योगसार - बन्ध-अधिकार गाथा 189
From जैनकोष
बुद्धिमान पुण्य-पाप को एक मानते हैं -
पश्यन्तो जन्मकान्तारे प्रवेशं पुण्य-पापत: ।
विशेषं प्रतिपद्यन्ते न तयो: शुद्धबुद्धय: ।।१८९।।
अन्वय :- पुण्य-पापत: जन्मकान्तारे प्रवेशं (भवति । एतत्) पश्यन्त: शुद्धबुद्धय: तयो: (पुण्य-पापयो:) विशेषं न प्रतिपद्यन्ते ।
सरलार्थ :- पुण्य-पापरूप कर्म के कारण ही संसाररूपी दु:खद वन में प्रवेश होता है, यह जानकर शुद्धबुद्धिवाले जीव पुण्यपाप में भेद नहीं मानते अर्थात् दोनों को संसार-वन में भ्राने की दृष्टि से समान समझते हैं ।