वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1218
From जैनकोष
हिंसानंदांमृषानंदाच्चौर्यात्संरक्षणात्तथा।
प्रभवत्यंगिनां शश्र्वदपि रौद्रं चतुर्विधम्।।1218।।
हिंसा में आनंद मानने से, झूठ में आनंद मानने से, चोरी में आनंद मानने से और विषयसंरक्षण में आनंद मानने से रौद्रध्यान होता है। अब समझ लीजिए कि कैसे-कैसे रौद्रध्यान बन जाया करते हैं। हिंसा करना कराना और उसमें आनंद मानना प्रकट रौद्रध्यान है, पाप है, लेकिन खुद के आराम के खातिर उन जीवों की हिंसा कर रहे हैं, यह भी एक रौद्रध्यान है। अपने विषय साधनों के लिए अथवा अपने किसी भी मतलब की सिद्धि के लिए ऐसा प्रयोग करना कि चाहे उसमें दूसरों का दिल दु:खे, क्लेश हो वह भी रौद्रध्यान है। झूठ बोलने में जो मौज लेते हैं वह भी रौद्रध्यान है। अब सभी बातों को विचारते जायें कि हम कितना रौद्रध्यान बसाया करते हैं। चोरी में आनंद मानना, छुपकर कोई कार्य करके आनंद मानना आदिक चौर्यानंद नाम के आर्तध्यान हैं। कभी मान लो व्रत लिया हो और खाते हुए में कोई जरा सा बाल दिख जाय और उसे अगल-बगल करके निपटारा कर दिया जाय तो वह चौर्यानंद आर्तध्यान हुआ कि नहीं। चोरी हैं वे सब बातें जो-जो इस जीव को छुपकर करनी पड़ें। जब कुत्ते को रोटी डालते हैं तो वह कितना प्रेमवश, प्रीति दिखाकर, पूँछ हिलाकर, मालिक की विनय करता हुआ रोटी खाता जाता है, और किसी तरह से वह कुत्ता चौके से रोटी उठा ले जाय तो कितना वह लुक छिपकर भागता है। और किसी एकांत स्थान में जाकर रोटी खाता है। सो चौर्य के भाव में मौज मानना सो चौर्यानंद रौद्रध्यान है और चौथा है विषयसंरक्षणानंद। केवल धनवैभव बढ़ाने में आनंद मानने का ही नाम रौद्रध्यान नहीं, किंतु पंचइंद्रिय और छठा मन इन विषयों का संरक्षण जिस किसी प्रकार हो उसमें भी आनंद मानना, यह सब रौद्रध्यान है। तो कीर्ति नामवरी नेतागिरी के खातिर हजारों रुपये खर्च करके आनंद माने तो वह भी विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान हुआ। परिग्रह नाम केवल रुपया पैसों का ही नहीं किंतु जो किसी भी अनात्मतत्त्व में रुचि जगाये, उसे अंगीकार करे वह सब परिग्रह कहलाता है। तो ये चार प्रकार के रौद्रध्यान हैं। ये जीव के सदैव भी चार प्रकार के रौद्रध्यान उत्पन्न होते रहते हैं। एकेंद्रिय से लेकर संज्ञीपंचेंद्रिय तक के समस्त जीवों के बराबर रौद्रध्यान रहता है। जिनके मन है वे अच्छे ढंग से आर्तध्यान कर लेते हैं बड़ी कला से और जिनके मन नहीं है वे संज्ञावों के वश होकर इन ध्यानों को करते रहते हैं। ये चार प्रकार के ध्यान इस जीव को पदच्युत कर देते हैं।
एक अपने आपके स्वरूप की दृष्टि जगे और जब यह विदित हो कि यह मैं आत्मा अपने ऐसे दृढ़ किले वाला हूँ कि जिसका किसी भी परतत्त्व में प्रवेश ही नहीं हो सकता। जब यह दृष्टि से आये कि मैं सबसे न्यारा हूँ, अपने आपमें परिणमन करता रहता हूँ, अपने को करता हूँ, अपने को ही भोगता हूँ। मैं निरंतर कुछ न कुछ परिणमन करता ही रहता हूँ, इसके आगे और कुछ मैं नहीं करता। यों समझकर जब भेदविज्ञान जगता है, विज्ञान जगता है, मैं न्यारा सब न्यारे, उस पुरुष के फिर रुद्र आशय नहीं रह पाता। नीति के ग्रंथ में दुष्ट पुरुष की मच्छरों से उपमा दी है। जैसे मच्छर पहिले पैर में पड़ते हैं, पीछे पीठ का माँस खाते हैं। तीसरे कान में कुछ अपने शब्द बोलते हैं ये तीन काम हैं मच्छरों के, ऐसे ही दुष्टों के भी ये तीन काम हैं― पहिले पैरों में पड़ जायें, आप बड़े हितैषी हैं, आपका क्या कहना है, आप एकचित्त हैं ऐसा विश्वास पहिले पैदा कराया और पीठ पीछे बुराई किया फिर कानों में कुछ न कुछ शब्द गुनगुनाते हैं, यहाँ की बात वहाँ कहा, तो यह सब रुद्र आशय की चीज बतायी गई है। जब प्राणी का क्रूर आशय होता है तो उसकी ऐसी प्रवृत्ति होती है। यहाँ सार नहीं है। सार है एक विशुद्ध आत्मा के ध्यान में, वैभव जुड़ जाय, परिजन अच्छे हो जायें, इज्जत भी बढ़ जाय, सब कुछ हो जाय, पर एक धर्म के संचय की बात न आये तो कोई भी अपना हित करने में समर्थ नहीं है। सबका संबंध एक जुदी-जुदी दिशा से होता है। धर्म का संबंध सदा के लिए इस जीव को निराकुल बना देता है। देश का संबंध, समाज का संबंध, कुटुंबियों का संबंध जीव को सदा आकुलित बनाये रहता है, पर एक धर्म का संबंध ऐसा है कि जीव को सदा के लिए निराकुलता बनी रहती है तो जब भेदविज्ञान ज्योति जगती है और सबसे निराला केवल ज्ञानमात्र अपने अनुभव में आता है उस समय विदित होता है कि एक मेरे आत्मा के ध्यान के सिवाय अन्य सब अत्यंत असार है। यह ज्ञान जिनके नहीं जगा उनको पर्याय में आत्मबुद्धि रहती है। और शरीर की जो इंद्रियाँ हैं उनके पोषण के लिए ही यत्न रहता है, उसमें आशय अवश्य क्रूर हो जाता है।