वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 46
From जैनकोष
एक: कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी इत्यज्ञानां शमयदभित: कर्तृकर्मप्रवृत्ति ।
ज्ञानज्योति: स्फुरति परमोदात्तमत्यंतधीरं साक्षात्कुर्वन्निरूपधिपृथग्द्रव्यनिर्भासि विश्वम् ।।46।।
450―जीव अजीव का कर्तृकर्मवेश में प्रवेश और सहज ज्ञानज्योति के अभ्युदय में कर्तृकर्मवेश का मिटाव―कर्तृकर्माधिकार का यह प्रथम कलश है । अज्ञानी जीव यह सोचता है कि यह मैं कर्ता हूँ और ये रागद्वेष विषय कषाय ये सब मेरे काम हैं । अब आप देख लीजिए जगत के सभी मनुष्यों पर दृष्टि डालकर प्राय: इसी ख्याल के प्राणी मिलते हैं और इसी पर ही शान रखते हैं कि, मैने ऐसा किया, मैं ऐसा कर दूँगा, मैं ऐसा कर रहा हूँ । तो इन विषय कषायों के कर्तृत्व का जब तक भाव है, तब तक जीव को अज्ञान बताया गया है । देखिये यद्यपि लोग इतना भी नहीं समझ पाते हैं कि मैं कषाय को कर रहा हूँ, इच्छा कर रहा हूँ, क्योंकि जो व्यामूढ़ प्राणी हैं वे तो सीधे परपदार्थों में करने की बात किया करते हैं, भीतर में वैभव के कर्ता की भी चर्चा नहीं करते किंतु मैंने मकान बना लिया, दुकान बना ली, फैक्ट्री बना ली, मैंने लोकोपकार कर लिया, इस प्रकार इन बाहरी पदार्थों में ही कर्तापने की बुद्धि रखते हैं । लेकिन तथ्य वहाँ यह ही है इस ढंग से कहा जा रहा है, भीतर में यह महसूस होता ना कि मैंने बड़ी चतुराई की, मैंने बड़ा उत्तम कार्य किया । तो जो अपने में विभाव परिणमन जग रहा, शुभ अथवा अशुभ भाव बन रहे, तो दोनों प्रकार के (अच्छे, बुरे) भावों का यह अपने को कर्ता मानता है, ऐसा कर्ता, कर्म की प्रवृत्ति चल रही थी तो कर्ता कर्म की प्रवृत्ति को शांत करना है । देखिये नाटक में भी यह ही ढंग रहता है । नाटक का जो मुख्य पात्र है वह धीर हो, उदार हो, गंभीर हो, ऐसा ही पात्र बनाया जाता है । किसी भी नाटक का मुख्य पात्र आदर्श रूप बनाया जाता है और इसी के नाम पर नाटक का नाम चलता है । चलते हैं ना नाटक―श्रीपाल, अकलंक, निकलंक, मैनासुंदरी आदिक, इनके जो मुख्य पात्र है, जिनके सदाचार और जिनके प्रभाव का दुनिया में प्रकाश फैलता है वही तो मुख्य पात्र होता है सो वह धीर होगा, गंभीर होगा, सर्वगुणसंपन्न होगा । तो, अब देखिये नाटक में तीन बातें अभी तक आयी है । जीव कर्ता कर्म का भेष रखकर आया, अजीव कर्ता कर्म का भेष रखकर आया और दुनिया की आंखों में धूल झोंकने जैसा आडंबर बनाया । पर वहाँ बहुत-बहुत कुछ अपना आडंबर बना ही था कि एकदम ज्ञान प्रकट हुआ और यह दोनों के दोनों स्टेज छोड़कर निकल भागे कि अब ज्ञानज्योति जो बहादुर धीर वीर है इसके सामने हमारा कर्ता कर्म का नाटक न चल सकेगा । इस तरह का रूपक दिखाया है इस कलश में कि जीव और अजीव कर्ता कर्म के रूप में नच रहे थे । शुद्ध ज्ञान प्रकट हुआ कि कर्ता कर्म का भेष दूर हो जाता है ।
