वर्णीजी-प्रवचन:समयसार कलश - कलश 63
From जैनकोष
जीव: करोति यदि पुद्गलकर्म नैव, कस्तर्हि तत्कुरुत इत्याभेशंकयैव ।
एवाह तीव्ररयमोहनिबर्हणाय, संकीर्त्यते श्रृणुत पुद्गलकर्म कर्तृ ।।63।।
603―पुद्गलकर्म के कर्तृत्व के संबंध की एक आशंका व उसका समाधान―यहाँ एक आशंका रखी जा रही है कि यदि जीव, पुद्गलकर्म को नहीं करता है तब फिर पुद᳭गलकर्म का कर्ता कौन है? ऐसी आशंका जिनके हो उनके तीव्र वेग वाले मोह को दूर करने के लिए उत्तर दिया जायेगा कि पुद्गल कर्म को पुद्गलकर्म ही करता है । इस शंका का भाव समझने के लिए कुछ और बातें भी ज्ञातव्य हैं । शंकाकार कह रहा कि पुद्गलकर्म को जीव नहीं करता तब फिर कौन करता? उत्तर―पुद्गलकर्म पुद्गलकर्म को करता । अब यह बात यह जानें कि जीव पुद्गल कर्म को करता इतनी ही बात जब नहीं है, पुद᳭गलकर्म को करने की बात जब नहीं है तब फिर यह सोचना कि यह जीव दुकान करता, मकान बनाता, पालन पोषण का काम करता, यह सब तो सिद्धांत से विरुद्ध बात है । हाँ, यह बात अवश्य है कि जो टाला नहीं जा सकता । विधि विधान में है कि किसी पदार्थ में अगर विकृत परिणमन हो तो उस परिणमन में कोई निमित्त अवश्य होता है, निमित्त यदि कुछ न हो तो कभी भी विकार परिणमन नहीं हो सकता । इतना होने पर भी उस विकार परिणमन को निमित्त ने नहीं परिणमाया, वह निमित्त तो उस स्थिति में उपस्थित मात्र है, यह तो उपादान की कला है कि उपादान याने परिणमने वाला पदार्थ किस प्रकार के निमित्त को पाकर किस रूप परिणम जाये । सब संसार की ऐसी ही व्यवस्था चल रही है निमित्त नैमित्तिक योग और वस्तुस्वातंत्र्य दोनों ये एक साथ रहा करते हैं, तो यहाँ जरा वस्तु स्वरूप पर दृष्टि दीजिए, प्रत्येक पदार्थ केवल अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, कोई भी पदार्थ किसी दूसरे के द्रव्य से नहीं अर्थात् किसी का स्वरूप लेकर नहीं, दूसरे के प्रदेश से नहीं, दूसरे के परिणमन से परिणमता नहीं, दूसरे के गुणों से गुणवान होता नहीं, अपनी-अपनी ही गुण पर्यायों से युक्त प्रत्येक द्रव्य है, तब यह कहना कि इसने घड़ा बनाया, इसने मकान बनाया यह बात कितनी बेढंगी है, यहाँ तो निमित्त नैमित्तिक योग तक भी नहीं है, जीव निमित्त हो और मकान नैमित्तिक हो, ऐसा भी नहीं है । हाँ कर्मों में अवश्य है निमित्तनैमित्तिक योग । कर्म परिणति निमित्त है, जीव की परिणति नैमित्तिक है, जीव भाव निमित्त हुआ और कर्म परिणति नैमित्तिक है । यह तो निमित्तनैमित्तिक योग है, तिस पर भी जीव पुद᳭गल कर्म का परिणमन करने वाला नहीं है ।
604―उपयोग के विषयभूत पदार्थों का जीव विभाव के साथ निमित्तनैमित्तिक योग होने की भी असंभवता―अन्य जगह तो जिस प्रसंग में हम आप रह रहे हैं, घर हो, कुछ हो, जहाँ गृहस्थजन निवास करते हैं, वहाँ तो परवस्तु के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध भी नहीं है, कर्ता कर्म की बात तो अत्यंत दूर रहा । फिर आप पूछेंगे कि अगर नौकर ने कुछ उल्टी चेष्टा की और मालिक को गुस्सा आया तो क्या नौकर निमित्त नहीं है गुस्सा का? हाँ, नौकर निमित्त नहीं, वह तो आश्रयभूत कारण है, जिसे कहते हैं उपचरित कारण । निमित्त कारण उपचरित नहीं होता, वह तो निमित्त कारण ही है । उपचरित कारण वह हुआ करता है कि जो जीव के परिणमन में निमित्त तो नहीं है, मगर उनका ख्याल करके गुस्सा आदि आता है । तो जिस पर दृष्टि होने से गुस्सा, मान वगैरह आया वह पदार्थ गुस्सा आदि का उपचरित कारण है, आश्रयभूत कारण है, आरोपित कारण है ।
605―जीव के रागादिभाव होने में कर्मविपाक की निमित्तकारणता―रागादिभाव होने में पुद्गल कर्म का उदय यह उपचरित कारण नहीं, यह आरोपित नहीं, यह आश्रयभूत नहीं । किंतु जैसे यहाँ रोटी बनने के लिए आग उपचरित कारण नहीं, आग का निमित्त पाकर रोटी सिकी, ऐसा यहाँ निमित्तनैमित्तिक भाव है । वैसे ही पुद्गल कर्म के उदय का सान्निध्य पाकर जीव के रागद्वेष हुए यों कर्मविपाक व जीवविभाव में निमित्तनैमित्तिक भाव है । तो इस पुद्गल कर्म ने जीव में विकल्प परिणमन नहीं किया । जीव ने विकल्प परिणमन अपने ही विकार के विपरिणमन से किया तो भी कर्मविपाकोदय और जीवविभावोद्गम इनमें निमित्त नैमित्तिक भाव है । निमित्त नैमित्तिक योग होने पर भी वस्तु सब स्वतंत्र-स्वतंत्र अपने में परिणमा करते हैं ।
606―जीव का अपने ही भावों में व्यापकपना संभव होने से जीव का अपने भावों में ही कर्तृत्व―हाँ, तो देखो―जीव किसी बाह्य पदार्थ को नहीं करता, कर्म को भी नहीं करता, किंतु वह तो अपने भावों को करता है । जो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि भी है, वह भी परपदार्थों को करने का विकल्प किया करता है, इतने पर भी वह परपदार्थ का करने वाला नहीं, किंतु परपदार्थों का आश्रय बनाकर, कर्मोदय का निमित्त पाकर अपने ही उपयोग का विकल्प रूप से परिणमन किया करता है । अज्ञानी भी परभावों का कर्ता नहीं होता और वहाँ मोहभाव बना सो क्या बना? अपने आत्मा में एकत्व, अभिन्नता, एकमेकपना उस
