज्ञानगुण के घात न करने का प्रसंग है । तो वह अपने जान की उपेक्षा कर देगा और अपन ज्ञान को सुरक्षित रखेगा, निर्विकल्प रहेगा । ऐसा ही तो वह महात्मा है । तब कौन हुआ प्रियतम? निज सहज ज्ञानस्वभाव प्रभु ।
सुकौशल सुकुमार, पार्श्वनाथ प्रभु आदि; जिन पर बड़े-बड़े उपसर्ग हुए, उन्होंने अपने ज्ञान को ही स्वरक्षित रखा; अपने शरीर को सुरक्षित रखने का जरा भी विकल्प नहीं किया । अत: उनका प्रियतम था ज्ञान । और वही था उनका स्वामी [मालिक] । स्वामी का ही रूप बिगड़ कर सैया हो गया । कोई कहता है वल्लभ । वल्लभ उसे कहते हैं जो प्रिय होता है । शब्द तो है वल्लभ, पर उससे बिगड़ कर बन गया बलमा । तो मेरा नाथ, मेरा स्वामी, मेरा रक्षक, मेरा गुरु, मेरा देव, सब कुछ मैं ही हूं । यह निज शुद्ध आत्मा ही उपादेय है ।
मैं किसका संचय करूँ? किसको अपना घर मान लूँ जिससे सदा को लिये निराकुल हो जाऊं । धन वैभव, सोना, चांदी, घर जो कुछ भी दिखता है उनसे शांति नहीं मिलती है, अशांति ही बढ़ जाती है । संचय की धुनि बढ़ जाती है । कौनसी चीज का संग्रह कर लें तो शांति मिल जाये, ऐसा निर्णय करके बतलाओ । दसों आदमी मुझे अच्छा कहने लगें तो शांति मिलेगी क्या ? इस पर भी विचार करो । क्या चीज मिल जाये कि शांति हममें भरपूर हो जाये? ऐसी कोई चीज बाहर में हो तो उसका नाम लेकर बतलाओ । ऐसी कोई चीज बतलाओ जिसके पा लेने के बाद फिर किसी प्रकार के कोई क्लेश नहीं उठेंगे । कुछ भी बाहर में ऐसा नहीं है । अंतर में जो निर्विकल्प शुद्ध ज्ञानस्वरूप है उसका संचय तो करिये । ज्ञानस्वरूपमात्र अपने को निरखकर, अपने को ज्ञानानंदस्वरूप से परिपूर्ण समझकर विश्राम से बैठो तो तुम्हें आत्मीय, स्वाधीन विलक्षण आनंद प्रकट होगा । यही तो एक बड़ी तपस्या है ।
भैया ! अपने में शांति चाहते हो तो अपने आपमें ही गुप्त बने रहो, किसी से कहने सुनने की आवश्यकता नहीं है, चाहे कोई यह जानता रहे कि यह अपने आत्महित के लिए कुछ नहीं कर रहा है । अपने आपमें ही गुप्त ही गुप्त अपने आत्मतत्त्व की भावना बनाए रहो तो यही प्रगति का अमोघ उपाय है । अपना ही शुद्ध आत्मतत्त्व अपने को उपादेय है, ऐसी रुचि करने से यही आत्मा निश्चय सम्यक्त्व होता है । याने सब उत्कृष्ट प्राप्तव्य चीज आत्मा ही है । वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान के अनुभवन से यह ही आत्मा निश्चय ज्ञान होता है और यह ही आत्मा मोक्षमार्गी होता है । संकटों से छूटने का उपाय यही तो आत्मा है ।
रागादिक समस्त विकल्प समूहों का त्यागकर इस विधि से निजपरमात्मतत्त्व में परम समतारसरूप परिणम जाये, कहीं इष्ट और कहीं अनिष्ट आशय न जगे; ऐसी वृत्ति बने तो यही आत्मा मोक्ष का मार्ग है । इस प्रकार इस गाथा में यह तात्पर्य निकला कि दोनों प्रकार के संयम में रहकर, शील में रहकर शुद्ध आत्मा की अनुभूतिरूप भावसंयम आदि परिणाम करो तो ये सब उपादेय सुख के साधक हैं और संयमशील तो यह शुद्ध आत्मरूप ही है । सो यह अपना आत्मा ही अपने को उपादेय है । जो कुछ-कुछ जान रहा है उसके ही जानने मे लग जाएँ, यह ही दुःखों से मुक्त होने का उपाय है ।
इस प्रकार इस दोहे में अपने शुद्ध आत्मा को ही सर्वस्व प्राप्तव्य कहा गया है । मैं आकिंचन् हूँ, अपने प्रदेशमात्र हूँ, मैं केवल ज्ञान-दर्शन-ज्योति मात्र हूं, शुद्धचैतन्यस्वरूप हूँ, और परिणमता रहता हूँ । इससे आगे मेरा कुछ लेन-देन नहीं है । इससे आगे जो कुछ भी विकल्प, संकल्प एवं विडंबना आती है वह सब क्लेश हैं, मेरा स्वरूप नहीं है । मैं शुद्ध हूँ, आकिंचन् हूँ―ऐसी निरंतर अपने आपकी भावना हो; जिससे निर्विकल्प स्थिति बने और शुद्ध आनंद का अनुभव हो ।
जितने भी करने योग्य काम हैं वे सब इस आत्मस्वरूप ही हैं । यही आत्मा संयम है, यही आत्मा शील है, यही आत्मा दर्शन है, यही आत्मा ज्ञान है; यही आत्मा अपने आपमें शुद्ध आत्मस्वरूप उपादेय है―इस प्रकार की बुद्धि से जीव अपनी ओर झुकता है । इसी कारण यह आत्मा सम्यक्त्व है । रागद्वेषरहित निज आत्मतत्त्व के ज्ञान का अनुभव इस आत्मा को ही है । इसलिए यह निश्चय ज्ञान है । मिथ्यात्व रागादिक समस्त विकल्पजालों के त्याग द्वारा परमात्मतत्त्वमय परमसमतारूप भावों से यही परिणमता है, इसलिए यही मोक्षमार्ग है । सारांश यह है कि यह शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, क्योंकि स्वाधीन परमउपादेय आनंद का साधक आत्मा ही है । यह साधक कैसे बन जाता है? अपना जो शुद्धस्वरूप है यानी ज्ञानमात्र अपने आपकी सत्ता के कारण अपने आपमें जो स्वरूप है, उसका अनुभवरूप भावसंयम बनता है । इस कारण यही आत्मा अपने स्वाधीन सुख का साधक है; सो यही आत्मा उपादेय है । यह इस दोहे का भावार्थ हुआ । अब यह बतला रहे हैं कि अपनी शुद्ध आत्मा के ज्ञान को छोड़कर निश्चयनय से देखा जाये तो और कुछ दर्शन, ज्ञान, चारित्र नहीं है । शुद्ध आत्मा की संवेदना में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का एकत्व होता है, यह ही मोक्ष का मार्ग है । शुद्ध आत्मा के संवेदन को छोड़कर और कुछ दर्शन, ज्ञान, चारित्र नहीं हैं । इस अभिप्राय को रखकर इसका सूत्र कहते है―