451―क्रोधादिक भावों में तादात्म्य बुद्धि होने क्रोधादि चेष्टाओं की उद्भूति―अच्छा अब यह परखे कि यह जीव कर्ता बन कैसे रहा है? तो बात यह हुई कि ज्ञानी जीव तो निःशंक अपने को ज्ञान रूप से प्रवर्तन कराता है, क्योंकि उनका यह निर्णय है, विश्वास है कि मैं और ज्ञान एक ही चीज हूँ । ज्ञान का मुझमें तादाम्य संबंध है, अर्थात् ज्ञान है सो ही मैं हूँ ऐसा जो जानता है सो ही तो ज्ञान के अनुरूप चेष्टा करेगा । जैसे यहीं कही जिसको यह श्रद्धा है कि यह मेरा बेटा है वही, तो उस बेटे के अनुरूप अपनी चेष्टा करेगा । मारेगा, डाटेगा, खिलायेगा, प्रीति करेगा, ये चेष्टायें किस आधार पर हुई? यह मेरा बेटा है इससे मेरा संबंध है, इसी प्रकार संस्थाओं के संबंध में जब यह मान लिया जाता कि मैं इसका मंत्री हूँ, अमुक हूँ तो वह उस प्रकार की चेष्टा करता है ना? अभी तक उस संस्था के कुछ न थे तो कुछ उसकी चेष्टा भी थी क्या? आज बन गए अधिकारी तो आज कल उसकी मंत्रीपने की चेष्टा हुई कि नहीं? तो जितनी वृत्तियाँ है वे सब विश्वास के अनुरूप होती है । ज्ञानी को अपने में ज्ञानस्वरूप का विश्वास है सो वह ज्ञानरूप से ही निशंक प्रवृत्ति करता है । अज्ञानी जीव को मैं क्रोध हूँ, मान हूँ कषाय हूँ, जो मलिनता है उस मलिनता रूप ही अपनी श्रद्धा है कि मैं तो यह हूँ, अज्ञानरूप हूँ । तो अज्ञानी ने कषायों से जब अपना तादात्म्य संबंध मान लिया तो वह क्रोधरूप ही तो वर्तेगा, मान आदिक रूप ही तो चलेगा । इस तरह उसमें एकपना मानने से कर्ता कर्म की प्रवृत्ति हुई । तो यहाँ यह निर्णय देखिये कि क्रोधादिक भाव कर्मविपाक का एक प्रतिबिंब है, मेरे आत्मा का स्वरूप नहीं है, परभाव है । यह तो हटने के ही है और निरंतर हटते ही रहते हैं, पर अज्ञानी क्रोधादिकों में निरंतर लगता ही रहता है । यह क्रोधादिक निषेध के योग्य हैं, आस्रव हैं उसमें प्रवेश न करें ऐसे यह प्रतिषिद्ध है तो भी, चूंकि मान लिया कि यह मेरा है तो यह क्रोध करता है, राग करता है, मोह करता है, सारी चेष्टायें करता है ।
452―पर में अहंकार ममकार के फल में भ्रांत चेष्टाओं की वृत्ति―जैसे जिस पुरुष को स्त्री से अत्यंत मोह है, यही मेरा सर्वस्व है ऐसा मानता है तो स्त्री का मरण होने पर यह भी तुरंत जान छोड़ देता है । अब मुझे जीकर करना क्या? मोह की लीला है ऐसी । एक बार ऐसी घटना हुई बनारस में । इस देह की चाची वहाँ पर चिरोंजाबाईजी (गुरू गणेशप्रसादजी को पालने वाली धर्ममाता) थी जो कि एक जगह ठहरी थी । वहीं पास के कमरे में कोई एक गणित का प्रोफेसर भी ठहरा था तो वह फोटो लिए था अपनी स्त्री की । उसकी स्त्री मर चुकी थी । तो वह उस फोटो से ही बातें कर रहा था अरे क्या तुम अभी सोती ही रहोगी? उठो, नहाओ धोओ, मंदिर जाओ, फिर खाना बनाना हैं । देखो था वहाँ कोई नहीं, वह सब उस फोटो से ही कह रहा था । तो चिरोजाबाईजी उससे बोली―अभी आप किससे बातें कर रहे थे? था तो आपके पास कोई नहीं, पर आप बातें किससे कर रहे थे । तो उस प्रोफेसर ने बताया कि देखो मैं बंबई का एक बहुत बड़ा गणित का प्रोफेसर हूँ । मुझे अपनी स्त्री में बड़ा मोह था, यहाँ तक कि वह कभी घर से बाहर निकलती तो मैं उसके ऊपर छाता लगाकर चलता था । यद्यपि वह मुझे बहुत समझाया करती थी कि मेरे से इतना अधिक मोह न करो, नहीं तो मेरे मर जाने पर तुम्हें बड़ा कष्ट होगा, पर मेरा मोह उससे न मिटा, वह मर गई तो उसके पीछे अब मैं पागल सा बना फिर रहा हूँ । इसलिए मैं उसकी फोटो से बातें कर रहा था । तो जब यह जीव दूसरे को अपना लेता है―यह मैं हूँ, यह मेरा है तो उसके अनुरूप उसकी वृत्ति बन जाती है । यह ही बात इस आत्मा में हो रही कि आत्मा तो है ज्ञानमात्र केवल ज्ञाताद्रष्टा, जाननहार, पर इसमें कर्मरस की झाँकी आयी । जो पहले कर्म बाँधे थे उनका अनुभाग उदय में आया और वह हम पर मलिनता आयी और उस मलिनता को हमने मान लिया कि यह मैं हूँ तो जैसे कोई मानता है कि मैं व्यापारी हूं तो वह व्यापारी के अनुरूप अपनी प्रवृत्ति करता कि नहीं? करता है । कोई मान ले कि मैं किसी संस्था का मंत्री हूँ तो वह उस विधि से प्रवृत्ति करता है । तो ऐसे ही जब अज्ञान से यह मान लेता कि मैं क्रोधरूप हूँ तो फिर यह क्रोधरूप ही तो प्रवृत्ति करेगा ।
