वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1225
From जैनकोष
श्रुते दृष्टे स्मृते जंतुवधाद्युरुपराभवे।
यो हर्षस्तद्धि विज्ञेयं रौद्रं दु:खानलेंधनम्।।1225।।
जीवों के बंधन आदिक के तीव्र दु:ख अपमान आदिक के देखने सुनने में हर्ष करना यह भी रौद्रध्यान है। सब जीवों में अपनी-अपनी कषायें हैं, सभी अपने-अपने कषायों के अनुसार बर्ताव करते हैं, किसी से कुछ मतलब तो नहीं, कोई किसी का शत्रु नहीं, पर किसी को इष्ट और किसी को अनिष्ट मान ले तो यह भी आर्तध्यान है। अरे ये सभी अपना-अपना स्वार्थ चाहते हैं, अपना सुख चाहते हैं, किसी का किसी से यहाँ कोई नाता नहीं कोई संबंध नहीं, पर किसी में इष्ट मानने की बात जगी और किसी में अनिष्ट मानने की बात जगी, किसी के मान को सुनकर खुश हो रहे तो किसी के अपमान को सुनकर खुश हो रहे, यह सब क्या है? यह सब रौद्रध्यान ही तो है। किसी का मरण जानकर, अकल्याण जानकर हर्ष मानना यह भी रौद्रध्यान है। यह रौद्रध्यान दु:खरूपी अग्नि को बढ़ाने के लिए ईंधन के समान है। जैसे ईंधन पाकर अग्नि बढ़ती है ऐसे ही रौद्रध्यान को पाकर यह दु:ख बढ़ता है। इस रौद्रध्यान से आत्मा को सिद्धि कुछ नहीं मिलती। हमारा जो कुछ भी भविष्य बनता है वह हमारे भावों के अनुसार बनता है। फिर दूसरों के प्रति दुर्भावना रखना, किसी को शत्रु मानना, किसी को अनिष्ट समझना ये सब अनर्थ की बातें हैं, क्लेश की ही बातें हैं। अपने परिणाम न बिगड़ने देना, अपनी भावनाएँ विशुद्ध बनाना, इसमें ही लाभ है। कोई बाह्य अर्थों की प्राप्ति के लिए दुर्भावना बनाये और कदाचित् वे प्राप्त भी हो जायें तो समझिये कि वह सब पूर्वकृत पुण्य का फल है। क्रूर आशय बनाकर जो कुछ वैभव जोड़ भी लिया तो उससे इस आत्मा का कुछ भी लाभ नहीं है। पाप का उदय आयगा और इससे कई गुना दु:ख भोगना पड़ेगा। अपनी भावनाएँ विशुद्ध बनायें, खोटे ध्यानों का त्याग करें, इसमें ही अपना भला है।