वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 296
From जैनकोष
कह सो घिप्पइ अप्पा पण्णाए सो उ घिप्पए अप्पा ।
जह पण्णाइ विहत्तो तह पण्णाएव घेत्तव्वो ।।296।।
बंधच्छेद और आत्मोपादान―अपने-अपने नियत लक्षणों के द्वारा प्रथम तो जीव और बंधन का भेद किया जाता है, अथवा जैसे उपाधि के समक्ष रखे हुए प्रतिबिंब में जो उपाधि के अनुरूप छाया से चित्रित है वहां दर्पण के लक्षण और औपाधिक छाया का लक्षण जानकर वहाँ भेद किया जाता है । इसी प्रकार इस चैतन्यस्वरूपी आत्मा में और उपाधिजनित रागादिक विभावों में उनके निज-निज लक्षण के द्वारा भेद किया जाता है । सो प्रथम तो आत्मा और बंध में छेदन कर देना चाहिए और फिर शुद्ध आत्मा का ग्रहण करना चाहिए ।
प्रज्ञा का आदिमध्यांत चमत्कार―उपयोग द्वारा आत्मा का और बंध का द्वेधीकरण पहिले तो श्रद्धामूलक होता है, पश्चात् अंतःसंयम के द्वारा इस रागादिक से आत्मा को कुछ भिन्न किया जाता है और अंत में रागादिक से आत्मा को सर्वथा निवृत्त कर लिया जाता है । इस प्रारंभिक माध्यमिक और अंतिम हित में सब इस प्रज्ञा का ही चमत्कार है । जिस प्रज्ञा द्वारा प्रारंभिक स्थिति में बंध से आत्मा को भिन्न किया गया है । इसी प्रज्ञा द्वारा भिन्न किए गए आत्मा को ग्रहण करना चाहिए । भोजन बनाकर रख दिया । क्यों बनाया भोजन? उसका प्रयोजन तो खाना है । इसी प्रकार आत्मा का और रागादि भावों का द्वेधीकरण किया है, किंतु क्यों किया गया द्वेधीकरण? इसका प्रयोजन तो भिन्न किए गए शुद्ध आत्मा का ग्रहण कर लेना है ।
योजना और प्रयोजन―जैसे कोई महिला भोजन तो सबको बनाती जाये और स्वयं कुछ न खाये तो उसे लोक में क्या कहेंगे ? अथवा कोई घर का मालिक भोजन बनाता जाये, पूर्ण करके रख ले, बस भोजन बनाने के लिए उसने बनाया, उपयोग उसका कुछ न करे तो ऐसी बेढंगी प्रवृत्ति वाले को कौन बुद्धिमान् कहेगा? इसी प्रकार आत्मा और शरीर को भिन्न समझने का प्रयोजन है शरीर को भूल जावो और आत्मा को ही लक्ष्य में लो, रागादिक भावों से सहज चैतन्यस्वरूप निज आत्मा से भिन्न जानने का प्रयोजन है कि रागादिक को भूल जावो, उस ओर दृष्टि ही न दो और शुद्ध ज्ञान प्रकाशमात्र चैतन्यस्वरूप को उपयोग में लो । भेद विज्ञान का प्रयोजन यह ही है कि रागादिक बंधों से आत्मा को भिन्न जानकर इस शुद्ध आत्मा का ही ग्रहण करना चाहिए ।
रत्नत्रयमयी प्रज्ञा―जिस परिणति के द्वारा रागादिक रूप बंध छेदा जाता है वह परिणति है निश्चयरत्नत्रय स्वरूप ज्ञानवृत्ति की परिणति । निश्चयरत्नत्रय स्वरूप ज्ञानवृत्ति की परिणति । केवल चेतना जिसका स्वभाव है, अपने सत्त्व के कारण स्वरसत: जानन देखन ही जिसका स्वभाव है ऐसे स्वभावमय परमात्मतत्त्व का सम्यक्श्रद्धान करना अर्थात् रुचिपूर्वक हित की दृष्टि रखकर उस परमात्मस्वभाव को लक्ष्य में लेना और परमात्मतत्त्व का ज्ञान करना, उपयोग भी फिर अन्यत्र न लगाना और इस ज्ञान दर्शनस्वभावी आत्मा के ज्ञान में ही निरत रहना, यही है निश्चयरत्नत्रय । इस निश्चयरत्नत्रय के परिणमन से आत्मा से बंध को अलग