विभाव के साथ माना । जैसे इस शरीर को अज्ञानी जीव मानते हैं कि मैं हूँ, ऐसा एकत्व मानने से हुआ क्या? कि वहाँ पुद्गल कर्म के विपाक का उदय चल रहा ना? उन दशाओं में यह ज्ञानी गड़बड़ा गया और यह अपने ज्ञानघन आत्मा के सहज स्वरूप से च्युत हो गया । अब कर तो रहा ज्ञान का ही स्वाद, प्रत्येक जीव स्वाद ज्ञान का ही किया करता है, अज्ञानी हो तो भी, मगर अज्ञानी ज्ञान के स्वाद को लेता हुआ भी भ्रम से मानता है दूसरे का स्वाद । तब वहाँ स्वाद में भेद डाल देता है कि यह शुभ है, यह अशुभ है । तो ऐसे शुभ अशुभ ज्ञानरूप भाव को यह जीव करता है । यह जीव परभावों का तो कहीं भी कर्ता नहीं । अब जिस समय जीव ने उपयोग में अच्छा विचार किया, बुरा विचार किया उस समय जीव व्यापक तो उन विचारों में हो रहा है, कर्म या अन्य चीज की परिणति में जीव व्यापक नहीं बनता । क्योंकि प्रत्येक सत् स्वतंत्र द्रव्य है । तो अपनी ही पर्यायों में व्यापक है यह जीव तो अपने ही भावों का यह कर्ता कहा जाता है और उस समय वे भाव जीव के कर्म कहे जाते हैं । तो अज्ञानी भी है तो भी वह परभावों का कर्ता नहीं । यह जीव किसी भी पर भाव का कभी भी कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि जिसमें जो गुण, जो द्रव्य है, वह दूसरे में नहीं बदला जा सकता । मेरे आत्मा में जो गुण है वह मेरे में ही है, मेरे से बाहर नहीं आ सकता, तो उन गुणों का जो परिणमन है वह मेरे में ही रह रहा है मेरे से बाहर नहीं हो सकता । तब फिर मैं किसी पर को करने वाला कैसे हो गया? तो इस तरह यह जीव पुद्गलकर्म का भी कर्ता नहीं । वैसे वस्तुत: देखो लोग कहते हैं कुम्हार ने घड़ा बनाया जैसा कि व्यवहार है तो यह बतलावो कि मिट्टी का जो द्रव्य गुण है वही तो घड़ा रूप परिणमा कि कुम्हार का शरीर घड़ा रूप परिणम गया? कुम्हार उस घड़े में व्यापक नहीं है, वह तो अलग बैठा है, उससे कुछ संबंध भी नहीं है, तो उस घड़े में व्यापक तो मिट्टी है, तो निश्चयत: वस्तुत्व की ओर से तो उस घड़े का करने वाला अर्थात् उपादान दृष्टि से कर्ता मिट्टी है, इसी तरह आत्मा ने उपयोग का विकल्प किया, उस विकल्प का निमित्त पाकर वे पुद्गल कार्मण वर्गणायें कर्मरूप परिणम गई, मगर कर्मरूप परिणमने वाले कर्मवर्गणाओं में यह जीव व्यापक नहीं है, यह द्रव्य ही जब पुद्गल कर्म में व्यापक नहीं है तो यह जीव पुद्गल कर्म का कर्ता कैसे हो सकता है?
607―जीव में पुद्गल कर्मकर्तृत्व के वचन व्यवहार का कारण―कोई पदार्थ अन्य पदार्थ का कर्ता नहीं यह सिद्धांत की दृढ़तम बात है । और, फिर जो अन्य बात कही जाती है वह सब उपचार अथवा व्यवहार की बात है, व्यवहार में तथ्य है कोई, उस तथ्य को समझाने के लिए कहा जाता है । जैसे कहते हैं ना, जीव ने कर्म किया और यह बात यों सही है कि जीव के रागद्वेष परिणाम का निमित्त पाकर कार्मण वर्गणाओं में कर्मरूप परिणमन हुआ । जीव के इन रागद्वेष भावों के हुए बिना क्या कार्मण वर्गणाओं में कर्मत्व परिणमन हो सकता? कभी नहीं हो सकता, ऐसा निमित्तनैमित्तिक योग है, इस तथ्य के कारण व्यवहार भाषा यों बन गई कि जीव ने पुद्गलकर्म को किया, क्योंकि कार्मण वर्गणा में कर्मत्व परिणमन जीव के रागद्वेष मोह का निमित्त पाकर हुए, तो तथ्य तो है वहाँ, मगर इस तथ्य को कोई इस रूप में निरख ले कि जीव ने अपने भाव को भी कर लिया और पुद्गल कर्म को भी कर लिया, तो यह कथन मिथ्या है । यों कोई द्रव्य दो द्रव्यों को नहीं कर सकता, प्रत्येक द्रव्य अपना ही परिणमन करता है, तब यह कहना कि आत्मा पुद्गल द्रव्य को उत्पन्न करता है, बाँधता है, ग्रहण करता है, प्रकृतिबंध करता, स्थिति बंध करता, अनुभाग बंध बनाता, प्रदेशबंध बनाता, यह एक उपचार से कथन है । वस्तुत: उपादान दृष्टि से यह जीव अपने भाव का करने वाला है, एक ऐसा सिद्धांत है, उसी सिद्धांत को सुनकर शंकाकार कह रहा है कि जीव यदि पुद्गल कर्म को नहीं करता है तो उसको करता कौन है? ऐसी आशंका रखने वाले शिष्य का तीव्र वेग वाला मोह दूर किया जायेगा, उत्तर दिया जायेगा ।
608―किसी पदार्थ को अन्य पदार्थ का कर्ता मानने की मान्यता को मोह का तीव्र वेग कहने का कारण―कर्तृत्ववासना को तीव्र मोह क्यों कहते? देखिये मैं किसी दूसरे पदार्थ को करता हूँ मानों सोचता हूँ, यों ही उपादान दृष्टि से मोही सोचता है । जीव के ये कुछ नहीं बनते, फिर भी अज्ञानी मोह मदिरा पान से आग्रह करता है और ये दूसरे पदार्थ भी सत् हैं और अपने परिणमन से परिणमते हैं यह ध्यान में नहीं है अज्ञानी के । अज्ञानी के ध्यान में तो यही है कि मैं ही इसे कर देता हूँ, जैसे जब कभी पिता पुत्र के प्रति यह सोचता है कि मैंने इसे पाला पोसा, पढ़ाया लिखाया, सब कुछ किया, तो उसका यह सोचना गलत है, अरे उस पिता ने अपने में अपना सब कुछ किया, उस पुत्र में उसने कुछ नहीं किया । इस तथ्य के विपरीत सोचने वाले को तीव्र मोह क्यों हैं, अज्ञान क्यों है कि उसे यह खबर नहीं कि इस जीव में भी ज्ञान है, इस जीव के भी ज्ञान का विकास है, और यह अपने ही परिणमन से विकास कर रहा, और इस जीव के साथ पुद्गल कर्म बंधा