वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1237
From जैनकोष
इमान् जडान् बोधविचारविच्युतान् प्रतारयाम्यद्य वचोभिरुन्नतै:।
अमी प्रवतर्स्यंति मदीयकौशलादकार्यवर्गेष्विति नात्र संशय:।।1237।।
ऐसा विचार करना कि यह तो ज्ञानरहित मूर्ख प्राणी है, इसको अपनी प्रबल चतुराई के बल से देखो मैं अभी ठगे लेता हूँ। मैं ऐसा चतुर हूँ, ऐसी चतुराई का अपने मन में संतोष करना यह सब है रौद्रध्यान। वस्तुत: देखो तो कोई दूसरे को यदि ठगता है तो उसने अपने आपको ही ठगा। दूसरे का तो पैसा ही कुछ गया होगा और कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन जो दूसरे को ठगता है उसका चूँकि अभिप्राय दूषित है इसलिए वह स्वयं अपने आपको दुर्गति में डालता है, पापबंध करता है, अपने आपके भविष्य को वह अंधेरे में डालता है। यदि कोई ऐसा चिंतन करे कि मैं वचनों की प्रवीणता से इन भोले जीवों को अभी ठगे लेता हूँ तो वह रौद्रध्यान है। कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ देहाती पुरुषों को पाकर शहरी लोग उन्हें बेवकूफ बनाते हैं और हर्ष मानते हैं, अपने को बड़ा चतुर तथा उन देहात के लोगों को बेवकूफ अनुभव करते हैं और उनमें अपनी कुछ चतुराई बगराकर मौज मानते हैं, यह रौद्रध्यान है। ये ज्ञानरहित मूर्ख प्राणी हैं इनमें में अपनी चतुरता दिखाकर कुछ पैसा कमा लूँगा, इस प्रकार की भावना बनाना रौद्रध्यान है। बहुत पहिले जमाने में शादियां छोटी उम्र में हो जाया करती थी। उस समय दूल्हे को बेवकूफ बनाने का रिवाज था। कहीं जूते छिपाकर रख दिया और किसी चीज से ढाक दिया और कह दिया कि इसके पैर छू लो, यह अमुक देव है, कहीं चक्की के पाट को, कहीं मूसल आदि को बता दिया कि इसके पैर छू लो यह अमुक देव है। यों बेवकूफ बनाने का रिवाज था। वह पैर छू लेता था और सभी देखने वाले लोग हँसने लगते थे, वह भी तो रौद्रध्यान है। दूसरे जीव का अनादर करना, अपनी चतुराई समझना और उसमें हर्ष मानना, यह रौद्रध्यान है।