453―अज्ञान के विनाश से बंधविकल्प परंपरा विनाश की संभावना―अज्ञानता के कारण जो यह जीव कर्ता कर्म के भेष में अनादिकाल से चला आ रहा है मैं यह एक कर्ता हूँ कह भी देता कि मैं जीव हूँ और क्रोधादिक करना मेरा काम है । इस प्रकार अनादिकाल से कर्ता कर्म की प्रवृत्ति चली आ रही, क्यों चली आ रही है कि अज्ञान भरी कर्तृ कर्मत्व की बुद्धि रखने से कर्मबंध हुआ और उसका विपाक आने पर उदय होने पर फिर जीवन विकल्प किया और विकल्प के निमित्त से फिर कर्म का बंध हुआ, विकल्प हुआ, तो फिर नवीन बंध हुआ, ऐसा अनादिकाल से चला आ रहा है । जैसे कि बीज और वृक्ष इनकी संतान अनादिकाल से है जैसे बताओ आम का पेड़ बीज के बिना होता क्या? और बीज आम के पेड़ के बिना होता क्या? फिर वह पेड़ बीज के बिना होता क्या? यों संतति बीज और वृक्ष की चलाते जाओ तो इसका कभी अंत आयेगा क्या? क्या कभी यह उत्तर मिल सकेगा कि सबसे पहले क्या पैदा हुआ―बीज या वृक्ष ? कोई सही उत्तर न दे पायेगा । यह एक अनादि संतति चली आ रही है यह काल भी अनादि है और अनादि से ही यह सब व्यवस्था हो रही है तो ऐसी ही जीव की बात लगा लीजिए । बीज मान लो कर्म और वृक्ष मान लो विकार तो यों लगाओं कि बंध था तो विकार बना, विकार था तो बंध हुआ, या विकार को बीज मानो । कर्मबंध को वृक्ष मानों । कुछ भी मानो संतान बताये जा रहे हैं । तो ऐसा जो यह जीव अनादिकाल से विकार मोह करना चला आया है उसका कारण अज्ञान है । उस अज्ञान को नष्ट करने के लिए ज्ञान प्रकट होता है । ज्ञान स्वयं धीर होता है गंभीर होता है, उदार होता है, क्योंकि वहाँ रागद्वेष नहीं । केवल जानन देखनहार स्थिति होती है, तो अपने में वह धारणा बनायें कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञान को ही करता हूँ, ज्ञान को ही भोगता हूँ, ज्ञान ही मेरा सर्वस्व है । इस ज्ञान ज्ञान को ही चेतते रहें तो वह प्रकाश मिलता है कि जिससे संसार के सारे संकट नियम से छूट जाते हैं ।
454―विचित्र दशाओं में भेष की प्रसिद्धि―भेष धरना किसे कहते हैं? भिन्न-भिन्न शकलों को रखना, भिन्न-भिन्न स्थितियाँ बनाना इसका नाम भेष है । वैसे प्रत्येक गृहस्थ भी दिन भर में दो चार भेष बना लेता है । कभी पेंट का भेष बनाया, कभी धोती पहिनने का बनाया, पर देर-देर में बनता है और मामूली परिवर्तन में बनता है । इसे कोई भेष धरना नहीं कहा और उस नाटक में 5-5 मिनट बाद नये-नये भेष बनाते हैं और विचित्रता बनती है, एकदम परिवर्तन बनता है तो लोग उस ही को भेष कहते हैं, अब यह भेष बनाकर यह आया । अच्छा आत्मा में भी देखो दो मिनट पहले कुछ भाव, दो मिनट बाद ही कुछ भाव, कोई सा भी परिणाम । अभी कोई प्राणी मनुष्य की हालत में है, फिर बन गया कीड़े की हालत में, जरा-जरा सी देर में विचित्र विचित्र परवर्तन होते हैं, क्या इसका भेष धारक न कहेंगे? यह जीव भेष धारण करता चला आ रहा है, अच्छा और इस भेष में अज्ञान भरा भेष देखिये मैं करने वाला हूं ये क्रोधादिक भाव मेरे कर्म हैं या पुद्गल में उत्पन्न हुए क्रोधादिक भाव ये मेरे कार्य हैं । या बाहरी मकान आदिक ये मेरे कार्य हैं । मैं करने वाला हूँ मैंने किया सो लो अब यह कर्तृकर्म भेष में उपस्थित हुआ ।