है, उसके उदय का निमित्त पाकर उसको नाना सुख सुविधाएं मिल रहीं हैं । तो सोचो कि क्या मैं करने वाला हूं? अरे मैं तो उस पुत्र का एक नौकर की तरह हूँ, उसका पुण्योदय काम कर रहा, पर अहंकार में यह ध्यान कहाँ रहता है, फिर यह तीव्र वेग वाला मोह कहलाया या नहीं कि मैं देह को यों बनाता हूँ, साफ करता हूँ और इस पुद्गल को देखकर पवित्रता का अभिमान करते, मैं इन सबसे अच्छा हूँ, साफ हूँ, स्वच्छ ढंग से रहता हूँ आदिक कितने ही विकल्प इस जीव को अज्ञान में हुआ करते हैं । क्या यह तीव्रवेगी मोह नहीं, ऐसे अज्ञान गड्ढे में गिरा हुआ प्राणी कैसे अपना उद्धार कर पायेगा? अज्ञान तजना होगा, ज्ञानभाव में आना होगा तब इस जीव को शांति का मार्ग मिल सकेगा । तो क्या निष्कर्ष समझें? एक दूसरे को कुछ कर देता है यह बात सोचना बिल्कुल गलत है । हाँ, परिणमन में उपाधि निमित्तमात्र अवश्य है, यह जीव अपने को ज्ञानमात्र के ढंग से नहीं तक रहा । किंतु, मैं यह करता हूं, इस अहंकार में मस्त होकर कह रहा कि मैंने किया, मैं कर रहा हूँ, मैं कर दूँगा सो यह बात कहना मिथ्या है ।
609―सर्वत्र जीव का निजभावकर्तृत्व―जीव अपने भावों को करता है अन्य किसी बात को नहीं करता, सर्वत्र निरख लो, यही बात है, मंदिर में हों तो, घर में हों तो, पुण्य कर रहे हों तो, पाप कर रहे हों तो, या आत्मा के वस्तु स्वभाव को निरखकर उस ही में तृप्त हो रहे हों तो, हर जगह जीव अपने भावों का ही करने वाला है, देखो एक बात ऐसी यह ध्यान में लायें कि इस लोक में मैं किसी का कोई काम नहीं करता । सांसारिक कार्य तो उस जीव के जैसा-जैसा कर्मोदय है उसके अनुसार निमित्तनैमित्तिक योगवश हो रहा है और जो मुक्ति का कार्य है, धर्म का कार्य है वह इस ज्ञानस्वभाव को निरखकर बन रहा है, इसके अतिरिक्त बाहर में कोई कर्तव्य नहीं है, ऐसा ज्ञान में आ तो जाये, फिर बहुत-सी विडंबना, झगड़े विद्वेष, ये सब समाप्त हो जाते हैं, परपदार्थ को करने का अभिमान होना यह बहुत बड़ा अंधकार है, बड़े-बड़े झगड़े बस इसी के बल पर खड़े होते हैं । देखो करता कोई कुछ नहीं है, पर निमित्त की जगह करने का प्रयोग होता है, अच्छा दुनिया को यह जचे कि यह काम मैंने किया, इतना बड़ा काम और कोई नहीं कर सकता था, इसको मैने किया, मैंने कर दिखाया, दुनिया जान जाये, ऐसा जो तीव्र वेग से मोह का वेग उठ रहा है, अहो यह कितना अज्ञान अंधेरा इस जीव पर पड़ा है, कितनी आशा बन रही है, दुनिया जान जाये, अरे दुनिया क्या, हम क्या, इसका ही सही परिचय नहीं है एक तो यह अंधकार और एक मैंने किया, ऐसा दुनिया समझ जाये कि यह मैं करने वाला हूँ, इस प्रकार के जो विकल्प चल रहे हैं ये विकल्प, ये ज्ञान प्रकाश से विपरीत चीज हैं, तब इस अंधेरे में आत्मा के सही स्वरूप की सुध ही नहीं होती, फिर संतोष कहाँ पायेंगे? अरे जहाँ ठंडा जल भरा हो वहाँ ही कोई नहाये तो संताप का दुःख मिटेगा अन्यत्र तो नहीं, आग में गिरने से कहीं संताप शांत तो न होगा ।
610―आनंदधाम आत्मतत्त्व के उपयोग से भ्रष्ट रहने में विडंबना―अहा ! आनंद का धाम तो है यह आत्मा का सहज ज्ञानस्वरूप, जिसका काम मात्र जानना है । जानने से अतिरिक्त जिसका कर्तव्य कुछ नहीं उस जानन में कहां कष्ट? जानन तो आत्मा के गुणों का विकल्प है, वहाँ कष्ट नहीं हुआ करता । जब जानन स्वरूप से च्युत हो गए, ज्ञानमात्र अपने आपकी आस्था से डिग गए और बाहरी पदार्थों का आश्रय कर, कर्मोदय के प्रतिबिंब में आपा मानकर यह जीव भ्रष्ट हो रहा, सो दुःखी हो रहा । बतावो इन विकल्पों में कुछ मिलेगा क्या? ये वर्तमान में कुछ अच्छे लग रहे हैं, यह मेरा घर है, यह मेरा पुत्र है, ये मेरे लोग हैं, ये मेरे खास हैं, बाकी गैर हैं, ये जो चित्त में विकल्प उछल रहे हैं ये उस विकल्प के समय प्रिय लग रहे हैं, क्योंकि अज्ञान में पड़े हैं, बेहोशी है, जैसे मदिरा पीने वाले पुरुष बेहोशी में सब कुछ अच्छा सा मान लेते, कीचड़ में गिर पड़ते, कुत्ते भी मुख पर मूत दें, अन्य लोग भी झकझोर देते तो ऐसा यह सब, उन्हें सुहाता है और दो चार मदिरापायी जुड़ जायें तो आपस में ऐसी नजाकत से बातें करते हैं जैसे मानो बादशाह हों, वे उस समय बड़ी एक मौज सी भी मानते हैं, तो भले ही उस समय उनको कुछ अच्छा सा लग रहा हो, मगर वह है तो बेहोशी का ही समय और फिर अभी व आगे वह दुःख का कारणभूत है, ऐसे ही विकल्प अँधकार में रहने वाले पुरुष बस यह ही तो समझते हैं गल्ती करते हुए भी कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ सो बहुत ठीक कर रहा हूँ, इसी को तो कहते हैं मिथ्यात्व । गल्ती का तो नाम है रागद्वेष और गल्ती में ही उसे ठीक समझने का नाम है मिथ्यात्व । अगर गल्ती ही करे प्राणी और गल्ती को नहीं सही माने, गलती को गलती समझता रहे तो भी उसका उद्धार हो सकता है, मगर जिसने इतना आग्रह बनाया मिथ्यात्व के कारण गल्ती करते हुए भी मानता कि मैं बिल्कुल ठीक कर रहा हूँ, ऐसा जो मानता वह बुद्धिमान नहीं है, मिथ्यादृष्टि पुरुष मन, वचन, काय की जो भी क्रिया करता है उसको वह समझता है कि मैं