भावपाहुड गाथा 65
From जैनकोष
आगे जीव का स्वभाव ज्ञानस्वरूप भावना कहा वह ज्ञान कितने प्रकार का भाना यह कहते हैं -
भावहि पंचपयारं णाणं अण्णाणणासणं सिग्घं ।
भावणभावियसहिओ दिवसिवसुहभायणो होइ ।।६५।।
भावय पंचप्रकारं ज्ञानं अज्ञाननाशनं शीघ्र् ।
भावनाभावितसहित: दिवशिवसुखभाजनं भवति ।।६५।।
अज्ञान नाशक पंचविध जो ज्ञान उसकी भावना ।
भा भाव से हे आत्मन् ! तो स्वर्ग-शिवसुख प्राप्त हो ।।६५।।
अर्थ - हे भव्यजन ! तू यह ज्ञान पाँच प्रकार से भा, कैसा है यह ज्ञान ? अज्ञान का नाश करनेवाला है, कैसा होकर भा ? भावना से भावित जो भाव उस सहित भा, शीघ्र भा, इससे तू दिव (स्वर्ग) और शिव (मोक्ष) का पात्र होगा ।
भावार्थ - यद्यपि ज्ञान जानने के स्वभाव से एक प्रकार का है तो भी कर्म के क्षयोपशम और क्षय की अपेक्षा पाँच प्रकार का है । उसमें मिथ्यात्वभाव की अपेक्षा से मति, श्रुत और अवधि ये तीन मिथ्याज्ञान भी कहलाते हैं, इसलिए मिथ्याज्ञान का अभाव करने के लिए मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञानस्वरूप पाँच प्रकार का सम्यग्ज्ञान जानकर उनको भाना । परमार्थ विचार से ज्ञान एक ही प्रकार का है । यह ज्ञान की भावना स्वर्ग-मोक्ष की दाता है ।।६५।।