वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1235
From जैनकोष
असत्यसामर्थ्यवशादरातीन् नृपेण वान्येन च घातयामि।
अदोषिणां दोषचयं विधाय चिंतेति रौद्राय मता मुनींद्रै:।।1235।।
मैं देश को समूह को सिद्ध करके, अपनी चतुराई से अमुक के द्वारा या राजा के द्वारा अमुक का घात कराऊँगा, इस प्रकार का चिंतन करना सो रौद्रध्यान कहलाता है। सुदर्शन सेठ के समय में रानी ने उससे दुर्व्यवहार करने को कहा। सेठ सुदर्शन ने कहा कि ऐ माँ ! मैं तो शीलवान हूँ, इस प्रकार का खोटा कार्य मैं नहीं कर सकता। तब रानी को क्रोध जगा और झट उसके प्राणघात की बात सोची। अपने कपड़े फाड़ लिए और सेठ सुदर्शन पर झूठा आरोप लगाया और जब वह फाँसी पर चढ़ाया गया तो उस समय उसके पुण्य के प्रताप से उसकी देवों ने रक्षा की। लेकिन उस समय रानी को इतना विकट रौद्रध्यान रहा कि...तो असत्य संभाषण करके दूसरे के प्राणघात करा देना यह रौद्रध्यान है। प्राय: सभी मनुष्य करोड़ों में बिरले ही एक दो लोगों को छोड़कर रौद्रध्यानी समाज मिलेगा। जिसको अपने स्वार्थ की गरज है, अपने विषयसाधनों की गरज है और दूसरे का कुछ भी हो, दूसरों का चाहे अहित हो जाय, पर कुछ परवाह नहीं रखते, ऐसे पुरुष विकट रौद्रध्यानी ही तो हैं। इसमें सार कुछ नहीं मिलता। जीव पर बात वह गुजरती है जैसा कि यह जीव परिणाम करता है। खोटे परिणाम करने का फल बाद में भी भोगेगा, किंतु तत्काल भी भोग लेता है। खोटे परिणामों से शांति प्राप्त नहीं होती। तो अशांति का फल तो उसने तुरंत भोग लिया। अब जो कर्मबंध होगा उसके फल में जो बात बीतेगी भविष्य में उसे भोग लेगा। तो खोटे परिणाम में जीव को कुछ लाभ नहीं है। कुछ पैसा कम आता है तो इसमें कुछ आपत्ति आती है क्या? खोटे परिणाम न करना, यह तो अपने आप पर बहुत बड़ी दया है, इससे इतना विशेष पुण्यबंध होगा कि कुछ ही काल बाद उसे मनोवांछित विभूति प्राप्त हो सकती है।
रौद्रध्यान एक विकट बुरा ध्यान है उससे हम बचे रहें। ऐसा कार्य करें ऐसा सत्संग बनायें स्वाध्याय का, धर्म का, ज्ञान चर्चा का, पढ़ने पढ़ाने का अथवा दीन दुखियों के उपकार का तो यह अपने भले की बात है। जो लोक में बड़े सुखी हैं, बड़े आराम से ठाठ से रहते हैं, बहुत वैभव है, बड़ी कारें हैं, बहुत आराम है ऐसों के संग में रहने से लाभ क्या? और गरीब यदि किसी धनिक की मित्रता करे तो लुटेगा वही गरीब ही धनिक न लुटेगा। तो ऐसे पुरुषों का संग करने से लाभ क्या है? संग तो ऐसा करें, विश्वास तो ऐसों के बीच रखें कि जिसमें प्रभु की सुध रहे और अपने आत्मा की सुध रहे। बाहर चलते फिरते में जो दु:खी पशुवों को देखते हैं, बड़ा बोझ लादते हैं, फिर भी बड़े चाबुक मारे जा रहे हैं आदिक अनेक ढंग जो दिखते हैं उनको देखकर भी आत्मा को लाभ है, दया तो आती है, भीतर में नम्रता तो जगती है और सुध तो होती है कि अज्ञान दशा में रहने का यह फल होता है। यदि हम भी इन पशुवों की ही तरह अज्ञानी बने रहे तो ऐसे ही कष्ट भोगने पड़ेंगे। उन बड़े रईसों के संग में रहकर क्या करें जो ठीक तरह से बात भी नहीं करते और अपने स्वार्थ की बात कुछ बन रही हो तो गरीबों की पूछ कर सकते हैं। ऐसे लोगों के संग में रहकर न तो धर्म का लाभ, न पुण्य का लाभ। उल्टा अशांति है और देख देखकर कायर वृत्ति से रहना पड़ता है। उसके पाप और रहते हैं। तो सत्संग हो गुणियों का, रोगियों की सेवा में आयें ऐसी-ऐसी बातें जो अपने को सावधान बनाये रहें वह तो है लाभ का संग, और जो ईर्ष्या बढ़ायें, द्वेष बढ़ायें, तृष्णा बढ़ायें, कायरता बढ़ायें ऐसे संग ग्रहण करने योग्य नहीं हैं। तो मैं ऐसे असत्य की सामर्थ्य का प्रभाव बताऊँगा कि इस दुश्मन को मैं राजा के द्वारा प्राणघात कराऊँगा या किसी दूसरे के द्वारा। एक नाई था उसने किसी सेठ की हजामत बनाई, हजामत बनाने में किसी एक जगह छुरा लग गया। जब हजामत बन चुकी तो सेठ ने पूछा कि कितनी जगह छुरा लगा। तो नाई डरते हुए कहता है कि एक जगह, नाई ने सोचा कि कहो सेठ जी ने पैसे भी न दें। पर सेठजी ने उसे दो रुपये दिये। नाई ने सोचा कि एक जगह छुरा लगा इसलिए दो रुपये मिले यदि दो जगह छुरा लगता तो चार रुपये मिलते। सोचा कि यह तो पैसा कमाने का अच्छा उपाय मिल गया। सेठ ने जो उसे इनाम दिया था वह अच्छे आशय से नहीं बल्कि बुरे आशय से दिया था। सेठ जी का आशय था कि और किसी के अगर छुरा मारा तो इसे उसका बुरा फल मिलेगा। आखिर हुआ भी ऐसा ही। किसी बाबूजी की हजामत बनाई तो दो जगह छुरा मार दिया। नाई तो सोचता था कि एक जगह छुरा मारने से 2 रु. मिले थे तो दो जगह छुरा मारने से बाबूजी 4 रु. देंगे, पर हुआ क्या कि बाबूजी ने उतारकर उसके चार छ: जूते मारे। तो सेठ का वह दान रौद्रध्यान कहलाया।