बिल्कुल ठीक काम कर रहा हूँ और वह अपने को बड़ा बुद्धिमान समझता है । बस यह संसारी जीव में महा रोग लगा हुआ है । जो ज्ञानी हो गया, जिसने अपने आपके सहज ज्ञानस्वरूप का परिचय पा लिया वह पुरुष गल्ती हो जाये तो गल्ती को तुरंत गल्ती समझ लेता है, कुछ लोग ऐसे होते हैं कि गल्ती करने के बाद एक घंटे में समझ लेते कि मैं गलत रास्ते पर हूँ, कोई लोग कुछ महीनों बाद में । पर ज्ञानी जीव तो जिस काम में गल्ती कर रहा है उस ही काल में गल्ती समझ रहा । कितना बड़ा ज्ञान का प्रताप है, देखो है ना कोई एक ऐसा विचित्र बल सम्यग्दृष्टि जीव के कि परिस्थितिवश वह गल्ती भी कर रहा और सब समझ रहा कि यह सब गलत बात है, मेरा काम तो सहज ज्ञान प्रकाश में निवास करने का है ।
611―कर्मास्रव के कारणों का रहस्य―शंकाकार के चित्त में एक शंका हुई थी कि पुद्गल कर्म को जीव ने नहीं किया तो फिर आखिर किसने किया? तो उसके उत्तर में कहेंगे कि सुनो―पुद᳭गल कर्म का करने वाला पुद्गल कर्म ही है, कैसे? देखो कर्म सामान्यतया एक प्रकार का है और उस कर्म के दो भेद करे, तीन करे, चार करे, इस प्रसंग में चूंकि निमित्तनैमित्तिक योग का प्रसंग बताकर और जीव को करने का भ्रम लग गया, यह बात बताई गई है, अतएव चार भेद करे (1) मिथ्यात्व (2) अविरति (3) कषाय और (4) योग । देखो मूल बात यों समझ लीजिए कि कर्म का जो आस्रव होता है वह सीधे जीव के रागद्वेष का निमित्त पाकर नहीं, किंतु उदय में आये हुए जो पुद्गल कर्म हैं उन उदयागत द्रव्य प्रत्यय का निमित्त पाकर नवीन कर्म का आस्रव होता लेकिन उन उदय में आये हुए कर्मों में नवीन कर्मास्रव का निमित्तपना आ जाये उसके लिए निमित्त होते हैं जीव के रागद्वेष मोह भाव, इसलिए मुख्यतया वहाँ कर्मास्रव के निमित्त रागद्वेष मोह भाव बताये गए हैं, क्योंकि रागद्वेष हुए बिना वहाँ कर्मास्रव की दशा नहीं बनती । जैसे एक दृष्टांत लो कोई बालक एक दर्पण लेकर धूप में खड़ा हो जाये और वहाँ से धूप किसी अंधेरी कोठरी में फेंके तो बताओ उस अंधेरी कोठरी में उस दर्पण के द्वारा जो प्रकाश पहुंचा वह किसका है? दर्पण का वह प्रकाश है कि सूर्य का? तो सभी लोग कह देंगे कि वह प्रकाश तो सूर्य का है दर्पण का नहीं । लेकिन तथ्य ऐसा नहीं, क्योंकि सीधे सूर्य का निमित्त पाकर कोठरी में वह प्रकाश नहीं पहुंचा, किंतु दर्पण का निमित्त पाकर पहुंचा, तो सब लोग ऐसा जानते ही हैं कि दर्पण में सूर्य की किरणें आयीं । सूर्य की किरणें उस दर्पण में पहुंची और फिर दर्पण से उस कोठरी के अंदर किरणें पहुंची, तो वहाँ वास्तविक बात क्या है कि कोठरी में जो प्रकाश है वह कोठरी का है और उस प्रकाश का निमित्त है दर्पण, मगर दर्पण उस प्रकाश में निमित्त हो जाये, उसमें निमित्त है सूर्य । रात के समय या सुबह के समय दर्पण को उस तरह करके कोई कोठरी के अंदर प्रकाश पहुंचाकर भला दिखा तो दे, तो जैसे कोठरी में प्रकाश के पहुंचाने का निमित्त है दर्पण और दर्पण में निमित्तपने का निमित्त है वह सूर्य तो सही बात मूल में यह रही कि कमरे में जो प्रकाश आया उसका निमित्त है सूर्य, ऐसे ही नवीन कर्म जो बँधते हैं जीव के साथ तो सीधा निमित्त है उदय में आया हुआ पुद्गल कर्म । नवीन कर्म आने का उदयागत कर्म निमित्त हुआ, मगर उदयागत उन कर्मों में ऐसा निमित्तपना आ जाये कि वह नवीन कर्मबंध में निमित्त बन जाये उसका निमित्त है जीव के रागद्वेषादिक भाव, तो जीव के रागद्वेष भाव बिना कर्मबंध तो नहीं हो सका, इसलिए ग्रंथों में सीधा जीव के रागद्वेष को कर्मास्रव का निमित्त कहा जाता है । साथ ही है संसारबंधन का कारण, ऐसा तथ्य बताया गया है । तो असल में कर्मास्रव के कारण कौन है? उदयागत द्रव्यकर्म, उन्हीं के ये चार भेद हैं―(1) मिथ्यात्व (2) अविरति (3) कषाय और (4) योग । फिर इसी के विस्तार में 13 गुणस्थान बन गए । कहीं मिथ्यात्व के होने से, कहीं मिथ्यात्व तो नहीं किंतु अविरति के रहने से कर्मबंधन हुआ याने कोई न कोई उपाधि कारण है जिससे 13 गुणस्थानों का बनना हुआ और 13 गुणस्थान तक किसी न किसी प्रकार के कर्म का आस्रव होता है तो स्वत: देखें तो कर्मास्रव का कारण वह उदयागत कर्म पड़ा । जीव ने कर्म नहीं किया किंतु कर्म को किया तो,, कर्म ने ही किया, ऐसा इस प्रकरण में बताया जा रहा है ।
612―पुद्गल कर्म के कर्ता का निर्णय―यहाँ यह निर्णय किया जा रहा है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है, जब यह बात वस्तु स्वरूप की है और इस आधार पर यह सिद्ध हो गया कि जीव पुद्गल कर्म का कर्ता नहीं है तो आखिर इस पुद्गल कर्म का कर्ता कौन है इसका निर्णय चल रहा है । बताया यह जा रहा है कि पुद्गल कर्म का करनेवाला उदयागत पुद᳭गल कर्म तथा वे ही पुद्गल कर्म याने वे स्वयं कार्मणवर्गणायें हैं । निमित्त दृष्टि से भी पुद्गल कर्म का करने वाला पुद्गल कर्म और उपादान दृष्टि से भी पुद्गल कर्म का करने वाला पुद्गल कर्म । यह विषय गंभीर है और बहुत ध्यान से सुनने पर विदित होता है । स्पष्ट तो सर्वत्र कहा गया कि पुद्गल कर्म के बंध