454―ज्ञान ज्योति का अभ्युदय होने पर कर्तृकर्मभेष का हटाव―यहाँ मूल में देखो यह भेष धरने वाला जीव पदार्थ मूल में कैसा है? चेतन ज्ञान दृष्टा, विशुद्ध प्रतिभास मात्र । जिससे किसी को विसम्वाद नहीं होता, जहाँ कोई हलचल नहीं, ऐसा यह विशुद्ध चेतन पदार्थ यह तो हूँ मैं और जो भेष बनाता है तो यह भेष है कर्मरस । यह जीव कर्मरस को अपना कर इस नाटक में, उपयोग भूमि में आकर नाना तरह का नाटक रचता है, रच रहा नाटक मगर जैसे ही भीतर से ज्ञान ज्योति आ धमकी इस उपयोग के स्टेज पर, यह विशुद्ध ज्ञान प्रकाश जैसे ही आया वैसे ही जीव के और अजीव के दोनों ही भेष गायब हो जाते हैं । ऐसा क्या प्रताप है इस ज्ञान ज्योति में कि इन जीवों का भेष धरना खतम हो जाता है । वह ज्ञान ज्योति कैसी है? इस प्रसंग में एक बात याद आ गई कि मनुष्य प्रभु से बहुत बड़ी भक्ति कर रहा था । स्तवन करते हुए एक बार बोल उठा कि हे प्रभो, देखो हमने आपको कैसा-कैसा नाटक दिखाया याने भगवान के ज्ञान में सब झलकता है ना? भगवान का ज्ञान सब कुछ जानता है तो मैंने अनादि से अब तक जो-जो भेष धरा नाटक किया, समय-समय की सब बातें प्रभु के ज्ञान में गुजरती हैं सो यहाँ कह रहे कि हे प्रभु देखो मैंने कैसा नाटक किया, कितने-कितने नाटक दिखाये आपको । जैसे कोई नाटक करने वाला पुरुष या खेल दिखाने वाला नट बड़े आराम से नाटक (खेल) दिखाता है ना? कितनी ही तरह की बातें दिखाता है, और खेल दिखाकर फिर इनाम माँगता है । इनाम चाहता है । सो हे भगवान हमने देखो आपको कितने खेल दिखाये, चारों गतियों का भ्रमण और ऐसे-ऐसे विचित्र नाटक दिखाये । अब आप हमारा नाटक देखकर खुश हुए कि नहीं? प्रभु आप यह बता दें । अगर आप हम पर प्रसन्न हो तो जो हम चाहते हैं वह हम को इनाम दीजिए । शायद कोई कह उठे कि हाँ-हाँ तुम्हारा नाटक अच्छा हुआ, कहाँ निगोद, कहाँ पृथ्वी, अग्नि, झट-झट परिवर्तन, कीड़ा मकोड़ा मनुष्य देव विचित्र-विचित्र नाटक दिखाया तुमने भगवान को । सो अगर भगवान आप हम पर प्रसन्न हों तो मुझे मुंह माँगा इनाम दीजिए । अच्छा माँगो क्या चाहते हो?....भगवान मैं मोक्ष चाहता हूँ अगर मेरे खेल देखकर आप प्रसन्न हों तो बस हमें मन चाहा इनाम दीजिए, मुक्ति दे दो । अच्छा नहीं देते आप मुक्ति, नाराज हैं आप, हम से प्रसन्न नहीं हैं, हमने इतने नाटक (खेल) आपको दिखाये पर आप उन्हें देखकर हम पर प्रसन्न नहीं हुए सो आप मुझे मुँह मांगा इनाम नहीं दे रहे हैं तो फिर आप मेरा नाटक (खेल) मिटा दीजिए याने आप मेरा संसार परिभ्रमण मिटा दीजिए । देखो यह प्रभु का स्तवन है; इस स्तवन में प्रभु से दोनों तरह से मुक्ति चाही जा रही है । अगर सीधे-सीधे आप हम पर प्रसन्न हो तो मैं माँगता हूँ कि मैं मुक्त हो जाऊँ सो इसकी पूर्ति करें और अगर आप हम पर खुश नहीं होते तो हमारा यह सब नाटक (खेल) खतम कर दीजिये, क्यों? जब आप हमारे खेल से प्रसन्न नहीं, तो खेल मिटा दो । हाँ प्रकरण यह चल रहा है कि इस जीव ने कितने तरह के नाटक अब तक किये और इस समय भीतर से ही अपना ही ज्ञान प्रकाश जब इस उपयोग में आता है तब यह ऊधम मचाने वाला, यह भेष, यह नाटक ये नाना विडंबनायें सब भाग जाते हैं ।