कर दिया जाता है ।
आत्मपरिचयपद्धति―भैया ! किसी चीज को समझने की तरकीब जिस प्रकार समझी जाती है उस प्रकार करने से होती है । जैसे सुगंधित फूल का गुण समझने के लिए आंख समर्थ नहीं है, उसे तो नासिका द्वारा सूंघ कर ही जाना जा सकता है कि यह फूल बहुत गुणों वाला है । जब कोई आपसे कहे बांस वाली मिश्री का डला दिखाकर कि भाई देखो तो जरा इस मिश्री की डली को । तो आप तुरंत ही डली को उठाकर मुँह में रख लेंगे । फिर वह जरा भी लड़ाई न करेगा कि वाह हमने तो तुम्हें देखने के लिए कहा था, तुमने तो मुंह में रख लिया । क्योंकि वह जानता है कि खाने की चीज का देखना मुंह के ही द्वारा होता है, आंख द्वारा नहीं होता है । इसी प्रकार आत्मा के सहजस्वरूप का परिचय वाणी के द्वारा नहीं होता । आत्मा के सहजस्वरूप का परिचय अंतर में ज्ञान में लक्ष्य किए जाने पर होता है । जब यह ज्ञान और जिस लक्ष्य में लिया जा रहा है वह ज्ञानस्वरूप जब ज्ञाता ज्ञेय बनकर एकरस हो जाता है तब आत्मा के स्वरूप का वास्तव में परिचय मिलता है । वाणी से, शब्दों से, संकेतों से परिचय नही मिलता है ।
संकेत और संकेतित―जैसे कोई वैद्य शिष्य को जंगल में औषधियां बताने जाये, एक फुट भर का छोटासा बेंत लेकर और वह बेंत से इशारा करके बताये कि यह अमुक चीज की औषधि है, यह अमुक चीज की औषधि है तो शिष्य को गुरु के बेंत को न देखते रहना चाहिए क्योंकि उसका बेंत औषधि नहीं है । औषधि तो अन्यत्र है, बेंत द्वारा संकेत की जाने वाली दिशा की ओर जाये, बेंत पर नहीं जाना है । इसी प्रकार आत्मा के स्वरूप का परिचय कराने वाले शब्दों पर न जाना, ये शब्द जिस ओर को संकेत करते हैं उन शब्दों को सुनकर खुलकर उस लक्ष्य को लक्ष्य में लेना यह उपाय है । आत्मा के परिचय करने का जो यह उपाय कर लेता है यह तो आत्मज्ञानी बनता है और जो केवल शब्दों में अटकता है वह आत्मज्ञानी नहीं हो सकता ।
शब्दों में अटकने के कारण―भैया ! शब्दों में अटकने के दो कारण होते हैं एक तो अज्ञान और एक मोह । यद्यपि अज्ञान और मोह बात एक ही है फिर भी उस एक मिथ्यात्व परिणमन में ज्ञान की कमी का अंश लेकर तो अज्ञान कारण बताया है और परभावों में अपनी प्रतिष्ठा रखने के परिणाम का अंश लेकर मोह को बनाया है । लोग शब्दों में अटक जाते हैं और शब्दों के विवाद में रह जाते हैं उसका मुख्य कारण किसी को तो अज्ञान बनता है । उन शब्दों का जो वाच्य है उस स्वरूप को न जान पाया, सो शब्दों में ही अपना बड़ा बल लगा रहा है । और एक ऐसा जीव है जिसको इन असमानजातीयद्रव्यपर्याय रूप मनुष्य पर्यायों से अपनी कुछ प्रतिष्ठा रखने का भाव है सो शब्दों से तो वे बोलते जाते हैं उस आत्मस्वभाव की ही बात, किंतु अंतर में बसी है यह मलिनता कि लोग समझें कि यह कितना विशेष आत्मा की जानकारी रखता है ? इस मोह की अटक से शब्दों में अटक रह जाती है ।
