वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 3
From जैनकोष
गिरिकंदरदुर्गेषु ये वसंति दिगंबरा:।
पाणिपात्रपुटाहारस्ते यांति परमां गतिम्।।3।।
एकांतवासी, करपात्राहारी योगियों का स्तवन व मंगलवाद- अब यह योगभक्ति में चल रही लघुयोगभक्ति का अंतिम छंद है। जो दिगंबर साधु गिरि की गुफावों में जंगलों में जो बसते हैं ऐसे पाणिपात्रपुट में आहार लेने वाले दिगंबर साधु उत्कृष्टगति को प्राप्त होते हैं। ये दिगंबर कहलाते हैं। दिशा ही जिनका अंबर है, वस्त्र है, तो शरीर और यह दिशा इनके बीच में कुछ आड़ नहीं है। जो शरीर से लगा हो वही तो शरीर का वस्त्र है, तो उनके शरीर पर दिशायें और कुछ नहीं। ऐसे दिगंबर अर्थात् निर्वस्त्र, निर्ग्रंथ साधु ये गिरि गुफावों में, टूटे फूटे दुर्गों में, वनों में बसते हैं। जब क्षुधा की तीव्र वेदना होती है तो एक जीवन रखने के लिए जो कि संयम का साधनभूत है आहारचर्या को निकलते हैं तो वहाँ किसी बर्तन में, पात्र में आहार नहीं लेते हैं, हस्त ही उनके पात्र हैं। हस्त की अंजुली बनाकर उसमें ही ग्रासदातार के द्वारा दिया हुआ लेकर आहार करते हैं। इस निष्पृहवृत्ति में अनेक गुण भरे हुए हैं।
निष्पृहता, आहार में तृष्णा न जगना, अंतराय आ जाय तो एक ही ग्रास तो बरबाद हुआ, बहुत बरबादी करने से बचना, और वे भी खड़े हुए आहार ले जाते हैं जिससे यह भी स्पष्ट विदित हो रहा है कि ये योगी पुरुष बेकार नहीं रहते हैं। जंगल में या अपने स्थानों में इनको आत्मध्यान का इतना बड़ा काम पड़ा हुआ है कि लो इनको इतनी भी फुरसत नहीं कि आराम से बैठकर मौज से आहार तो कर लें। यह थोड़ासा इन्होंने समय निकाला है। इस जीवन को रखने के लिए उस अल्पसमय में खड़े ही खड़े पाणिपात्रपुट में आहार लिया करते हैं, फिर अपने आत्मध्यान के महान् पुरूषार्थ में लग जाते हैं। यह भी एक भावपूर्ण वंदन है। उनके बारे में उनका उत्कृष्ट रूप सोचना यह भावपूर्ण वंदन है। इस प्रकार योगीश्वर के गुणस्मरण के साथ यह योगभक्ति समाप्त होती है।
योगिभक्ति की अंचलिका- योगिभक्ति करते समय शरीर के भी ममत्व के त्याग का यत्न रहता है सो योगिभक्ति करते समय जो कायोत्सर्ग किया उसमें जो अतिचार संभव हुए उन दोषों को दूर करने के लिये अब योगिभक्ति की अंचलिका का पाठ किया जा रहा है।
हे भगवन् ! योगिभक्ति में कायोत्सर्ग किया, उसकी आलोचना करना चाहता हूं- ढाईद्वीप दो समुद्रों में पंद्रह कर्मभूमियों में आतापन, वृक्षमूल, अभ्रवास, स्थितापन, मौन, वीरासन, एकपार्श्व, कुक्कुटासन, चतुर्थभक्त, पक्षापवास आदि योगों से युक्त सर्वसाधुवों को नित्यकाल अर्चता हूं, पूजता हूं, वंदता हूं, नमस्कार करता हूं। मेरे दु:खों का क्षय होवे, कर्मों का क्षय होवे, रत्नत्रय का लाभ होवे, सुगति में गमन होवे, सम्यक्त्व होवे, समाधिमरण होवे, जिनगुणों की संप्राप्ति होने।
।।योगिभक्ति प्रवचन समाप्त।।