456―कर्तृकर्मत्वभेषविध्वंसक ज्ञानज्योति का प्रताप―हाँ तो ऐसा क्या प्रताप है इस ज्ञान में कि यह भेष खतम हो जाता है । यह ज्ञान ज्योति सारे विश्व को साक्षात् करता हुआ, साक्षी होता हुआ समस्त द्रव्यों को भिन्न-भिन्न रूप से देखने वाला बन रहा है । उसका यह प्रताप है कि यह नाटक सब उसका दूर हो जाता है । कैसे? कितना कठिन भेद विज्ञान अथवा बड़ा सुगम भेद विज्ञान । अपने में स्वभाव को और विभाव को भिन्न-भिन्न समझने की बात । स्वभाव क्या? शुद्ध ज्ञान, जाननहार बनना । केवल जानन और विभाव क्या? विकल्प रागद्वेष इष्ट अनिष्ट बुद्धि ये सारे विकल्प । तो क्या करना? विकल्प में और ज्ञान के स्वरूप में भेद डालना । जैसे चावलों में कूड़ा करकट मिला है तो क्या करना कि उनमें पहले भेद समझना कि यह तो चावल है, यह हितकारी है, यह मेरे काम की चीज है, यह कूड़ा है, यह उपाधि है, यह बुरी है, इसे हटाना है, ऐसा ही अपने आप में मिश्रण चल रहा है स्वरूप का और विकार का जिससे कि हम अनादि से अब तक नाटक धरते आये, अब यहाँ भेद करना है कि यह विकार यह कूड़ा करकट यह अहितकारी हैं और यह मेरा स्वरूप ज्ञान यह मेरा हितकारी है । कैसे करे भेद विज्ञान, भेद विज्ञान तो कर सकते हैं ।
457―स्वभाव और विभाव में अंतरज्ञान करने के लिये हरे उजाला का भेदकरण का दृष्टांत―देखो एक बल्ब जल रहा हे उजेला हो रहा है और उस पर लगा दिया हरा कागज तो उजेला बन गया हरा । अच्छा देखो यहाँ दो बातें समझ आ रहीं कि नहीं? क्या? हरा होना और बात है, उजेला होना और बात है । जरा उपयोग लगाकर सुनो एकाग्र चित्त होकर तो ये सब बातें ध्यान में आयेगी । पहले दृष्टांत में देखो उजेला हो रहा और उस पर लगी हरी उपाधि या बल्ब पर ही रंग पोत दिया तो हरा उजेला हो गया यहाँ देखो दो स्वरूप है कि नहीं? हरा होना अलग बात है, उजेला होना अलग बात है । अब कोई अगर यह कहे कि यदि ये दोनों बातें अलग-अलग हैं, हरा होना अलग स्वरूप है, तो आप कृपा करके हरा-हरा तो ला दीजिए, हमारे हाथ पर रख दीजिए और खाली प्रकाश वहाँ रहने दीजिए, ऐसा करना तो बड़ा मुश्किल हो रहा । एक बल्ब पर हरा रंग पुता है और वह उजेला सारा हरा हो रहा है तो समझमें तो आ रहा है कि हरा होना और कुछ बात है । और उजाला होना कुछ और बात है । किंतु ऐसा करना बड़ा कठिन हो रहा कि हरा-हरा उठाकर बाहर धर दो और उजेला कमरे में रहने दो, ऐसा होना तो बड़ा कठिन लग रहा, किया नहीं जा सक रहा । हाँ इस समय तो नहीं किया जा सक रहा मगर समझ में आ रहा कि नहीं कि हरा होना और बात है, उजेला होना और बात है । समझ में आ रहा क्योंकि ज्ञान में यह बसा है कि हरा हुए बिना भी उजेला रहता है, ऐसा ध्यान में है इसलिए झट समझ में आ रहा कि हरा होना और बात है, उजेला होना और बात है ।
458―हरा उजाला में भेदकरण दृष्टांत की भांति स्वभाव विभाव में भेदकरण की प्रक्रिया―जरा उक्त दृष्टांत की भाँति अपने आत्मा में देखो ज्ञान तो उजेला है, जानना प्रतिभास हुआ । ज्ञान तो एक प्रकाश है, और पहले बाँधें हुए कर्मों का अनुभाग उदय में आया । वह अनुभाग, वह अंधकार वह कर्मों की विडंबना इस उपयोग में झलकी, प्रतिबिंब हुआ, प्रतिफलित हो गया, छा गया कर्मरस हमारे उपयोग पर । तो अब यह जीव जो काम सीधा था केवल मात्र जानन सो उसके साथ अब विकल्प