का, आस्रव का कारण है जीव का रागद्वेष मोह भाव । तो क्या इससे विरोध न होगा इस कथन का? इन दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है । जैसे कि कल बताया था कि बतलावो एक कमरे में दर्पण के माध्यम से खूब प्रकाश ला दिया जैसे कि बालक लोग करते ही हैं, आप लोग भी करके देख सकते । बाहर धूप में खड़े होकर ऐसा दर्पण को कमरे के द्वार पर करें जो उस पर सूर्य सामने हो जिससे कि वह दर्पण झिलमिला जाये, उसमें से किरणें फूट पड़े और उस दर्पण को ऐसा सामने किया कि वह उजेला जैसे कि बैट्री में से किरणें निकलती हैं उस तरह का उजेला कमरे में पहुंच जाये तो कमरे में जो प्रकाश पहुंचा उसका निमित्तकारण सूर्य है या दर्पण? दर्पण है, लेकिन यह कैसे माना जा सकता? सूर्य न हो तो दर्पण की वे किरणें कैसे पहुंच सकें? यह बात तो बिल्कुल ठीक है, अर्थात् सूर्य नहीं है तो इस प्रकार कमरे में प्रकाश पहुंच ही नहीं सकता । यह बात ठीक है फिर भी उस प्रकाश का उपादान कारण तो उस कमरे में रहने वाली चीज ही है जो प्रकाशमान हुई है और निमित्त कारण दर्पण है, किंतु दर्पण में ऐसा निमित्तपना आ जाये कि कमरे में यह प्रकाश पहुंच जाये, उसका निमित्तपना दर्पण में आ जाये उसका निमित्त है सूर्य । इसी कारण यह बात बिल्कुल सही है कि सूर्य न हो तो यह प्रकाश नहीं पहुंच सकता । यही बात कर्मों के आस्रव और बंध के विषय में है । देखिये, कर्म का आस्रव होता, नये कर्म आते तो उसका निमित्त कारण क्या है? उदय में आये हुए पुद्गल कर्म, उदयागत द्रव्य प्रत्यय अर्थात् जो कर्म उदय में आ रहे हैं उनका जो उदित अनुभाग है, जो उदय हो रहा है ऐसा उदयागत कर्म नवीन कर्म के आस्रव का निमित्त है, जीव नहीं, न जीव का रागद्वेष मोह । लेकिन, शास्त्रों में तो यह लिखा है कि जीव के रागद्वेष मोह के निमित्त से ही कर्म का आस्रव होता है, ठीक है, वह बात बिल्कुल सही है, उसका विरोध नहीं खाता, क्योंकि जो यह कहा गया कि नवीन कर्म का जो आस्रव होता है उसका निमित्त है उदय में आये हुए द्रव्य कर्म मगर उदय में आये हुए द्रव्य कर्म में ऐसा निमित्तपना आ जावे कि वे नवीन कर्म के आस्रव के निमित्त हो जाये ऐसा निमित्तपना आ जाना, इसका निमित्त है जीव का रागद्वेष मोह भाव ।
613―कर्मविपाकोदय, जीवविभाव, नवीनकर्मास्रव तीनों का सहभावित्व होने पर भी निमित्त, निमित्तत्वनिमित्त व नैमित्तिक होने का विश्लेषण―बातें तीनों एक साथ हैं, उसी समय में कर्म का उदय है, उसी समय में जीव के विकल्प परिणाम हैं, रागद्वेष मोह भाव हैं, उसी समय में नवीन कर्म का आस्रव है, फिर भी एक साथ तीनों होते हुए में यह निर्णय है कि कर्म का आस्रव है नैमित्तिक, उसका निमित्त है उदयागत कर्म और उदयागत कर्क के निमित्तपने का निमित्त है जीव का रागद्वेष मोह भाव । कहीं ऐसा नहीं है कि जब नवीन कर्म का आस्रव हो तब जीव में रागद्वेष मोह आना ही पड़ता हे या निमित्त को हाजिर होना ही पड़े, कर्मोदय को हाजिर होना पड़े ऐसा नहीं । इस मान्यता में निमित्त नैमित्तिक भाव का दर्शन नहीं है बल्कि उल्टा ही प्रसिद्ध होता है । जीव का रागद्वेष मोह जब हो तब कर्म का आस्रव हो, जब कर्मविपाक हो तब जीव के राग द्वेष मोह उठ बैठते हैं, ऐसा कहने में तो आया निमित्त नैमित्तिक भाव । मगर, जब जीव के रागद्वेष भाव हुए तब कर्म का उदय हाजिर हुआ, यों कहने का अर्थ यह हुआ कि कार्य हुआ निमित्त और कारण हुआ नैमित्तिक याने जीव के रागद्वेष विभाव तो हुए निमित्त और कर्म का उदय होना हो जायेगा नैमित्तिक । ऐसा जैन सिद्धांत में नहीं है, और एक मोटी कुंजी बतायी जाती है, कहीं भी बात आप बोलें―जिसमें आप जब लगायेंगे वह तो प्रसिद्ध होता है निमित्त और जिसमें आप तब लगायेंगे वह होता है नैमित्तिक । जैसे दीपक और प्रकाश दोनों एक साथ होते हैं, मगर उसका कहना इस तरह ठीक है कि जब दीपक जलता है तब प्रकाश होता है, एक साथ होने पर भी ऐसी भाषा बोली जा सकती है कि जब दीपक जलता है तब प्रकाश होता है, मायने दीपक कारण है, प्रकाश कार्य है यह भाषा सत्य है, किंतु यह भाषा न बोली जा सकेगी कि जब प्रकाश होता है तो दीपक जल उठता है ऐसा कहने में प्रकाश हो जायेगा निमित्त और दीपक का जलना हो जायेगा नैमित्तिक जो कि प्रकट मिथ्या है सीधी साफ कुटी है जब और तब के प्रयोग की । तो क्या बात प्रकरण में समझना है कि कर्म उदय में आये यह माध्यम बना विभाव का व आस्रव का क्योंकि पहले कर्म बंधे थे जिनमें प्रकृति, प्रदेश का स्थिति अनुभाग का बंधन था,अब उदय में आये, स्थिति पूरी हुई, कर्म का अनुभाग खिला, उस खिलने में काम क्या हुआ? देखना यह कि कारण किस-किस कार्य का जाल है, कर्म का उदय यह कारण बना किसका? जीव में रागद्वेष मोहभाव जगा उसका और नवीन कर्म का आस्रव हुआ उसका भी, दोनों का निमित्त यह रागद्वेष महिमा है । तब प्रधान क्या कहलाया आस्रव? जीव का राग द्वेष मोहभाव, देखिये यह प्रकरण चल रहा है कर्ता कर्मभाव का । आस्रवाधिकार में यह बहुत स्पष्ट की जायेगी, पर कर्तृकर्माधिकार में इस तथ्य को यहाँ देखें कि जीव के रागद्वेष