ग्रन्थ:लिंगपाहुड़ गाथा 4
From जैनकोष
णच्चदि गायदि तावं वायं वाएदि लिंगरूवेण ।
सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ॥४॥
नृत्यति गायति तावत् वाद्यं वादयति लिङ्गरूपेण ।
स: पापमोहितमति: तिर्यग्योनि: न स: श्रमण: ॥४॥
आगे लिंग धारण करके कुक्रिया करे उसको प्रगट कहते हैं -
अर्थ - जो लिंगरूप करके नृत्य करता है, गाता है, वादित्र बजाता है, सो पाप से मोहित बुद्धिवाला है, तिर्यंचयोनि है, पशु है, श्रमण नहीं है ।
भावार्थ - लिंग धारण करके भाव बिगाड़कर नाचना, गाना, बजाना इत्यादि क्रियायें करता है, वह पापबुद्धि है, पशु है, अज्ञानी है, मनुष्य नहीं है, मनुष्य हो तो श्रमणपना रक्खे । जैसे नारद भेषधारी नाचता है, गाता है, बजाता है वैसे यह भी भेषी हुआ तब उत्तम भेष को लजाया, इसलिए लिंग धारण करके ऐसा होना युक्त नहीं है ॥४॥