लगने लगे । अच्छा बुरा, इज्जत अपयश ऐसे अब विकल्प चलने लगे ज्ञान में तो बात क्या बन रही? यहाँ, जैसे हरा उजेला वैसे ही यह है विकल्प वाला ज्ञान । तो जैसे हरे उजेले में हरा होना और बात, उजेला होना और बात । ऐसे ही यहाँ पर विकल्प चलना और बात, ज्ञान रहना और बात । ऐसा जो अंतर में भेद पहिचान लेता है और भेद पहिचान कर फिर उस विकल्प से हटकर केवल एक ज्ञान की शुद्ध वृत्ति में रहता है उसका यह भेष सब खतम हो जाता है । हाँ हरा और उजेला, जैसे इन दो बातों को हम जानते हैं अलग-अलग ज्ञान में, इसी तरह जरा ज्ञान के कामों को और रागद्वेष को परखिये तो सही कि ये न्यारी-न्यारी बातें हैं या नहीं । रागद्वेष कषाय । कषाय और बात है और जानना और बात है । लोग कहते ही है, अरे आप तो कषाय में आ गए, आप तो जैसे थे वही रहो । कषाय में क्यों आते । तो इसी से ही जाहिर हो रहा ना कि कषाय करना और बात है और जानना और बात है, क्योंकि जानने में तो जानना-जानना ही रहता है । और कषाय में गुस्सा, घमंड, विकल्प, तड़फन, व्यग्रता ये सारी बातें यह तो स्वरूप हैं कषाय का और मात्र जानना यह है स्वरूप ज्ञान का । यह अपने अंदर की ही बात कही जा रही है । जैसे हरा उजेला―यहाँ दो बातें हैं―उजेला प्रकाश का स्वरूप हैं और हरा मलिनता है । देखो भी जरा हरा होने से उजेले में कुछ कमी भी आ गयी, ऐसे ही यहाँ ज्ञान का जितना व जैसा प्रकाश प्रभु में होता है उस ही ढंग का मुझमें हो सकता वह जानन प्रकाश यह तो है ज्ञान और जो इष्ट अनिष्ट बुद्धि हुई, विकल्प जाल चले, व्यग्रता हुई चिंता हुई, आशा हुई, इच्छा की, ये सारी गड़बड़ियां ये हैं कर्मरस । विकार तो विकार में है और ज्ञान ज्ञान में हैं । जैसा ही स्वरूप का प्रकाश मिला, अंतर का परिचय हुआ कि फिर यह जीव और अजीव यह कर्ता कर्म के भेष को छोड़कर अलग खड़ा हो जाता है ।
459―स्वभाव परिचय से च्युत प्राणियों को संकटों का उपहार―हाँ जरा देखिये―अपने आपमें, मैं आत्मवस्तु हूँ, स्वभाव मात्र हूँ, यह प्रभु के उपदेश में कितना अपूर्व अमृत मिल रहा है । इसका कोई पान करें तो उससे संकट सब दूर हो जाते हैं । और जो स्वभाव परिचय से च्युत हैं उनके संकट सब अदूर हो जाते हैं, क्योंकि संकट क्या? कुछ भी संकट, भ्रम से संकट मान लिया । जिस लड़के को आप अपना मानते हैं और हम समझायें कि भाई तुम अपना न मानो, किसी दूसरे के लड़के को अपना मान लो तो कहाँ माना जाता? यह तो मेरा ही है, यह दूसरे का कैसे हो सकता है? दूसरा कैसे हो सकता है । अरे अपना जो न था, न है, न होगा, जिससे कुछ लाभ भी नहीं, सबकी परिणति अपनी-अपनी जुदी-जुदी है । वहाँ मोह रखना, अज्ञान रखना, इसको कितना बड़ा अंधकार कहा जाये? मगर कोई पक्षी होते हैं ऐसे कि उनको अंधेरे में ही उजेला नजर आता है । तो ऐसे ही मोहियों को मोह में ही उजेला नजर आता है । किसी से पूछो―क्यों भाई साहब, आपका मिजाज कैसा है? हाल चाल कैसा है? तो कहते कि बहुत बढ़िया खूब हरे भरे हो रहे । हरे भरे के मायने जैसे पेड़ हरा भरा होता, फूल निकल आये, ऐसे ही इसमें से भी फूल निकल आये, फल निकल आये, मायने यह सब लड़का लड़की का झमेला आ गया, इसको लोग हरा भरा मानते, पर उसे यह ध्यान में नहीं है कि जितना हम आत्मा के स्वरूप के ध्यान से चिगकर किसी भी बाह्य पदार्थ में रम रहे हैं, इसका फल बहुत बुरा भोगना पड़ेगा, कर्मबंध होगा, दुर्गति होगी ।