भाव तो हुए, मगर यहाँ हुआ क्या? बस उपयोग का विपरिणमन । याने विकल्प रूप परिणमन । रागद्वेष कहते किसे हैं? क्या चीज है? कोई जाना जा सकता कि यह है लो राग द्वेष । बताया जा सकता क्या? बस जीव का रागद्वेष है । ज्ञान का उस तरह के विचार के रूप में या समझने रूप में परिणमन । इसका नाम ही राग है, इसका भ्रम ही द्वेष है । अच्छा और देखो वास्तव मूल रागद्वेष क्या है? तो कर्म में जो अनुभाग पड़ा है रागद्वेष प्रवृति वह फूटे, वह है कर्म में रहने वाली रागद्वेष पर्याय । जिसको कर्म अचेतनत्व के नाते ही अनुभव कर पाते हैं, चेतनत्व के नाते ही अनुभव नहीं कर सकते अर्थात् जैसे प्रत्येक पदार्थ में अवस्था होती हैं तो उन अवस्थाओं का अनुभवन वे प्रत्येक पदार्थ कर रहे हैं । वह अनुभवात्मक चैतन्यात्मक नहीं, ज्ञानात्मक नहीं, किंतु परिणमनात्मक है, वह हुआ प्रतिफलन, अब उस संपर्क से उपयोग को धारा बदल उठती है, बस तब बन जाता है रागद्वेष ।
614―द्रव्यकर्म के कर्मत्व का तथ्य―जो कर्म आये वही कार्य, कर्म में कर्म का आस्रव होना, कर्म का बंध होना यह है एक कार्य । इसका ही निर्णय किया जा रहा है इसका करने वाला कौन है? तो कर्म का आस्रव हुआ, कर्म का बंध हुआ याने कार्मण में ही कोई कर्मत्व की अवस्था बने तो इस कर्म की अवस्था का करनेवाला उपादान से तो वही कार्मण वर्गणा है जिसमें कि कर्मत्व अवस्था हुई और निमित्तदृष्टि से कर्मत्व अवस्था का निमित्त है उदय में आया हुआ पुद्गल कर्म । सो देखिये ये पुद्गल कर्म जो उदय में आये हैं सो उदय की दृष्टि से अनुभाग और फल की दृष्टि से चार प्रकार के हैं―मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । देखिये उदयागत कर्म को ही चार भागों में बोला जा रहा है, मिथ्यात्व को तो जानते ही हैं । मिथ्यात्व नामक प्रकृति, उसमें पड़ा है अनुभाग, उसका होता है उदय, यह है मिथ्यात्व । अविरत याने अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण प्रकृति है उसमें जो अनुभाग पड़ा है उस अनुभाग का जो यह प्रतिबिंब है प्रतिफलन है वह है अविरति । वह अनुभाग है अविरति जो नवीन कर्म के आस्रव का निमित्त है । विषय कषाय याने विषय को तो अविरति कहना प्रसिद्ध भी है मगर अविरति में उस अविरतपने की बात न निरखकर केवल एक मैथुनरूप से ही देखा जाये तो वह कषाय है । और जो-जो कर्म उदित होकर इस एक प्रदेशपरिस्पंद में निमित्त होता है वह-वह भाव योग है, इस तरह चार प्रकार का यह उदयागत द्रव्यप्रत्यय है । अब इसके ही विस्तार में 13 गुणस्थान हैं । अयोगकेवली में योग नहीं, वहाँ आस्रव भी नहीं । ईर्यापथ आस्रव 11वें से 13वें गुणस्थान तक है, सांपारायिक आस्रव 10वें गुणस्थान तक है । कोई भी आस्रव हो, है तो आस्रव, तो आस्रव हो रहा है । उसका निमित्त है ये चार उदयागत प्रत्यय और इन चार का विस्तार है मिथ्यात्व, सासादन आदिक 13 गुणस्थान ।
615―त्रयोदश गुणस्थानों में आस्रवनिमित्तत्व का तथ्य―अब देखना गुणस्थान को, हम इस ढंग से भी देख सकते हैं कि आत्मा के गुणविकास का नाम है गुणस्थान और इस ढंग से भी देख सकते हैं कि आत्मा में कुछ-कुछ कमी रह जाने का नाम है गुणस्थान क्योंकि 13 गुणस्थानों में ये दोनों ही बातें हैं । आत्मा में विकास है मिथ्यात्व से ऊपर, मिथ्यात्व में तो मोह, पर और ऊपर किसी न किसी दर्जे में कुछ थोड़ा विकास है अथवा मलिनता की कमी याने कुछ विकास और कुछ मलिनता इसके मायने है 13 गुणस्थान । यद्यपि 13 वें गुणस्थान में कषायकृत मलिनता नहीं है, मगर योग का होना भी तो आत्मा की कमी है । जैसे कहीं साफ स्वच्छ पानी है, कहीं कीचड़ वाला पानी है, कीचड़ वाले पानी में जैसे हमारे प्रतिबिंब की झलक भी नहीं, स्थिरता नहीं है मलिन दिखता है प्रतिबिंब । लेकिन कोई पानी बहुत स्वच्छ है मगर उसमें लहरें उठ रही हैं, भंवर चल रही हैं तो वहाँ भी तो हमारा प्रतिबिंब स्थिर नहीं होता, तो मलिनता भी एक कमी है और योग भी परिस्पंद भी, लहर भी एक कमी है । तो गुणस्थान को जरा इस ढंग से देखें तो सही, हमारी कमी को आत्मा की कमी को गुणस्थान कहते । हमारी कमी का नाम यहाँ गुणस्थान है । तो इन 13 गुणस्थानों में जिन कमियों से उनका स्वरूप बने वे कमियाँ क्या आत्मा का स्वभाव है या वह कर्म के उदय का प्रभाव है? जो कमियां आत्मा का स्वभाव नहीं और जो कमियाँ हैं वही आस्रव की कारण हैं, जो विकास हैं आस्रव का कारण नहीं । मिथ्यात्व के बाद के गुणस्थानों में संवर निर्जरा है, 13 गुणस्थानों में आस्रव भी चल रहा है, बंध 10वें गुणस्थान तक है तो जहाँ निर्जरा और आस्रव दोनों चल रहे हैं वहाँ मोक्षमार्ग में कर्म की निर्जरा का कारण तो विकास और आस्रव का कारण है कमी । तो विकास और कमी जब ये दोनों ही चल रहे गुणस्थान में और आस्रव होता है कमियों के कारण तो यह ही कहा जायेगा ना कि कर्मों के आस्रव का निमित्त है यह गुणस्थान, ये 13 गुणस्थान हैं क्या? वे चार प्रकार के जो द्रव्य प्रत्यय हैं उनके ही ये प्रभेद हैं, विस्तार हैं, तो क्या बात रही कि नवीन कर्म के आस्रव का निमित्त रूप से कारण यह गुणस्थान अथवा यह उदयागत द्रव्य प्रत्यय रहा ।
