वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1006
From जैनकोष
हृदि स्फुरति तस्योच्चैर्बोधिरत्नं सुनिर्मलम्।
शीलशालो न यस्याक्षदंतिभि: प्रविदारित:।।1006।।
अक्षदंतियों से अविदारित शील वाले योगी के निर्मल बोधिरत्न का चित्त में स्फुरण―उस योगी पुरुष के चित्त में बोधिरूपी रत्न निर्मलता से स्फुरित होता है जिसके साथ शील हो। जिसका शीलरूपी शाल हस्तियों से भंग न हो वह पुरुष बोधिरत्न को प्राप्त करता है। और, निर्मल हो जाता है। बोधिरत्न अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र याने आत्मा की सूझ, आत्मा की बूझ और आत्मा की रीझ। सूझ होना सम्यग्दर्शन, बूझ होना सम्यग्ज्ञान है और रीझ होना सम्यक्चारित्र है। वही करते रहते हे योगीजन जिसके कारण एकांत वन में रहकर भी उन्हें ऊब नहीं आती। वे अपने ही ज्ञान में रत और तृप्त रहकर अपना सारा समय बड़ी शांति से व्यतीत करते हैं। ऐसी वृत्ति उनके ही तो बन सकेगी जिनकी इंद्रियाँक्रोध नहीं करती। जिनके अब विषयभावना नहीं रही ऐसे ही पुरुष इस सत्य विश्राम को प्राप्त करते हैं जब थक जाते हैं तो आराम करने की बात मन में आती है। शरीर से थे गए तो आराम चाहिए, मगर जरा अंतर्दृष्टि से देखो तो सही कि यह आत्मा विकल्पों से कितना थक गया है। अनादि से लेकर अब तक विकल्प ही विकल्प मचाये। विकल्पों के क्षोभ से यह जीव मथा गया, परेशान हो गया। भीतरी थकान तो देखो― इस भीतरी थकान को मेटने का उपाय क्या? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यही हे उपाय। आत्मा का सत्य श्रद्धान होना, आत्मा का सत्य ज्ञान होना और आत्मा में रम जाना बस यही है सच्चा उपाय। पहिले यह श्रद्धा करना कि हम विकल्पों से थक गए हैं। अब मुझे न चाहिए विकल्प। इतनी तो रुचि पहिले जगावो, फिर बनने को जब जो बने, बन जाय, लेकिन इतना तो ध्यान में आये कि हम विकल्पों से परेशान हो गए, थक गए, और व्यर्थ के विकल्प, जिन विकल्पों से इस आत्मा का लाभ कुछ नहीं है। मोहियों को राग में लगता हे ऐसा कि यह तो विकल्प करना ही चाहिए। स्त्री पु9ों की जिम्मेदारी तो हम पर ही है। हमें ही तो उन्हें ठीक करना है, विकल्प ऐसे करना उचित है, करना ही चाहिए। यह भ्रम है। अरे ये विकल्प करना इस आत्मा के अनुचित कार्य हैं। आत्मा में विकल्प का कोर्इ स्वरूप नहीं है, अधिकार नहीं है। इस विकल्प से मुझे थकान होता है, ये ही विकल्प मेरे लिए विपदा हैं, ऐसी सत्य प्रतीति तो हो तब इस विकल्प विपदा से दूर होने का अवसर भी मिल जायेगा।उसी मनुष्य के हृदय में रत्नत्रयरूपी परम विश्राम प्राप्त होता है जिसके स्वभाव को, शील को इन इंद्रिय हस्तियों ने विदीर्ण नहीं किया।