460―मोह की उलझन से प्राप्त सुयोग का निष्फलीकरण―आज तो कुछ पूर्व तपश्चरण का प्रताप समझिये कि जो अच्छे संग में उत्पन्न हुए हैं, प्रभु के दर्शन भी किया करते हैं, उत्तम बात हैं, मगर ऐसे समाज को पाकर जिनका चित्त मोह में उलझे तो उनके अपने आप पर कुछ करूणा जरूर करना चाहिए कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा । कैसे हम पार लेंगे । एक बार चार ठग लोग किसी गांव में पहुंचे । वे कुछ खास जानकार न थे, लेकिन जहाँ चाहे जाप दें, जाप करें, और और प्रलोभन दें और कहें कि आप पर इतने ग्रह चढ़े हुए हैं, और इस जाप करने के बदले में वे कुछ धन लिया करते थे । सो उस गाँव में भी एक सेठ ने अपने पर ग्रहों की शुद्धि के लिए जाप कराया । तो वे चारों व्यक्ति जाप करने बैठ गए―एक व्यक्ति बोलता ॐ विष्णुं-विष्णुं स्वाहा, दूसरा बोलता―तुम जपा सो हम जपा स्वाहा, तो तीसरा बोला―ऐसा कब तक चलेगा स्वाहा, तो चौथा बोला―जब तक चले तब तक चले तब सही स्वाहा । सो ऐसा जाप चल रहा था । मोह में अटपट काम यहाँ भी तो हो रहे, कैसे जाप चल रहे और दूसरे को भी देखकर जैसा तुम करते सो हम करते स्वाहा । और कोई अगर पूछ बैठा कोई वक्ता, त्यागी, संन्यासी कि ऐसा कब तक चलेगा? तो उसका जवाब है कि जब तक चले तब तक सही स्वाहा ऐसे पूरा थोड़े ही पड़ता है ।
460―भेद विज्ञान व स्वरूपदर्शन से प्राप्त सुयोग का सदुपयोग करके जीवन सफल करने का अनुरोध―भैया ! प्रखर भेद विज्ञान करिये अंतर में, मैं जो हूँ सो ही हूँ, इस भेद के कारण इतना कठोर बनना पड़ेगा कि जरा भी गुंजाइश नहीं कि विकार रंच मात्र भी मेरे में आये, मेरा बने । मैं लेश भी विकार नहीं चाहता । मुझमें विकार है ही नहीं । मैं तो अविकार स्वरूप हूँ । स्वभाव को देख रहा ज्ञानी, जैसे दर्पण में प्रतिबिंब आया तो सब कोई जानते हैं कि यह प्रतिबिंब दर्पण से अलग है । अगर उसे कोई मिटाये तो मिट जायेगा । हाँं मिटेगा अपनी विधि से, मगर उस समय में दर्पण में प्रतिबिंब होकर भी सब लोग यह जानते हैं कि दर्पण का स्वरूप तो न्यारा है और प्रतिबिंब का स्वरूप तो न्यारा है, ऐसे ही अपने में पहचानना पड़ेगा कि मेरा ज्ञान स्वरूप तो न्यारा है वही प्रभु है, वही रक्षक है, परमपिता है और कर्मरस जो आ धमके हैं विकार राग द्वेष सुख दुःख ये सब मेरे स्वरूप से न्यारे हैं, ऐसा ज्ञान जगे तो समझिये कि अब हमें रईसी मिली, अमीरी मिली, कृतार्थ हुए, और लोकोत्तम तत्त्व पाया । यदि सब सुविधाएं मिली है, चिंतायें अधिक नहीं करनी पड़ती, जैसे कि लोग कहते हैं कि बस हम तो अब बहुत अच्छे चल रहे हैं, रोजगार भी ठीक, घर भी ठीक, कुटुंब ठीक, मित्र भी ठीक, खूब मौज बरस रही । अरे तो इस मौज का सदुपयोग करो । अगर इसका दुरुपयोग किया तो आगे कुछ गति अच्छी गति न मिलेगी । अगर आज सुविधायें मिली, मौज मिली तो उसका सदुपयोग कैसे करना? सत्संग में रहना, स्वाध्याय में चित्त देना, रात दिन में कम से कम एक बार सामायिक करना और वहाँ ऐसी बात भावना, जाप करके भीतर में मनन करना, मैं वास्तव में क्या हूँ और मुझ पर आ धमका क्या है, इसका निर्णय करें ।
