योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 178
From जैनकोष
संसारी जीव की प्रवृत्ति -
सुगतिं दुर्गतिं प्राप्त: स्वीकरोति कलेवरम् ।
तत्रेन्द्रियाणि जायन्ते गृह्णाति विषयांस्तत: ।।१७८।।
अन्वय :- सुगतिं दुर्गतिं प्राप्त: (जीव:) कलेवरं स्वीकरोति । तत्र (कलेवरे) इन्द्रियाणि जायन्ते, तत: (इन्द्रियत:) विषयान् गृह्णाति ।
सरलार्थ :- देव-मनुष्यरूप सुगति और नरक-तिर्यंचरूप-दुर्गति को प्राप्त हुआ जीव उस- उस गतियोग्य शरीर को ग्रहण करता है । उस शरीर में यथायोग्य इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं और उन इंद्रियों से स्पर्शादि विषयों को ग्रहण करता है ।