विशुद्धभावनाबल―मोह और अज्ञान को कम करके अपने हित की विशुद्ध भावना द्वारा जो इन दोनों पदों को तोड़कर अंतर में प्रवेश करता है वह आत्मा का परिचय पाता है । सारा जहान यदि मेरी प्रशंसा करने लगे तो उन भिन्न जीवों की परिणति से क्या आनंद आ जायेगा ? सारा जहान यदि मुझे भूल जाये अथवा मेरा अपमान करे तो क्या उन भिन्न जीवों की परिणति से इस मुझमें कुछ बिगाड़ हो जायेगा ? यहाँ जो कुछ सृष्टि होती है वह सब अपने आपकी दृष्टि के अनुसार होती है । हम अपने आपमें अपने आपको कैसे देखे कि हमारी शिव सृष्टि हो और कैसे देखें कि हमारी भवसृष्टि हो । यह सब मेरी करतूत पर निर्भर है । किसी दूसरे जीव की करतूत पर निर्भर नहीं है । अपने आपकी शिवमयी सृष्टि के लिए अपने को शिव स्वरूप तके, कल्याणमय, ज्ञानानंदघन ।
प्रसाद का उपाय―भैया ! किसी का प्रसाद पाना हो तो एक मन होकर उसकी भक्ति में लगे तो प्रसाद मिलता है । लोकव्ययहार में भी यदि दसों से कोई मित्रता बनाएं तो उसको किसी से प्रसाद नहीं मिलता है । क्योंकि वे दसों ही सोचते हैं कि यह मुझ पर निर्भर नहीं है, मेरा ही अनुरागी नहीं है । इसके तो दसों मित्र हो रहे हैं । जैसे लोग कहते हैं कि जिसके दसों मामा गांव में हों तो वह भूखा भी रह सकता है । क्योंकि सब वही सोचते हैं कि कहीं खा लिया होगा, यहाँ तो उसके कितने ही रिश्तेदार है । जिसका गांव में केवल एक ही रिश्तेदार है सो उसकी पूरी फिक्र रहती है । 24 घंटे की चर्या की परवाह रहती है । हम चाहे कि ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा मुझ पर प्रसन्न हो और इस ज्ञायकस्वरूप के जानी दुश्मन रागादिक भावों में हम अपना अनुराग बनाएँ तो ज्ञायकस्वरूप भगवान के प्रसाद की क्या वहां आशा भी की जानी चाहिए ?
स्वरूपसर्वस्व―वह ज्ञायकस्वरूप ही मेरा भगवान है, यह ही मेरा शास्त्र है, यह ही मेरा गुरु है, यह ही मेरा व्रत, तप, संयम है, यह ही मेरा परमार्थ शरण है ऐसा कहने में व्यवहार के देव, शास्त्र, गुरु का प्रतिषेध नहीं किया किंतु व्यवहार में देव शास्त्र गुरु को मानकर भी परमार्थ से वह अपने परिणमन को ही मान रहा है । एक वस्तु का दूसरे वस्तु पर परिणमन नहीं होता ।
क्रोधवृत्ति की समीक्षा―जैसे आप किसी बालक पर क्रोध करें तो यह बतलावो कि वास्तव में आप किस पर क्रोध कर रहे है? आपकी बात पूछ रहे हैं और क्रोध की बात पूछ रहे हैं, आप जितने हैं उतने को देखकर बतावो, और क्रोध जिसे कहते हैं उसको देखकर बतावो कि आप क्रोध किस पर करते है? आप अपना कुछ भी काम अपने प्रदेश से बाहर नहीं कर सकते हैं । यदि करते होते तो आज यह सारा संसार मिट जाता । कोई पदार्थ किसी पदार्थ को कुछ कर देता तो यों कुछ भी न रहता और फिर दूसरे भगवान तो अपने आपके सिवाय अन्य का कुछ करने का विकल्प भी नहीं करते, न कुछ करते, किंतु यहाँ आप दूसरों को कुछ करने लगे तो भगवान से भी बड़ी बात आपमें आ गयी (हँसी) । वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि कोई पदार्थ किसी दूसरे पदार्थ में कुछ करता नहीं है । आप क्रोध अपने ज्ञायकस्वरूप भगवान पर कर रहे हैं, बालक पर नहीं कर रहे हैं । क्रोध स्वभाव की चीज नहीं है । इस कारण क्रोध स्वरूप के निर्माण में कोई बाध्य विषय होना ही पढ़ता है । वह बालक आपके क्रोध-स्वरूप के निर्माण में विषय मात्र है, पर न आप बालक पर कुछ करते हैं, न बालक आप पर कुछ करता है । तो वास्तव में आपने अपने को ही क्रोधित किया, अपने पर ही क्रोध किया ।
रागवृत्ति की समीक्षा―इसी प्रकार आप बालक पर जब राग करते हैं तो आपने किस पर राग किया? आपने केवल अपने आप पर राग किया, बालक पर राग नहीं किया क्योंकि आप अपने प्रदेश में है, बालक अपने प्रदेश में है । आप अपने से उठकर बाहर नहीं आ सकते । आपका परिणमन आपके प्रदेश से उठकर बाह्य पदार्थों में नहीं जा सकता । सो आपने अपने आप पर ही राग परिणमन किया है, बालक पर नहीं किया है ।
ज्ञानवृत्ति की समीक्षा―अच्छा, न आप बालक पर क्रोध करें, न बालक पर राग करें किंतु बालक को सिर्फ जानते भर है । तो आप यह बतावो कि आपने बालक को जाना, क्या यह वस्तुत: सही है ? सही नहीं है । उस समय भी आपने अपने को जाना । पर वह साकार जानन किसी पर को विषय बनाए बिना होता नहीं है । यह साकार जानन की विधि है । सो उस जानन का विषयभूत वह बालक होता है पर वास्तव में आपने अपने को ही उस बालकाकार रूप में जाना, बालक को नहीं जाना ।
प्रभूभक्ति की समीक्षा―इसी प्रकार जब आप प्रभु की भक्ति करते हैं वहाँ आप अपने आपके गुणों के परिणमनरूप अपने गुणों की भक्ति करते हैं, किंतु गुणों के परिणमन रूप उस भक्ति का निर्माण निर्दोष सर्वज्ञ प्रभुस्वरूप को विषय करके बन पाया है इसलिए वह प्रभु आपकी भक्ति का विषय है किंतु आप प्रभु पर भक्ति नहीं कर सकते । अपने आपके गुणों के परिणमन रूप अपने गुणों की भक्ति करते हैं । तो विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावात्मक अपने आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप निश्चय रत्नत्रयरूप छैनी से बंध को पृथक् करना और बंध से पृथक किये गये शुद्ध अर्थात् केवल निजस्वरूपमात्र आत्मा को ग्रहण करना चाहिए ।
समरसनिर्भरा प्रज्ञा―यह शुद्ध आत्मा जब अपने आपके ग्रहण में आता है तब वीतराग सहज उत्कृष्ट आनंद रूप समतारस से भरी हुई वृत्ति से यह आत्मा पकड़ में आता है अर्थात् समता को उत्पन्न करती हुई वृत्ति में आत्मग्रहण होता है । इस प्रज्ञा द्वारा आत्मा और बंध का लक्षण भिन्न-भिन्न पहिचाना था । उसी प्रज्ञा में और तेज बढ़ाकर रागादिक बंधनों को छोड़कर अपने इस शुद्ध आत्मा को ग्रहण कर लेता है । बस इसी प्रकार अपने आत्मतत्त्व में प्रवेश करना, सोई सर्वसंकटों से छूटने का उपाय है ।
यह आत्मा प्रज्ञा द्वारा किस तरह ग्रहण किया जाना चाहिए, ऐसा प्रश्न होने पर अब उत्तर दिया जा रहा है ।