461―आत्मविश्राम द्वारा मोह की थकान दूर करने का संदेश―बाहर सब बातों को भूलकर विकल्पों से विराम पाकर कुछ देर सच्चा आराम लें । कोई पुरुष शरीर से बहुत मेहनत करने के बाद अपने शरीर को ढीला ढाला छोड़कर, पड़कर, चित्त लेटकर ढीले अंग से आराम लेता है और उसे कुछ मौज भी मिलता है तो यह तो है शरीर की बात, पर भीतर में तो देखो कि इस जीव ने नाना विकल्प करके, राग, द्वेष, सुख, दुःख, चिंता, शल्य, हर्ष, विषाद, ईर्ष्या, प्रमोद करके, सारे विकल्पों को करके थका डाला, मायने इस जीव ने अपने को थका डाला, और यह इसकी थकावट कुछ थोड़े समय की नहीं अनादिकाल से यह थका हुआ रहता है और मोह की शराब ऐसी पी रखा है कि थके होने पर भी थकने का ही काम करता है । जैसे यहाँ कुछ ट्रक के ड्राइवर या अन्य लोग परिश्रम करने वाले कहते हैं कि शराब पी लें तो और दुगना काम कर लेंगे । तो काम करने में थकते नहीं क्या? थकते हैं पर यही धुन बनी है कि थके में थके का ही काम करते जा रहे, ऐसे ही इस जीव ने मोह की मदिरा पी ली तो निरंतर यह थक तो रहा, पर थक-थककर भी इस मोह में, बेहोशी में थकने का ही काम करते हैं । थका बहुत । अब जरा भीतरी थकान को मिटाने की इच्छा है कि नहीं ? चौबीसों घंटे जो विकल्प चलते हैं, अनेक बातें चलती हैं उनसे जो आत्मा थक गया, झकझोरा गया, इसको आराम देने की भावना अगर है तो आराम दीजिए । कैसे आराम मिलेगा? उन सब विकल्पों को, व्यायामों को छोड़कर, अपने को छोड़कर अपने को ढीलाढाला रखकर मायने सरल बनाकर कुछ क्षण कुछ चिंतवन में न आयें, और बिना विचार के कोई अनुपम स्थिति आये उस क्षण में परमात्म तत्त्व के दर्शन होते हैं, सारे संकट दूर होते हैं । जहाँ अलौकिक सहज आनंद का लाभ होता है वह है सच्चा विश्राम । इस विश्राम से भव-भव के बांधे हुए कर्म कट जाते हैं, इस प्रसंग में पूर्ण समता भाव जाग्रत हो जाता है । स्वरूप में एकरस बन जाता है, ऐसी है यह ज्ञान ज्योति जो इस उपयोग भूमि पर, स्टेज पर आयी है ।
462―ज्ञान ज्योति से हुल्लड़वाजियों का विनाश―जिसके प्रताप से हुल्लड़वाजियाँ खतम हो जाती हैं वे सब हुल्लड़वाज क्या थी ? यह ख्याल बनाया, इसे भला माना उसे बुरा माना, किसी को देखकर दुःखी हो गए, ये जो नाना प्रकार की गड़बड़ियाँ हैं ये सब तुरंत समाप्त होती हैं । जैसे मास्टर थोड़ी देर की कक्षा से बाहर चला जाये, तो लड़के लोग खूब हुल्लड़बाजी मचाते हैं और जब मास्टर आ जाये कक्षा में तो लड़के लोग शांत होकर बैठ जाते, जैसे मानो सब बड़े भक्त हो और प्रभु के ध्यान में लीन हो गए हो । तो जैसे मास्टर के आते ही बालकों की सारी हुल्लड़बाजी खतम हो गई ऐसे ही इस विशुद्ध ज्ञानप्रकाश में आते ही इस मन की यह गड़बड़ी, ये सब ऊधम दूर हो जाते हैं, अपने पर ऐसी दया करने के लिए कम से कम दो तीन बातों का ध्यान रखें, एक तो स्वाध्याय अवश्य करें । जो ग्रंथ समझमें आयें, जिनसे तुरंत लाभ मिले उनका स्वाध्याय नियम से करना चाहिए । सत्संग में भी बैठना, संबंध रखना और तीसरी बात 24 घंटे में एक बार जाप सामायिक करना, उसमें चलाना कि मैं क्या हूँ, मुझे क्या करना, क्या इसी रफ्तार से जीवन गुजारना है? वहाँ विचार करना और कुछ देर सच्चा विश्राम लीजिए स्थिर आसन करके सबको भूलकर, चित्त को ऐसा स्वच्छ बना लें कि यहाँ कुछ विचार ही न चले । यह बात चुटकी बजे इतनी देर भी होना कठिन है, पर इतनी देर भी अगर चित्त ऐसा बन जाये कि चित्त में कोई पर चीज न आये तो अपने आप उमड़कर भीतर बसा हुआ भगवान आपको दर्शन देगा । यही है वह ज्ञान ज्योति जो कि इस जीवन के नाना नाटकों को समाप्त कर देती है ।