योगसार - संवर-अधिकार गाथा 232
From जैनकोष
राग-द्वेष सहित तप से शुद्धि नहीं -
शुभा शुभ - पर - द्रव्य - राग द्वेष -िवधा ियन : ।
न जातु जायते शुद्धि: कुर्वतोsपि चिरं तप: ।।२३२।।
अन्वय :- शुभ-अशुभ-पर-द्रव्य-राग-द्वेष-विधायिन: चिरं तप: कुर्वत: अपि शुद्धि: जातु न जायते ।
सरलार्थ :- शुभ-अशुभरूप अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल लगनेवाले परद्रव्य को सुख-दु:खदाता मानकर राग-द्वेष करनेवाले जीव के चिरकाल पर्यंत बाह्य तपश्चरण करने पर भी उसे कभी शुद्धि अर्थात् वीतरागता/सच्चा धर्म प्रगट नहीं होता ।