वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1057
From जैनकोष
अयं त्रिजगतीभर्ता विश्वज्ञोऽन्नतशक्तिमान्।
नात्मानमपि जानाति स्वस्वरूपात्परिच्युत:।।1057।।
स्वरूपपरिच्युत जीव के अनंत शक्तिस्वभाव होने पर भी आत्मज्ञान का अभाव― यह आत्मा तीनों लोकों का स्वामी है, समस्त पदार्थों का जाननहार है, अनंत शक्ति वाला है, परंतु अनादि काल से ही यह जीव अपने स्वभाव से च्युत है, अपने आपको जानता नहीं है। जैसे कोई धनिक पुरुष जिसका धन जमीन में गड़ा हो, लाखों करोड़ों की विभूति का पता न हो तो वह अपने महल में होने पर भी दीन है, दरिद्र है इसी प्रकार निज आत्मप्रदेशों में समस्त वैभव मौजूद है समस्त समृद्धियाँ होने पर भी इसे पता नहीं है कि मैं अनंत शक्तिमान हूँ, तब यह अपनी इस अनंत सामर्थ्य को भूलकर बाहरी विषयों में यह प्रतीति करता है और दु:खी होता है यह सबसे बड़ा भारी पुरुषार्थ है कि अपने आपके अतुल ज्ञान सामर्थ्य का परिचय पा लेना। एक शांति ही तो चाहिए ना, यदि शांति अपने आपमें नियत हो जाने से सबका संबंध तोड़ देने से प्राप्त होती है तो उसमें टोटा क्या है? लाभ ही लाभ है। ऐसा ज्ञान बनायें, ऐसा उपयोग बनायें कि बाह्य पदार्थों से चित्त हटकर एक अपने आपके अंत: स्वरूप में रहें। यह अपनी ही बड़ी भारी भूल होगी जो ऐसा अज्ञान बना रहे है कि अपने आपकी महिमा का स्वयं तो पता न रहे। ध्यान के प्रकरण में इस प्रसंग में यह उत्साह दिलाया जा रहा है कि तू बाहर में मत झाँक। बाहर में कुछ न मिलेगा। तेरी सब सामर्थ्य समृद्धि तेरे में ही है, अपने आपमें दृष्टि कर और सदा के लिए शांत सुखी बन।कलंकों से छूटकर निष्कलंक पवित्र बन यह आत्मतत्त्व का ध्यान हम आप सबको अनंत सामर्थ्य और अनंत आनंद प्रदान कर सकेगा। अपनी सामर्थ्य को मत भूल और बाहरी पदार्थों में मत अपना सुख ढूँढ़।