आसन
From जैनकोष
- आसनके भेद
ज्ञानार्णव अधिकार संख्या २८/१० पर्यङ्कमर्द्धपर्यङ्कं वज्रं वीरासनं तथा। सुखारविन्दपूर्वे च कायोत्सर्गश्च सम्मतः ।।१०।।
= पर्यंकासन, अर्द्धपर्यंकासन्, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन, कायोत्सर्ग ये ध्यानके योग्य आसन माने गये हैँ।
- आसन विशेषके लक्षण
अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ८/८३ में उद्धृत `जङ्घाया जङ्घाया श्लिष्टे मध्यभागे प्रकीर्तितम्। पद्मासन' सुखाधायि सुसाध्यें सकलैर्जनैः। बुधैरुपर्यधोभागे जङ्घयोरुपभयोरपि। समस्तयोः कृते ज्ञेयं पर्यङ्कासनमासनम् ।।२।। उर्वोरुपरि निक्षेपे पादयोर्विहिते सति। वीरासनं चिरं कर्तुंशक्यं धीरैर्न कातरैः ।।३।। जङ्घाया मध्यभागे तु संश्लेषो यत्र जङ्घया। पद्मासनमिति प्रोक्तं तदासनविचक्षणैः। स्याज्जङ्घयोरधोभागे पादोपरि कृते सति। पर्यङ्को नाभिगोत्तानदक्षिणोत्तरपाणिकः। वार्मोघ्रिर्दक्षिणोरूर्घ्वं वामोरुपरि दक्षिणः। क्रियते यत्र तद्धीरो चित्तं वीरासनं स्मृतम्।
= जंघाका दूसरी जंघाके मध्य भागसे मिल जाने पर पद्मासन हुआ करता है। इस आसनमें बूत सुख होता है, और समस्त लोक इसे बड़ी सुगमतासे धारण कर सकते हैं। दोनों जंघाओं को आपसमें मिलाकर ऊपर नीचे रखनेसे पर्यङ्कासन कहते हैं। पैरोंको दोनों जंघाओंके ऊपर नीचे रखनेसे वीरासन होता है। कातर पुरुष इसे अधिक देर तक नहीं कर सकते, धीर वीर ही कर सकते हैं। (क्रियाकलाप मुख्याधिकार संख्या १/६) किसी-किसीने इन आसनोंका स्वरूप इस प्रकार बताया है कि-जब एक जंघाका मध्य भाग दूसरी जंघासे मिल जाये तब उस आसनको पद्मासन कहते हैं। दोनों पैरोंके ऊपर जंघाओंके नीचेके भागको रखकर नाभिके नीचे ऊपरको हथेली करके ऊपर दोनों हाथोंको रखनेसे पर्यकासन होता है। दक्षिण जंघाके उपर वाम पैर और वाम जंघाके ऊपर दक्षिण पैर रखनेसे वीरासन बताया है जो कि धीर पुरुषोंके योग्य है।
बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा संख्या ५१में उद्युत “गुल्फोत्तानकरांगुष्ठेरखारोमालिनासिकाः। समदृष्टिः समाः कुर्यान्नातिस्तब्धो न वामनः।
= दोनों पाँवके टखने ऊपरकी और करके अर्थात् दोनों पाँवको जंघाओं पर रखकर उनके ऊपर दोनों हाथोंको ऊपर नीचे रखें ताकि हाथके दोनों अँगूठे दोनों टखनोंके ऊपर आ जायें। पेट व छातीकी रोमावली व नासिका एक सीधमें रहें। दोनों नेत्रोंकी दृष्टि भी नासिका पर पड़ती रहे। इस प्रकार सबको समान सीधमें करके सीधे बैठें। न अधिक अकड़ कर और न झुककर। (इसको सुखासन कहते हैं।)
- आसनोंकी प्रयोग विधि - देखे कृतिकर्म ३।