616―लोकसम्राट निरंजन भगवान आत्मा की संसार लीला का कारण―यहाँ क्या बात समझना है कि यह जीव बादशाह, यह आत्मा सम्रट, यह तो अकर्ता है, इसे क्यों खींचा जा रहा है? जो उदयागत, द्रव्य प्रत्यय है वह कर्मास्रव का कारण है । हाँ देखना, इतनी सावधानी अवश्य रखना कि उदयागत द्रव्य प्रत्यय में जो नवीन कर्मों के आने का निमित्तपना बनता है वह जीव के रागद्वेष की सैन का बल पाकर ही बनता है । रागद्वेष का बल पाये बिना नवीन कर्मों का आस्रव नहीं होता । जरा एक और लौकिक दृष्टांत लो । मानो किसी एक बाबू के साथ एक पालतू कुत्ता चला जा रहा है और सामने कोई उस बाबूजी का विरोधी पुरुष नजर आया जिससे उसको नाराजगी थी तो बाबूजी ने उस कुत्ते को जरा सा छुछकार दिया तो कुत्ते ने उस विरोधी पुरुष पर आक्रमण कर दिया, काट लिया । अब यह बतलावो कि वह मनुष्य क्या उस कुत्ते पर मुकदमा दायर करेगा या बाबूजी पर? बाबूजी पर ही दायर करेगा, अरे ऐसा क्यों? आक्रमण तो कुत्ते ने किया । तो बाबूजी पर मुकदमा इसलिए कर रहे कि बाबूजी की सैन का बल पाकर ही कुत्ते ने आक्रमण किया । ऐसे ही जो कर्म उदय में आते हैं उन उदय वाले कर्मों ने तो नवीन कर्मों को बुलाया, मगर अपराधी कौन ठहरा? यह मलीमस जीव, क्योंकि जीव के रागद्वेष मोह की सैन पाकर उन उदयागत कर्मों ने नवीन कर्मों को बुलाया, यह है कर्ताकर्म के निर्णय का प्रकरण, इसलिए इतना अंश यहाँ ग्रहण करना कि जीव पुद्गल कर्म का कर्ता नहीं, निमित्त से भी कर्ता नहीं, उपादान से भी कर्ता नहीं, किंतु निमित्त से कर्ता तो है उदयागत कर्म और उदयागत कर्म में ऐसा निमित्तपना आने का निमित्त है जीव का रागद्वेष मोह भाव । और भी ध्यान से सुनो―मान लो एक इंजन 10 डिब्बों को खींच रहा है तो वहाँ आप यह बतलावो कि इंजन साक्षात् किस डिब्बे को चलाने का निमित्त बन रहा? जो इंजन से लगा हुआ डिब्बा है उसका केवल साक्षात् निमित्त है उससे संपर्क है, वह साक्षात् निमित्त किसका बनता है? इंजन तो इंजन से लगे हुए पहले डिब्बे को खींचने का निमित्त है, अच्छा और फिर दूसरा डिब्बा जो खींच रहा है, उसके खींचने का कौन निमित्त है? वह चलता हुआ पहला डिब्बा, अच्छा कह तो दिया आराम से, मगर इंजन खड़ा हो जाये तो फिर वे पीछे के 9 डिब्बे क्यों खड़े हो गए? उनका तो निमित्त था ही नहीं इंजन । तो भाई बात बी है कि पहले डिब्बे के खींचने का इंजन साक्षात् निमित्त है और बाकी के उनसे लगे डिब्बे पीछे-पीछे वाले डिब्बों के खींचने में निमित्त तो हैं मगर उन डिब्बों में खींचने का निमित्तपना आया उसका तो निमित्त इंजन ही है, निमित्तत्व का निमित्त है इंजन और वह इतना प्रबल है कि इंजन न रहे तो शेष डिब्बे अन्य डिब्बों को खींचने में निमित्त नहीं हो सकते । ऐसे ही नवीन कर्मों के आस्रव का निमित्त तो है उदयागत द्रव्य प्रत्यय, किंतु उन द्रव्यप्रत्ययों के इस निमित्तपने में निमित्त हैं जीव के राग द्वेषादि भाव । लो यों परख कर लो कि यदि जीव के रागद्वेषादि भाव न हो तो उदयागत द्रव्य प्रत्ययों में नवीन कर्मों के आस्रव का निमित्तपना नहीं आ सकता । तब तो यही सिद्ध हुआ कि वास्तव में तो रागद्वेष मोह से ही संसार परंपरा बनी, इसी कारण एकदम ही यह कह दिया जाता है कि कर्मों के आस्रव का निमित्तकारण जीव के राग द्वेषादि विभाव हैं ।
617―आत्मा के सहज स्वभाव के परिचय के प्रयोजन की जैन शासन से सिद्धि―यहां एक अंत: निरंतर धारा चल रही है, जिसका परिचय न होने से यह जीव कितनी ही अपनी कुगतियाँ विचार डालता है । यहाँ ध्यान में एक बात लेना, जैनशासन में जितनी भी बातें कही गई हैं वे सब जीव के हित के लिए उपयोगी हैं, उनमें यह छाँटना कि यह बात तो सत्य है और यह बात असत्य है, यह जैन शासन का विद्रोह है । देखो―सर्व कथनों का प्रयोग स्वभाव दृष्टि के लिए होता है, दूसरा और कोई प्रयोजन नहीं । जीव को अब तक स्वभाव की दृष्टि नहीं हुई, स्वभाव का दर्शन नहीं हुआ, स्वभाव में रुचि नहीं जगी, स्वभावरूप अपने को नहीं माना, जिसके कारण यह संसार में रुल रहा है, पर्यायों में आत्मबुद्धि कर रहा है, तो करना क्या है ? ऐसा परिचय बनावें, ऐसा ज्ञान प्रकाश लावें कि स्वभाव में रुचि जगे, स्वभाव में दृष्टि लगे । तो देखो समयसार में मुख्यतया बंधाधिकार में निमित्तनैमित्तिक योग का स्पष्ट सीधा वर्णन है, यह जीव कर्मोदय से ही दुःखी सुखी होता है, दूसरा जीव इसको दुःखी सुखी नहीं करता । दूसरा जीव तो केवल अपना अध्यवसान करता है कि मैं इसको दुःखी करता हूँ, मैं इसको सुखी करता हूँ, लेकिन उसका अध्यवसान झूठा है, क्योंकि उसके दुःखी करने का परिणाम होने से कोई दुःखी न हो जायेगा । उसके ही पाप का उदय हो तो उसका निमित्त पाकर वह दुःखी होगा । पुण्य का उदय हो तो उसका निमित्त पाकर सुखी होगा, दूसरा जीव निमित्त कारण नहीं । तो ऐसे निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय से कितनी स्वच्छता जगती है और कितनी सुगमता है स्वभाव के दर्शन करने में । यह ज्ञान जानता है कि जो यह