योगसार - संवर-अधिकार गाथा 239
From जैनकोष
वन्दना का स्वरूप -
पवित्र- दर्शन- ज्ञान- चारित्रमयमुत्तमम् ।
आत्मानं वन्द्यमानस्य वन्दनाकथि कोविदै: ।।२३९।।
अन्वय :- वन्द्यमानस्य पवित्र-दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयं उत्तमं आत्मानं (योगिन:) कोविदै: वन्दना अकथि । सरलार्थ (१) :- मुनिराज जब पवित्र अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र को प्राप्त शुद्धात्मा को नमस्कार करते हैं, तब उस नमस्कार करनेरूप शुभक्रिया और शुभ परिणाम को विज्ञ/तत्त्वज्ञ पुरुष (व्यवहार से) वन्दना कहते हैं । सरलार्थ (२) :- जो पुरुष पवित्र दर्शन, ज्ञान और चारित्रस्वरूप उत्तम आत्मा की वन्दना करते हैं, विद्वानों ने उसी वंदना को उत्तम वंदना कहा है । (यहाँ वन्दना का अर्थ शुद्धोपयोगरूप पर्याय द्वारा शुद्धात्मस्वभाव में लीनता ही है ।)