योगसार - निर्जरा-अधिकार गाथा 284
From जैनकोष
जगत के स्वभाव की भावना का प्रयोजन -
स्व-तत्त्वरक्तये नित्यं परद्रव्य-विरक्तये ।
स्वभावो जगतो भाव्य: समस्तमलशुद्धये।।२८४।।
अन्वय :- नित्यं स्व-तत्त्वरक्तये, परद्रव्य-विरक्तये, समस्तमलशुद्धये जगत: स्वभाव: भाव्य: ।
सरलार्थ :- अनादि-अनंत निज शुद्ध आत्मतत्त्व में लवलीन होने के लिये, विश्व में विद्यमान जीवादि अनंतानंत द्रव्यों से विरक्त होने की भावना से और अपने आत्मा से संबंधित ज्ञानावरणादि आठों कर्मरूपी मल से रहित होकर शुद्ध होने की इच्छा से जगत के स्वभाव की भावना करना योग्य है ।