मलिनता है, जो ये विकल्प चल रहे, वह सब कषाय का प्रतिफलन हो रहा । वहाँ दो बात निरखना―वस्तुगत मूल में जो अनुभाग है वह तो है कर्म की परिणति और उस प्रतिफलन का निमित्त पाकर जो जीव ने अपना उपयोग उन-उन विचारों रूप बना डाला यह है जीव की गल्ती, मगर ये जो कषायें प्रतिबिंबित हो उठी हैं और जिस कषाय में उपयोग लगाता है वह कषाय जीव की नहीं है, वह कर्म की चीज है । हाँ कषाय में जो उपयोग परिणमा है वह नैमित्तिक है । सो वह उपयोग विकल्प जीव की ही परिणति है तो भी यह जीव के स्वभाव की रंच भी बात नहीं । मैं तो इन सबसे बिना छूवा, बिना बँधा अपने आप में ही स्वरूप में विशुद्ध एक अंतस्तत्त्व हूँ, यह दर्शन मिला निमित्तनैमित्तिक योग के सही परिचय से, और इसका बड़ा उपयोग किया आचार्य संतों ने । किसलिए किया कि इन नैमित्तिक भावों से हम को ग्लानि हो जाये । ये नैमित्तिक हैं, ये मेरे स्वभाव की चीज नहीं, हुआ उपयोग का परिणमन, है मेरा ही परिणमन, मगर यह नैमित्तिक है, इसमें मुझको बुद्धि न फंसाना चाहिए, ये हेय तत्त्व हैं इनसे उपेक्षा करें, और आवे तो जो अनैमित्तिक है, जो सहज स्वभाव है उस अंतस्तत्त्व के दर्शन करने को आवे । प्रत्येक वर्णन का प्रयोजन है आत्मा के स्वभाव में पहुंचना । एक ही प्रयोजन है समस्त अर्थों का । एक आत्मस्वभाव के दर्शन में बाधा डाले ऐसा जितना भी कथन है वह सब मिथ्या कथन है, जैसी जो बात नहीं है वैसा कह उठना । जीव ने द्रव्यकर्म को किया अथवा द्रव्यकर्म ने जीव में राग बनाया यह सब कथन मिथ्या है, क्योंकि यहाँ पर के अकर्तृत्व स्वभाव का उल्लंघन किया । निमित्तनैमित्तिक योग को पहिचानें, उसमें तथ्य है । लोग तो यों कह देते कि―अंजन से किए अकामी, दुःख मेटो अंतर्यामी । हे प्रभो !आपने अंजन जैसे चोर को भी अकामी बना दिया―क्यों भाई ऐसा कहना झूठ है या सच? झूठ है, मगर इसमें तथ्य है जिस तथ्य के कारण ऐसा कहना अयुक्त नहीं हो रहा । भक्ति में कह देते हैं । क्या तथ्य है कि उस अंजन चोर ने उस चैतन्यस्वरूप का ध्यान किया, उस चैतन्यस्वरूप का अनुभव किया, प्रस्तुत में जो व्यक्तस्वरूप है उसका सहारा लेकर अपने चैतन्यस्वभाव का ध्यान किया कि वह पवित्र बन गया । तो यह निमित्तनैमित्तिक योग रहा ना आश्रय की ओर से । इस तथ्य के कारण ऐसा कहना कोई वर्जित नहीं है । कहा जाता है, कहते हैं, किंतु कोई इसी तरह समझ ले कि भगवान सिद्धालय से या समवशरण से उठकर दौड़कर भागकर आये इस अंजन चोर के पास कि मैं इसे अकामी बना दूँ और बनाये, ऐसा दृश्य कोई अपने चित्त में लाये तो वह मिथ्या है । तो निमित्तनैमित्तिक योग का सही परिचय हो तो विसंवाद नहीं रहता ।
618―निमित्तनैमित्तिकयोग के परिचय से आत्मस्वभाव के निखार का समर्थन―निमित्तनैमित्तिक योग का सही परिचय वह कहलाता कि जिसमें वस्तुस्वातंत्र्य का घात न किया जा रहा हो जैसे मैं इस चौकी पर बैठ गया तो कोई तो यों कहता कि इस तखत ने महाराजजी को बैठा दिया और कोई यों कहे कि यह इस चौकी का आश्रय करके स्वयं अपने आप में अपनी परिणति बनाकर बैठ गए । यहाँ कथन का अंतर देखना । पहला कथन कर्तृत्वबुद्धि को लिए हुए है । क्या तखत ने मुझे बैठा दिया? अरे तखत तो तखत में है, अपने प्रदेशों में है । उसके बाहर उसकी कुछ कला नहीं है । यह तो बैठने वाले की ही कला है कि यह उपादान इन परपदार्थों को निमित्तमात्र करके मैं अपना प्रभाव बनाकर बैठ गया, बस यह ही बात सर्वत्र है । कहीं भी घटा लो, निमित्त उपादान का कर्ता नहीं है, किंतु उपादान स्वयं ही ऐसी कला रखता है कि वह किस निमित्त को पाकर अपने में कैसा प्रभाव बना डाले । देखिये वस्तु-स्वातंत्र्य आया ना? परिणमन कोई दूसरे ने नहीं किया, परिणमन तो इस उपादान में स्वयं हो गया और निमित्तनैमित्तिक योग आया ना कि ऐसे विषम परिणमन को यह उपादान, इस उपाधि का सन्निधान पाकर कर गया । इस तरह आत्मा तो जो जीव को पहिचानने वाला है वह कह रहा है कि जीव तो अकर्ता है । जीव का कर्म में कर्तृत्व नहीं है । यह हो रहा है निमित्त नैमित्तिक योग से । तो देखिये यह मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोग गुणस्थान तक यह सब गुणस्थान (गुणस्थान को कहते ही वहाँ कमियों पर दृष्टि देना है) अचेतन हैं और पुद्गल कर्म के उदय से उत्पन्न हुए हैं । यह अगर कर्म को करता है तो करे, जीव तो अकर्ता ही रहा और यह अगर कर्म को करता है तो अनुभवे भी यही । कौन? कर्म । नहीं । कर्म की बात कर्म अनुभवे और जो निमित्त बनी ऐसी अवस्था को अनुभवे जीव । जीवद्रव्य जो सहजज्ञायकस्वरूप है वह भोक्ता भी नहीं और कर्ता भी नहीं । ऐसे समस्त अनात्म तत्त्वों से विविक्त जो आत्मा का सहज ज्ञानस्वरूप है, ज्ञायक स्वभाव है उसमें अनुभव करें कि मैं यह हूँ । देखो, सारे कथन में इतनी ही बात कही गई । अगर इसे छोड़कर अपनी कषायों में अनुभव करे कि यह मैं हूँ, अपने देह में अनुभव करे कि यह मैं हूँ, छुटपुट ज्ञान में अनुभव करे कि यह मैं हूँ तो ये आश्रय भी इसमें होते हैं, संसार बढ़ता । अनुभव करें अपना सहज ज्ञान स्वरूप का कि यह मैं हूँ ।